इस देश को जितने डाक्टरों,नर्सों और पैरा-मेडिकल स्टाफ की ज़रूरत है,उतने उपलब्ध नहीं हैं। हमें तत्काल डेढ़ करोड़ डॉक्टरों की जरूरत है। ग्रामीण डाक्टरी का विचार इसीलिए पेश किया गया था। पिछले दिनों आयुष डाक्टरों के विरोध की भी काफी खबरें छपीं मगर अब यह स्पष्ट हो गया है कि मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया के अध्यक्ष डॉ. केतन देसाई की गिरफ्तारी के बावजूद, गांवों के लिए सा़ढ़े तीन साल के वैकल्पिक पाठ्यक्रम को शुरू करने की योजना पर अमल किया जाएगा। इस "ड्रीम प्रोजेक्ट" पर काम जारी है। अधिकतर राज्य चाहते हैं कि यह योजना जल्दी लागू हो ताकि गांवों में डॉक्टरों की उपस्थिति सुनिश्चित की जा सके। गुलाम नबी आजाद ने कहा है कि इसका पाठ्यक्रम भी तैयार हो गया है और इसे सभी राज्य सरकारों को भेज दिया है। यह फैसला राज्य सरकारों को ही करना है कि वे इसे लागू करना चाहेंगे या नहीं। इसी क्रम में आज पढिए 22 अप्रैल के नई दुनिया में प्रकाशित शिव शर्मा जी का यह आलेख जिसमें बताया गया है कि डाक्टरों की फौज झटपट क्यों जरूरी हैः
"खाद्यान्न सुरक्षा का कानून अभी गरीबों की गिनती करने में ही उलझा है और इधर गरीबी के कारण लगभग एक-तिहाई आबादी का बॉडी मास इंडेक्स भी १८०५ से कम होकर अकाल की स्थिति पैदा कर रहा है। आम आदमी का जीना मुहाल हुआ जा रहा है और देश को ब्यूरोके्रेट्स मंत्री इनकी गिनती में ही अटका हुआ है ।
स्वास्थ्य मंत्री ने कुछ समय पहले घोषणा की थी कि ग्रामीण डॉक्टरों की फौज फटाफट खड़ी की जाएगी। अभी दो लाख करोड़ का स्वास्थ्य कारोबार चंद शहरों में ही फैला हुआ है। हमें अभी ३०-४० लाख रुपए का "डोनेशन" देकर बनने वाले डॉक्टर तो नहीं चाहिए। गांव-कस्बों में शोषण करने वाले व्यापारी अपने अयोग्य पुत्रों को घुड़सालनुमा नेताओं के निजी मेडिकल कॉलेजों में दाखिला दिलाकर कर कथित डिग्री दिलवा देते हैं। और वे फिर उन्हीं गांव-कस्बों में जाकर ५०० रुपए की फीस वसूल कर अपने बाप-दादाओं का कर्ज उतारते रहते हैं। वे क्या किसी का इलाज करेंगे?
चीन में जब क्रांति हुई थी तब कॉलेजों-विश्वविद्यालयों पर ताले डाल दिए गए थे और बेयर-फुट डॉक्टरों को देसी दवाएं लेकर जंगलों में भेज दिया गया था, यह कहकर कि वे लोगों का इलाज करें, उन्हें अच्छा करें और डिग्री लें। बाबा रामदेव तो एलोपैथी और अंग्रेजी डॉक्टरों को मल्टी नेशनल कंपनियों का एजेंट ही मानते हैं। जब वे सिंहस्थ पर्व पर उज्जैन आए थे तो उनसे पूछा था कि एलोपैथी और डॉक्टरों के बिना कैसे बताएंगे कि मुझे हाई ब्लडप्रेशर है या बी.पी. शुगर की बीमारी। उन्होंने भी माना कि अभी अन्य पैथियों में अनुसंधान होना बाकी है।
मतलब यह कि १२० करोड़ की जनसंख्या के लिए हमें तत्काल डेढ़ करोड़ डॉक्टरों की जरूरत है। इतनी ही नर्सें एवं पैरा मेडिकल स्टाफ की भी। ५-७ वर्ष के ये लंबे कोर्स एवं लाखों रुपए के व्यय से इस गरीब देश के लिए कैसे संभव है। ५० हजार करोड़ सालाना का बजट, सरकार तो क्या कॉरपोरेट सेक्टर भी खर्च नहीं कर सकेगा। यदि हम चाहते हैं कि प्रत्येक गांव में एक प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र हो और एक झटपट डॉक्टर हो तो हमें तत्काल साढ़े तीन साल में ग्रामीण डॉक्टरों की फौज खड़ी कर देना चाहिए। वे गांवों के ही लड़के हों जो साइंस से हायर सेकेंड्री पास हों और दवाएं लिखने तथा इंजेक्शन लगाने में माहिर हों।
आजादी के छह दशक बाद भी हम बांग्लादेश और सोमालिया से स्वास्थ्य के क्षेत्र में थोड़ा ही आगे हैं। जबकि चीन हमसे बहुत आगे है। विश्व में हृदय रोगों में हमारा देश अव्वल है और एक सौ बीस करोड़ की जांच कराई जाए तो इन बीमारियों का, सेम पित्रोदा और योजना आयोग के आहलूवालिया जो कि गांवों की चिकित्सा व्यवस्था, डिजीटल हाईवे से विदेशी डॉक्टरों से जोड़ना चाहते हैं, क्या इलाज अभी संभव है? इसलिए झटपट डॉक्टरों की फटाफट फौज खड़ी करनी जरूरी है। अन्यथा झाड़-फूंक वाले, जादू से हड्डी जोड़ने वाले, चमत्कारी नीम-हकीमों से कभी मुक्ति नहीं मिलेगी।"
सही मैं जरुरी है कि देश की आम जनता तक डॉक्टर पहुंचे..साठ साल बाद भी आधा हिंदुस्तान प्राथमिक सुविधा का इंतजार कर रहा है .... बेहद ही शर्मनाक स्थिती है.....
जवाब देंहटाएंकुमार सभी पत्रकारों को एक ही तराजू पर न तोले. वैसे भी सच के राह पर सच्चे लोग कम पाखंडी ज्यादा नजर आते हैं.