शुक्रवार, 28 मई 2010

सेहतमंद हो रहा दवा उद्योग

आज जो भारतीय दवा कंपनी है, कल वही विदेशी चोला ओढ़ सकती है। यह चलन बढ़ रहा है और पिरामल घराने ने फॉर्म्यूलेशन से जुड़ी अपनी संपत्ति (कंपनी नहीं और न ही हिस्सेदारी) 17,000 करोड़ रुपए में एबॉट के हाथों बेचकर अच्छा सौदा किया है। यह किसी भारतीय दवा कंपनी की संपत्ति के किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी के हाथ में जाने का पहला मामला नहीं है और न ही यह आखिरी होगा। यह सौदा निश्चित तौर पर फार्मा सेक्टर के शेयरों को खुशनुमा अहसास देता दिख रहा है, लेकिन यहां एक सवाल भी है कि भारतीय कंपनियों के बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हाथों में जाने का सिलसिला बढ़ने के साथ क्या सस्ती जेनेरिक दवाओं के मामले में भारत की सफलता का किस्सा तेजी से अपने अंत की ओर बढ़ रहा है? हमारा मानना है कि ऐसा नहीं है। दुनिया भर में दवा क्षेत्र में एकीकरण होता रहा है, जेनेरिक कंपनियां बड़ी हुई हैं और मुख्यत: पेटेंट के सहारे चल रही कंपनियां भी जेनेरिक दवाओं के मैदान में उतर रही हैं। विदेशी बाजारों के कायदे-कानूनों के कारण और वहां तथाकथित अधिकृत जेनेरिक दवा कंपनियों की आमद के साथ पिछले कुछ समय से भारतीय जेनेरिक कंपनियों को दिक्कत हो रही है। दाइची ने जहां जेनेरिक मैदान में दमखम दिखाने की चाहत के साथ रैनबैक्सी को खरीदा, वहीं एबॉट ने भारत में अपनी मौजूदगी बढ़ाने के मकसद से पिरामल का फॉर्म्यूलेशन कारोबार खरीदा है। दरअसल, दवा कंपनियों को लग रहा है कि भविष्य में उनकी कारोबारी बढ़ोतरी में उभरते बाजारों का योगदान कहीं अधिक रहेगा। आसान आमद और नई कंपनियों की तेजी से सामने आती कतार को देखते हुए इस स्थिति की कल्पना करना मुश्किल है कि भारत में जेनेरिक दवाएं महंगी होने लगेंगी। हमारे दवा कारोबार में मेडिकल प्रोफेशन से जुड़े कुछ लोगों की वह प्रवृत्ति कमजोर कड़ी है जिसके तहत वे इस पेशे में उतरते समय ली गई शपथ की उपेक्षा कर देते हैं। मरीज सस्ती जेनेरिक दवा नहीं, बल्कि वह दवा खरीदते हैं जो डॉक्टर ने तजवीज की होती है। अगर दवा कंपनियां डॉक्टर को अपने नुस्खे में ब्रांडेड और महंगी दवाएं लिखने के लिए मना लें तो सस्ते विकल्पों की मौजूदगी भर से कोई बात नहीं बनेगी। भारतीय चिकित्सा परिषद के अध्यक्ष पद से बर्खास्त किए गए व्यक्ति जैसों की निगहबानी में अगर इस पेशे की नैतिकता रहे तो हमें चिंतित होना ही चाहिए। भारतीय दवा कारोबार में आने और इससे निकलने के रास्ते आसान बनाएं और दवा बनाने की नई प्रक्रिया को बढ़ावा दें, भले ही प्रोसेस पेटेंट का जमाना बीत गया है। ऐसा हुआ तो उद्यमी भी फूले-फलेंगे और जनता की सेहत से जुड़ा जोखिम भी घटेगा(संपादकीय,इकनॉमिक टाइम्स,24 मई,2010)।

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