आयुर्वेदिक औषधियों के लिए लगभग दो हजार पदार्थ प्रयुक्त होते हैं। इनमें लगभग दो सौ धातु व खनिज से तथा दो सौ जीव-जंतुओं से प्राप्त किए जाते हैं। शेष पंद्रह सौ पदार्थ वनस्पतियों से मिलते हैं। चरकसंहिता में सात सौ वनस्पतियों की चर्चा है। ऋग्वैदिक काल से ही इस्तेमाल की जानीवाली चिकित्सा पद्धति को जब अथर्ववेद में संहिताबद्ध किया गया तो उसमें कई वनस्पतियों और उनके चिकित्सकीय लाभ भी बताए गए। इसके करीब एक हजार वर्ष बाद चरकसंहिता में लगभग सात सौ औषधियों और इतनी ही वनस्पतियों का वर्णन मिलता है। संयोग की बात है कि झारखंड में हिमालयीन जलवायु में पाए जानेवाले वनस्पतियों को छोड़ शेष सभी वनस्पतियां पाई जाती हैं। अपनी वन संपदा के लिए पूरे देश में विशिष्ट स्थान रखनेवाले झारखंड के री-इन्वेंशन की आवश्यकता है। अपने भौगोलिक विस्तार के लगभग 29 प्रतिशत भाग में वन संपदा वाले इस राज्य का वानस्पतिक वैविध्य इसे खनिज संपदा से संपन्न राज्य से इतर अलग पहचान देने में सक्षम है। यहां के छोटे-छोटे औषधीय पौधे बड़े गुणकारी, लाभकारी व प्रभावकारी हैं। आज के दैनिक जागरण के रांची संस्करण में,प्रवीण प्रियदर्शी ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि इस शक्ति को पहचान कर इसे व्यावसायिक आयाम देने और जंगल के मुहाफिज आदिवासियों को इसके बाजार मूल्य से अवगत कराने की आवश्यकता है। उन्होंने वन विभाग के सूत्रों के हवाले से लिखा है कि सूबे में लगभग एक लाख वानस्पतिक प्रजातियां पाई जाती हैं। इसमें वृक्ष, घास, लताओं के अतिरिक्त कई पौधे शामिल हैं। सूबे के आदिवासी व अन्य जातियां इन वानस्पतिक औषधियों का इस्तेमाल तो सदियों से करती आ रही हैं, लेकिन इस ज्ञान को संहिताबद्ध नहीं किए जाने से औषधियों का मानकीकरण नहीं हो सका है। मानकीकरण नहीं होने से औषधियों का वैज्ञानिक अध्ययन भी नहीं हो पाता। फिर भी कई औषधियां अपनी विशिष्टता के कारण वनस्पतिशास्रियों का ध्यान आकृष्ट करने में सफल रही हैं और इनमें शोध कार्य विवि स्तर पर चल रहा है। इनमें गुड़मार, अपामार्ग, क्रौंच आदि प्रमुख हैं। इनके अतिरिक्त सफेद मुसली, घृतकुमारी, पीपल, मेंथा, मीठी तुलसी, नींबू घास, भृंगराज, सतावर, कालमेघ के गुण स्थापित हो चुके हैं। हां, जंगलों में रहनेवाले लोगों को इसके महत्व से अवगत कराकर इनके व्यावसायिक दोहन के लिए प्रेरित करने का काम शेष है।
झारखंड में उपलब्ध कुछ प्रमुख औषधीय पौधे व उनके गुण
गुड़मार : शुगर की रोकथाम में विशेष प्रभावी, उदर रोग, उदर शूल, अतिसार में लाभदायक। इसकी जड़ का इस्तेमाल खांसी, गैस, सफेद दाग के उपचार में सहायक।
क्रौंच : वीर्यवर्द्धक, कामोद्दीपक, कृमिनाशक श्र्वासरोग, क्षय रोग, किडनी रोग दूर करने में प्रभावकारी।
अपामार्ग : ग्रामीणों द्वारा गर्भ निरोधक के रूप में इस्तेमाल, पथरी, कैंसर, पेट की बीमारियों, काला ज्वार, एलर्जी, खांसी, जहरीले जीवों के डंक को काटने में सहायक।
पुनर्नवा : गुर्दे की बीमारी दूर करने में सहायक, जलोदर, सुजाक, पीलियारोध गुण ।
मालकांगनी : उत्तेजक, स्वेदजनक, बुद्धिवर्द्धक, गैस दूर करने में सहायक। चरक के अनुसार उन्माद व उपस्मार में भी सहायक। पक्षाघात व सफेद दाग दूर करने में कारगर।
मुलैठी : वमननाशक, अम्लता कम करने में सहायक, पेट की जलन, दर्द आदि में चमत्कारी। पेप्टिक अल्सर, शूल आदि में प्रभावी।
पिप्पली : मल निकालने में उपयोगी, कुष्ठ रोग, सर्दी, खांसी, दमा, अस्थमा, पीलिया दूर करने में सहायक।
सफेद मुसली : वीर्यकंभक, बल देने वाला, स्नेहक, स्त्रियों के स्तनक्षय रोकने में प्रभावी, मधुमेह, मस्तिष्क दौर्बल्य मिटाने में बेहद उपयोगी। सौंदर्य प्रसाधन के रूप में भी इस्तेमाल।
कालमेघ : मलेरिया व वायरल हेपेटाइटिस रोकने में अत्याधिक लाभकारी, लीवर रोग में भी सहायक।
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