विकसित देश गरीबों और अमीरों, दोनों को एक साथ आक्रांत करने वाले वायरस संक्रमण के ग्लोबल खतरे से अनजान नहीं है। सार्स, एवियन फ्लू, स्वाइन एन्फ्लुएंजा से ग्लोबल इकोनॉमी को 200 अरब डॉलर का नुकसान हो चुका है। ये संक्रमण बीच-बीच उभरते रहते हैं और माना जाता है कि यह जानवरों से मनुष्यों में संक्रमित होते हैं। हालांकि इस बार में अब तक पक्के तौर पर कुछ कहा नहीं जा सका है। ऐसे खतरों से मुकाबले के लिए सरकारों, संयुक्त राष्ट्र,नियमन एजेंसियों और दवा कंपनियों की साझा कोशिश जरूरी है। ये सब मिलकर आपसी तालमेल, बीमारियों पर निगरानी और टीके के उत्पादन की दिशा में अहम योगदान क र सकते हैं। लेकिन ऐसी महामारियों के हमलों के दौरान हर दिन दो डॉलर की कमाई पर जीने वाले गरीब लोगों पर सरकारों का पर्याप्त ध्यान नहीं जाता है, क्योंकि ग्लोबल और अपने देश की इकोनॉमी में अहम योगदान नहीं करते हैं। उनकी सरकारें विकसित देशों की स्वास्थ्य बजट के बेहद कम हिस्से में काम चलाती हैं। वयसंधि के आसपास जननांगों में घाव हो जाते हैं, जिससे एचआईवी संक्रमण का खतरा बढ़ जाता है। चमड़ी की हालत खराब होने लगती है।
मोटे तौर पर विकसित देश समझते हैं कि विकासशील देशों में एड्स, टीबी और मलेरिया ही सबसे बड़ी और व्यापक बीमारियां हैं। दरअसल यह सोच इन बीमारियों के पक्ष में चलाए जा रहे अभियानों और विकसित देशों के लिए इनके डर से पैदा हुई है। इस वजह से दूसरी बीमारियों की तुलना में इन बीमारियों के नियंत्रण और शोध के लिए दुनिया भर की एजेंसियां कुछ ज्यादा ही रकम जारी करती हैं। जबकि एड्स, टीबी और मलेरिया के अलावा कई ऐसे संक्रमण हैं जो स्वास्थ्य सेवा से महरूम गरीब आबादी को मार रहे हैं। इन संक्रमणों को मेडिकल की भाषा में नेगलेक्टेड ट्रॉपिकल डिजीज (एनटीडी)कहा जाता है। विकसित देशों के लिए ये बीमारियां अनजान हैं। इनके नाम का उच्चारण भी कठिन है। मसलन - फाइलेरियासिस (एलिफेन्टीइएसिस) ओन्कोसेरियेसिस (रिवर ब्लाइंडनेस) सिटोसोमिएसिस और आंतों की कृमियों जैसी दूसरी बीमारियां। दुनिया के अमीर देशों में रहने वाले खुशकिस्मत लोगों के लिए ये बीमारियां अनजान हैं।
लेकिन दुनिया की गरीब आबादी के लिए ये आम हैं, जहां ये एक से दूसर में आसानी से संक्रमित हो जाती हैं। इन लोगों में यह बीमारी बरसों बनी रहती है। छोटी उम्र में होने वाली ये बीमारियां और उनके लक्षण आगे विकसित होते रहते हैं। कृमियों से पैदा होने वाली बीमारियों से स्वास्थ्य को व्यापक नुकसान पहुंचता है। ये बीमारियां तुरंत जानलेवा तो नहीं होतीं लेकिन ये बच्चों के विकास को कम कर देती हैं। इनके लक्षण जगजाहिर हैं। नजर धीरे-धीर कमजोर हो जाती है। वयसंधि के आसपास जननांगों में घाव हो जाते हैं, जिससे एचआईवी संक्रमण का खतरा बढ़ जाता है। चमड़ी की हालत खराब होने लगती है। कई दूसरी ऐसी बीमारियां हैं, जो मक्खियों और मच्छरों के संक्रमण से फैलती हैं। परजीवी भी कई बीमारियां फैलाते हैं। संकट यह है कि ये संक्रमण मलेरिया और टीबी के खतरों को बढ़ा देते हैं।
अच्छी खबर यह है जिन बीमारियों को एनटीडी (नेगलेक्टेड ट्रॉपिकल डिजीज) कहा जा रहा है उनका इलाज हो सकता है। क्योंकि बड़ी दवा कंपनियां इन बीमारियों के इलाज के लिए बड़ी मात्रा में दवाएं दान में देती हैं। रीवर ब्लाइंडनेस, ट्रेकोमा (अंधता लाने वाली एक और बीमारी), कुष्ठ , एलीफेन्टीएसिस, कृमि से फैलने वाली बीमारियां और बिलहार्जिया और नींद से जुड़ी बीमारियों के लिए इन दवा कंपनियों की ओर से दान में दी जाने वाली दवाइयों ने करोड़ों लोगों के लिए उम्मीद जगाई है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक एशिया में लोगों का सालाना इलाज में 50 डॉलर या इससे कम में हो सकता है। सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों और स्कूलों के जरिये होने वाले ऐसे इलाज की लगत कम होती है। जिन लोगों का इलाज किया जा रहा है, उनकी तादाद लगातार बढ़ती जा रही है। वर्ष, 2007 में 51 देशों में 50 करोड़ लोगों के एलीफेंटिएसिस का इलाज किया गया। 19 देशों के छह करोड़ लोगों के रीवर ब्लाइंडनेस का इलाज हुआ। चार देशों में गुनिया महामारी बनी हुई है, जबकि दुनिया के सिर्फ छह देशों में ही कुष्ठ की समस्या है। ये आंकड़े प्रभावित करते हैं। एड्स के इलाज में इस्तेमाल होने वाली एंटी रट्रोवायरल दवाओं की तुलना में यह इलाज बेहद सस्ता है। एंटी रट्रोवायरल दवाइयां हर रोज लेनी पड़ती है और इनका सालाना खर्च 200 डॉलर से ज्यादा होता है। एचआईवी संक्रमण से चार करोड़ लोग प्रभावित हैं,जबकि एनटीडी से एक अरब लोग। दरअसल एनटीडी का इलाज बड़ी तादाद में लोगों को गरीबी से निकालने में मदद करता है। नीति-निर्माताओं को यह बताना जरूरी है कि अगर दुनिया से और गरीबी मिटानी है तो एड्स, टीबी और मलेरिया की बजाय इन बीमारियों पर ध्यान केंद्रित करें, जो उपेक्षित हैं। इन बीमारियां का इलाज गरीबी मिटाने में ज्यादा सहायक है। यह लक्ष्य पाना मुश्किल नहीं है।
क्योंकि इन बीमारियों के लिए जरूरी दवाएं मौजूद हैं और वे प्रभावी भी हैं। ये दवाइयां बेहद कम कीमत कहीं-कहीं बिल्कुल मुफ्त में उपलब्ध है। दवाइयों की डिलीवरी आसान है और इनके अतिरिक्त फायदे हैं। अब हमें यह सोचना है कि क्या हम इन बीमारियों के इलाज के मिलने वाले दान के डॉलरों का सही इस्तेमाल कर रहें या थोड़ी और कोशिश करने की जरूरत है(संपादकीय,बिजनेस भास्कर,31 मई,2010)।
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