शुक्रवार, 21 मई 2010

क्या होम्योपैथी महज झाड़-फूंक है?

अभी लंदन में होम्योपैथी को लेकर विवाद उठा। ब्रिटिश मेडिकल एसोसिएशन ने इसे झाड़-फूंक की संज्ञा दी। इस विवाद की वजह भी यही है कि ब्रिटेन की नेशनल हेल्थ सर्विस (एन.एच.एस.) होम्योपैथी पर सालाना चालीस लाख पौंड खर्च कर रही है और आश्चर्यजनक रूप से वहां के होम्योपैथिक अस्पतालों में इलाज के लिए आने वाले मरीजों की संख्या भी बेतहाशा बढ़ रही है। एलोपैथिक लॉबी की चिंता यही है कि होम्योपैथी पर इतना खर्च क्यों किया जा रहा है? होम्योपैथी पर विवाद पांच वर्ष पूर्व भी उठा था। अगस्त, २००५ में ब्रिटेन से प्रकाशित चिकित्सा पत्रिका "लैन्सेट" में एक विवादास्पद टिप्पणी छपी थी-"होम्योपैथी का अंत"। इस टिप्पणी का आधार था इसी अंक में डॉ. आइजिंग गांग एवं उनके साथी वैज्ञानिक द्वारा लिखा लेख जिसका निष्कर्ष था कि होम्योपैथी (खुश करने की दवा) से ज्यादा कुछ भी नहीं है। इस लेख और लैन्सेट के संपादकीय की एलोपैथी के समर्थक चिकित्सकों ने भी खूब खबर ली थी। कहते हैं कि होम्योपैथी पर यह आक्रमण इसलिए हुआ था कि विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यू. एच.ओ.) इसे एलोपैथी के बाद दूसरी संगठित चिकित्सा प्रणाली घोषित करने वाला था।
तरह-तरह की भ्रामक बातें लोगों में फैलाने की तमाम कोशिशों के बावजूद होम्योपैथी दुनिया के डेढ़ सौ से ज्यादा मुल्कों में प्रचलित है। यह चिकित्सा पद्धति एलोपैथी के बाद दूसरी सबसे बड़ी चिकिसा विधि है।विदेशों में होम्योपैथी की बढ़ती लोकप्रियता के आंकड़े गौरतलब हैं। ब्रिटिश वैज्ञानिक माइकल ब्रुक्स के अनुसार फ्रांस के ४० प्रतिशत तथा जर्मनी के २० प्रतिशत एलोपैथिक चिकित्सक स्वयं होमियोपैथिक दवाओं का उपयोग कर रहे हैं। १९९९ के सर्वेक्षण के अनुसार अमेरिका में सालाना ६० लाख लोग होम्योपैथी की चिकित्सा से लाभान्वित हो रहे थे। यह आंकड़ा अब एक करोड़ को पार कर गया है।
मौजूदा विवाद भी एलोपैथी लॉबी की बौखलाहट का नतीजा है भारत सरकार केंद्रीय होम्योपैथिक अनुसंधान परिषद नई दिल्ली के महानिदेशक चतुर्भुज नायक कहते हैं, "होम्योपैथिक दवाओं की प्रभावशीलता की कई कड़ी वैज्ञानिक परीक्षा हो चुकी है। वैज्ञानिक परीक्षणों में होम्योपैथी खरी उतरी है। भारत सरकार एवं अंतर्राष्ट्रीय मान्यता प्राप्त वैज्ञानिक संस्थाओं के परीक्षण में भी होम्योपैथी खरी उतरी है।
होम्योपैथी की प्रभावशीलता का अंतर्राष्ट्रीय आंकड़ा कहता है कि सन्‌ १९८४ में लंदन में फैली महामारी हैजे में एलोपैथी दवा से ५३.२ प्रतिशत मृत्युदर थी, जबकि होम्योपैथी उपचार से मृत्युदर मात्र २४.४ प्रतिशत थी। ऐसे ही १८९२ में जर्मनी में फैली महामारी, १९६२-६४ में न्यूयॉर्क में फैली डिप्थीरिया की महामारी में होम्योपैथी की महत्वपूर्ण भूमिका अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर स्वीकार की गई है।"
(डॉ. ए.के.अरुण,नई दुनिया,दिल्ली,21.5.2010)

2 टिप्‍पणियां:

एक से अधिक ब्लॉगों के स्वामी कृपया अपनी नई पोस्ट का लिंक छोड़ें।