रविवार, 6 जून 2010

'असली भारत' की बीमारियों पर नहीं होता खर्च

देश में सबसे ज्यादा मौतें कालाजार, टीबी, मलेरिया, डेंगू और जापानी बुखार से होती हैं लेकिन इन बीमारियों से ल़ड़ने के लिए दवा कंपनियां और विशेषकर विदेशी कंपनियां सबसे कम पैसा खर्च कर रही हैं। जो कुछ शोध भारतीय बीमारियों के हिसाब से हो रहा है वह देसी कंपनियां ही कर रही हैं। विदेशी पूंजी से चलने वाली कंपनियां इस बारे में बुरी तरह उदासीन हैं।
विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्लूएचओ) को भारतीय वैज्ञानिकों द्वारा भेजी गई रिपोर्ट से ये चौंकाने वाले तथ्य सामने आए हैं कि विदेशी प्रत्यक्ष निवेश के मामले में भारतीय दवा उद्योग लगातार फिसड्डी साबित हो रहा है। इस क्षेत्र में विदेशी प्रत्यक्ष निवेश इतनी तेजी से गिर रहा है कि २००९ में यह उद्योग ८वें नंबर से गिरकर १४वें पर पहुंच गया।
नईदुनिया को मिली रिपोर्ट से यह साफ होता है कि दवा के क्षेत्र में जो भी विदेशी पूंजी आ रही है वह सिर्फ भारतीय कंपनियों के अधिग्रहण में रही है और भारत को विदेशी दवाओं का बाजार तैयार कर रही है। देश के शीर्ष वैज्ञानिक शोध संस्थान निस्टार्ड द्वारा तैयार इस रिपोर्ट को विश्व स्वास्थ्य संगठन तथा केंद्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय को भेजा गया है।
इससे तीन बातें सामने आई हैं। पहला यह कि विदेशी प्रत्यक्ष निवेश या विदेशी दवा कंपनियों ने भारत में नई दवा की खोज की दिशा में कोई कारगर निवेश नहीं किया है। दूसरा, नई दवाओं की डिलीवरी में भी उनका कोई योगदान नहीं हो रहा । विदेशी कंपनियों का सारा जोर देसी दवा कंपनियों को खरीदने पर है। हाल ही में देश की शीर्ष दवा कंपनी रैनबैक्सी को जापानी कंपनी डायची सैंको द्वारा खरीदना इसका नवीनतम उदाहरण है। डाबर और निकोलस पिरामल कंपनियों के भी कई हिस्सों को विदेशी दवा कंपनियां खरीद चुकी हैं हैं।
इस बारे में जब निस्टार्ड के वरिष्ठ वैज्ञानिक दिनेश अबरोल से बात की गई तो उन्होंने बताया कि हैरानी की बात यह है कि जिन बीमारियों से भारतीय सबसे ज्यादा मरते हैं, उन पर कोई शोध नहीं हो रहा और न ही कोई विदेशी निवेश आ रहा है। जबकि एक दशक पहले व्यापार संबंधी बौद्धिक संपदा अधिकार (ट्रेड रिलेटेड इंटेलेक्चुअल प्रोपर्टी राइट्स (ट्रिप्स) पर हस्ताक्षर करते समय यह दावा किया गया था कि दवा उद्योग में भी उच्च तकनीक आएगी, नई दवाओं पर अनुसंधान होगा आदि।
इसी आधार पर प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को इस क्षेत्र में अनुमति दी गई थी। दस साल का अनुभव बताता है कि हो इसका उल्टा रहा है। आज भी शोध एवं अनुसंधान पर देसी दवा कंपनियां ही खर्च कर रही हैं जबकि विदेशी कंपनियां नए रैपर और नई मार्केटिंग के साथ ही पुराने दवा फार्मुलेशंस को उतार रही हैं(भाषा सिंह,नई दुनिया,6 जून,2010)।

1 टिप्पणी:

  1. क्या अब भी किसी की आंख खुलेगी। इस बात से बड़ी निराशा होती है कि जवाहर लाल नेहरु जितना देश को आत्मनिर्भर बनाना चाहते थे आज सरकार उतना ही पीछे करने पर तुली हुई है।

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