इस बार बाल विवाह दिवस ‘अक्षय तृतीया’ के ठीक एक दिन पहले अंतरराष्ट्रीय परिवार दिवस आया। अब ऐसे विवाह कम होते हैं, जिनमें उम्र परिवार को बाल-लीलाओं से प्रसन्न करने की होती है। जिस तरह परिवार टूटे हैं, और एकल पति-पत्नी के कुनबे अलग हुए हैं, वे भी बाल विवाह के विरुद्ध पड़ते हैं। वैसे भी, गाँवों में वर-वधू को गोदी में लेकर वैवाहिक फेरे लेने की प्रथा अब उतनी नहीं रही। इस अर्थ में कहा जा सकता है कि बाल विवाह कम हुए हैं। अभी भी अधिकांश भारतवासी, गाँवों में रहने वाले अनुपात में अधिक, संयुक्त परिवारों में रहते हैं। यही नहीं है, अनेक परिवारों में स्थिति ऐसी हो जाती है कि देखभाल के लिए कोई समर्थ महिला नहीं रहती, ऐसे परिवारों में जल्दी से जल्दी पत्नी बनाकर महिला लाना सुविधाजनक हो जाता है। जब शिकायत यह की जाती है कि बाल विवाह कम नहीं हो रहे, इसके कारणों पर विस्तार से विचार करना होगा।
एक बात बहुत नयी-नयी होकर सामने आ रही है। बालक-बालिकाएं कम आयु में अधिक समर्थ और समझदार होते जा रहे हैं। जो गुड़ियों को सजाती थीं, वे अब अपने को सजाने लगी हैं, जो लड़के नंगे-नंगे घूमते थे, वे अब ऐसे वस्त्र पहनते हैं, जिनसे उनका आकर्षण बढ़े। जो लड़कियां अपने पैरों को ढंकती नहीं थीं, वे उनके बाल उतारने लगी हैं। जिन लड़कों के बाल बेतरतीब रहते थे, वे उन्हें सजाने और थामने के तेल-जैल लगाने लगे हैं। जो बच्चे-बच्चियां शाम नहीं, तो रात होने पर घर आ ही जाते थे, वे रातें पराये घरों में बिताने लगे हैं। परस्पर प्रेम ही जल्दी और ज्यादा नहीं होने लगा, ऐसे प्रसंगों की चर्चाएं बहुत बढ़ गयी हैं। विदेशों में तो कम उम्र में माता बनने के मामले बढ़ रहे हैं। जो जल्दी माताएं बन सकती हैं, वे जल्दी विवाह क्यों नहीं कर सकतीं? भारत के ग्र्रामीण अंचलों में भी ऐसे बचपन से उठे, कानून 21 वर्ष और 18 वर्ष से कम आयु के, किशोर-किशोरियों की संख्या बढ़ रही है, जो अपनी शादी जल्दी कराना चाहते हैं। अवश्य ऐसा अधिक उनमें है, जो आर्थिक दृष्टि से संपन्न परिवारों में हैं। यह स्पष्ट है कि जिनकी शादी कम उम्र में होती है, स्वयं उनमें इसका विरोध कम हो रहा है, तभी जब ऐसा, खास करके किसी लड़की की ओर से होता है, इसका उल्लेख समाचारपत्रों में ज्यादा आ जाता है। जरा गहराई से देखा जाए, तो ऐसे मामलों में भी लड़की की ओर से विरोध तब ही होता है, जब लड़के की उम्र उससे बहुत ही ज्यादा होती है, अथवा जिसे उसका पति बनाया जा रहा होता है, उसमें कोई बड़ी खराबी दिखती है।
जब आखातीज आती है, बाल विवाह का विरोध बढ़ जाता है। इसका परिणाम अधिक नहीं रहा है। अब भी राजस्थान में आधी के करीब लड़कियों की शादियां उनकी आयु के 18 वर्ष पर पहुँचने से पहले हो रही हैं। कोई शादी किसी एक अकेले की नहीं होती, दो परिवारों तक यह सीमित भी नहीं रहती। सबसे पहले पंडित आते हैं, जो विवाह का दिन और समय तय करते हैं- वर-वधू की जन्म-पत्रिका देखकर। अगर वे साथ-साथ संबंधित अधिकारी को बता दें, तो ऐसी शादियां हो ही नहीं सकतीं। परंतु, पंडित भी अपना व्यवसाय कैसे छोड़े? इसके बाद परिवारों के सदस्य आते हैं- इनमें से एक भी समझ और हिम्मत से काम ले, तो ऐसी शादी नहीं हो सकती, जो कानून के खिलाफ हो। परंतु, कौन अपने परिवार की फजीहत कराए? फिर