उत्तराखंड के पर्वतीय अंचलों में असंख्य औषधियां बिखरी पड़ी हैं, लेकिन इनमें से बहुत कम औषधियों के बारे में ही लोगों को जानकारी है। पहाड़ में ऐसा ही झाड़ीनुमा पौधा है किनगोड़(यह नाम गढ़वाल में प्रचलित है। अन्य इलाकों में इसे किलमोरेके नाम से जाना जाता है और नेत्र रोग में इसकी उपयोगिता पर काफी कुछ लिखा जा चुका है)। आम तौर पर इसे बकरियों के प्रमुख भोजन व खेतों की सुरक्षा बाड़ के लिए ही प्रयोग में लाया जाता है, जबकि यह डायबिटीज में भी रामवाण औषधि मानी जाती है। किनगोड़ का वानस्पतिक नाम बरबरिस एस्टिका है। इसे क्षेत्र विशेष में अलग-अलग नामों से जाना जाता है। 1000 से 2000 मीटर तक की ऊंचाई पर उगने वाली इस कंटीली झाड़ी की अब तक आधा दर्जन प्रजातियां पहचान में आई हैं। इसकी उपयोगिता के बारे में लोग भले ही कम जानते हों, लेकिन आयुर्वेद मे इसका काफी महत्व है। आमतौर पर इसे खेतों के किनारे बाड़ के विकल्प के रूप में उगाते हैं। किनगोड़ की जड़ों को उबालकर उसका रस डायबिटीज के रोगियों को पिलाया जाता है। इसके अलावा हाथ या पांव में चोट या मोच आ जाने पर इसकी पत्तियों का अर्क निकालकर उससे सिकाई करने से भी लाभ होता है। इसकी जड़ें हल्दी की तरह पीली होती हैं, जिससे इसे दारू हल्दी भी कहा जाता है। आंख से संबंधित रोगों के निदान में भी इसकी जड़ों के अर्क को इस्तेमाल करने से फायदा होता है। इसका फल भी काफी मीठा होता है, जिसे गांव में लोग बड़े चाव से खाते हैं। इसकी पत्तियां बकरियों का उत्तम चारा है। इसके साथ ही इसकी जड़ों से प्राकृतिक रंग भी बनाया जाता है। हालांकि वन विभाग ने इसकी जड़ों को खोदने पर प्रतिबंध लगाया है। उधर, पर्यावरण विशेषज्ञों का मानना है कि जो उपयोग जड़ों का है, वही उपयोग पत्तियों का भी है। इसलिए उपयोग को जड़ों को खोदने के बजाय पत्तियों का उपयोग करने से किनगोड़ का संरक्षण हो पाएगा। पर्वतीय परिसर रानीचौरी के वैज्ञानिक डा. वीके शाह का कहना है, कि यह पूरी तरह औषधीय पौधा है। इसका संरक्षण नहीं किया तो यह दुर्लभ प्रजातियों में गिनी जाएगी(दैनिक जागरण,देहरादून,20.5.2010 में चम्बा से रघुभाई जड़धारी की रिपोर्ट आशोधित रूप में)
उपयोगी जानकारी इस वनस्पति के संरक्षण की आवश्यकता है।
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