जातिगत संगठन होते हैं। आजकल एक गोत्र में शादियों पर दंड देने वाले बहुत उठ रहे हैं- नव-विवाहितों की जान तक वे ले रहे हैं, ये कम आयु के लड़के-लड़कियों की शादियां क्यों नहीं रोक सकते? इसमें जो आर्थिक स्थिति की जिम्मेदारी है, उसे अलग से समझना होगा। एक साथ कई बहनों की शादी करने से बहुत खर्चों से बच जाते हैं। कई परिवार बहुत बंट गए हैं, लोग दूर-दूर रहते हैं, दो-चार साल में जब सब एकत्रित होते हैं, सभी संभावित शादियां कर ली जाती हैं, चाहे उनमें कुछ की उम्र कम हो। इसे कुछ समुदायों में तो नियमित व्यवस्था बना लिया गया है, और जो अब दस दिन सबके साथ रहने के बनते हैं, उनमें सभी तरह की शादियां हो जाती हैं।
परंतु, ये सब अपवाद हैं- और कानून इसलिए बनाया गया है कि सबकी हित साधना हो। किसी भी कारण और प्रयोजन से कम आयु का विवाह उचित नहीं होता। इसे समझाने के शासकीय और सामाजिक प्रयत्न अब तक पूरे फलप्रद नहीं रहे हैं। कानून और पुलिस अपेक्षित परिणाम नहीं दे सके हैं। मामला तो उच्चतम न्यायालय तक पहुँच चुका है। वहाँ से भी 2005 में आदेश निकले थे कि जिला कलेक्टर और पुलिस अधीक्षक बाल विवाहों पर रोक लगाएं। अक्षय तृतीया आती है, तब राज्य सरकार भी फिर से इसी प्रकार के आदेश निकाल देती है। जिला कलेक्टर निचले अधिकारियों को चौकन्ना कर देते हैं। उनके किए कुछ होता नहीं, क्योंकि उन्हें तो उन्हीं में रहना है, जिनकी शिकायत रहती है। बड़ा उलझा यह ताना-बाना हो गया है।
इसका सारा दोष जो जातिगत पिछड़े हैं, जिनमें शिक्षा और संपन्नता कम है, उनको देना वास्तविकता के विरुद्ध होगा, चूंकि जो संपन्न और शिक्षित हैं, उनमें भी बाल विवाह हो रहे हैं। यह हर क्षेत्र में सही होता है कि उपदेश से अधिक प्रभाव उदाहरण का होता है- और अब जो ऊपर हैं, उनकी ओर से बाल विवाह का विरोध कम हो रहा है। समाज में सामाजिक बहिष्कार का उपयोग होने लगे, तो बाल विवाह अवश्य कम हो सकते हैं। जो दायित्व जो सरकार में हैं, उनका बनता है, वह कुंठित इस प्रकार हो गया है कि (1) उनमें स्वयं ऐसे बहुत हैं, जिनका बाल विवाह हुआ था, और (2) ऐसे अभी भी बहुत हैं, जो बाल विवाहों को अपनी उपस्थिति से सम्मानित करते हैं। यह मान भी लिया जाए कि जो सत्ता और शासन में आ गए हैं, उनके विवाह उनकी ऐसी आयु में हुए थे, जब वे स्वयं इसका विरोध नहीं कर सकते थे, परंतु अब वे ऐसों को प्रश्रय, संरक्षण और प्रोत्साहन क्यों देते हैं, जिनके यहाँ बाल विवाह होते हैं?
बाल विवाह के दोष और कुपरिणाम उन तक सीमित नहीं रहते, जो इस प्रकार के अनुचित संबंधों में बंधते हैं। कम आयु के माता-पिता की संतान कम शक्तिशाली और क्षीण संवर्धक होती है। इसके सारे कुपरिणाम पीढ़ियों चलते हैं। दूसरे, जितनी कम उम्र में विवाह, उतनी जल्दी संतान, जिससे आबादी बढ़ने की ऐसी समस्याएं बढ़ रही हैं, जो समस्त विकास-क्रम को बिगाड़े हुए, बल्कि लीले हुए है। विवाह से सारे राष्ट्र का संबंध हो जाता है। परंतु, मुख्यत: विचारणीय तो यही रहेगा कि क्या क्षति ऐसे संबंध करने वालों की होती है- और इसमें विवाद नहीं है कि कम उम्र में विवाह के होने से उसके दायित्व उठाने की क्षमता कम रहती है(संपादकीय,दैनिक नवज्योति,24 मई,2010)।
nice post
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