माँ शब्द से एक नारी की सोच को आत्मसुख एवं आत्मसंतोष मिलता है और वह इस कल्पना को सँजोए रहती है। हर नारी माँ बनना चाहती है, पर वर्तमान परिप्रेक्ष्य में बदलते हुए युग के साथ प्राथमिकताओं के आधार पर सहज एक माँ के रूप में अपनी पहचान को सीमित कर लेना आज की नारी को पसंद नहीं है। अपने उन्नत जीवन एवं आर्थिक स्वच्छंदता के प्रति लगाव के साथ ही साथ जीवन के अन्य पहलुओं के प्रति आज की नारी की सोच बदली हुई है एवं यही कारण है बढ़ती उम्र में विवाह करने एवं फिर देर से माँ बनने के लिए योजना बनाने का। अगर विवाह सही उम्र में हो भी जाता है तो फिर भी गर्भ धारण के प्रति रुचि नहीं रखती।विभिन्न आयु वर्ग की स्त्रियों में जनन क्षमता की पड़ताल करने पर इस बात की पुष्टि हुई है कि स्त्रियों मे मां बनने की सबसे अच्छी संभावना 20-30 वर्ष के बीच होती है। अतः आवश्यकता है माँ बनने में देरी करने से उत्पन्ना होने वाली समस्याओं को जानने की। समस्याएँ शारीरिक, मानसिक, सामाजिक, आर्थिक-सभी प्रकार से उत्पन्न हो जाती हैं।
मुख्य समस्याएँ
असामान्य रूप से वजन बढ़ना, शरीर में सूजन आना भी बढ़ती उम्र में गर्भधारण से जुड़ी समस्याएँ हैं। आधुनिक जीवनशैली में तनाव एवं समस्याओं के होते शारीरिक ग्रंथियों के हार्मोन के स्राव में बदलाहट आनी शुरू हो जाती है जिससे गर्भ रुकने की प्रक्रिया पर असर पर पड़ सकता है। विभिन्ना इलाज हेतु परेशानियों के साथ ही साथ आर्थिक नुकसान भी होता है।
बढ़ती उम्र के साथ शरीर के जनन अंग, गर्भाशय की मांसपेशियों का लचीलापन कम होता जाता है, सिकुड़न पैदा होने लग जाती है और फिर सामान्य प्रसव संभव नहीं होता, माँ-बच्चा दोनों को खतरा रहता है। गर्भाशय में बच्चे की वृद्धि पर भी असर पड़ता है। सामान्य प्रसव की स्थिति न होने पर मेजर ऑपरेशन (सिजेरियन) द्वारा बच्चे का जन्म होता है। गर्भाशय में सिकुड़न कम होने से प्रसव पश्चात रक्तस्राव का खतरा अधिक रहता है जिससे माँ को जोखिम रहता है।
बढ़ती उम्र के साथ शरीर का रक्तचाप भी बढ़ता है और गर्भावस्था के दौरान भी बढ़ता है पर किसी-किसी अवस्था में यह इतना बढ़ जाता है कि झटके आने लगते हैं और बेहोशी भी आ सकती है। ऐसे समय में कोशिश रहती है कि शिशु को माँ के गर्भ से निकाल लिया जाए। ऐसी स्थिति में शिशु का जीवित मिलना भी मुश्किल होता है एवं माँ की जान को भी खतरा रहता है।
शरीर में खून की कमी होना जटिल समस्या है। शरीर में औसतन ५.५ से ६ लीटर तक रक्त रहता है। इसमें मौजूद हीमोग्लोबिन के कारण रक्त का रंग लाल होता है। हमारे रक्त में हीमोग्लोबिन की मात्रा ५० प्रतिशत होना चाहिए। जब यह ५० प्रतिशत से कम हो जाता है, ऐसी स्थिति को रक्त अल्पता (एनीमिया) कहते हैं। ऐसे में शरीर में संक्रमण जल्दी प्रविष्ट कर शरीर को दुर्बल बना देते हैं एवं कमजोर, कम समय में अस्वस्थ शिशु पैदा होने की आशंका बढ़ जाती है। बढ़ती उम्र के साथ गर्भावस्था से शिशु को अन्य खतरों के साथ ही साथ जन्मजात विकलांगता की समस्याएँ भी बढ़ जाती हैं।
माता-पिता की आयु की तुलना के अनुरूप बच्चे की उम्र कम होने से बच्चों का भविष्य बनाने में आने वाली समस्याओं एवं असुरक्षित रहना, परिवार में आर्थिक परेशानियाँ, मानसिक एवं सामाजिक कारण बन जाते हैं। बार-बार गर्भपात होना, प्रसव में बाधाएँ आना (अवरुद्ध प्रसव) विभिन्ना प्रकार का संक्रमण इत्यादि से मातृ मृत्यु अधिक होती है। पूरे विश्व की मातृ मृत्यु का ३३ प्रतिशत भाग भारत में है। सही आयु में विवाह एवं सही आयु में शिशु को जन्म देने से कई समस्याओं से बचा जा सकता है।
(जबलपुर की स्त्रीरोग विशेषज्ञ जी. के. मल्होत्रा का यह आलेख नई दुनिया के सेहत परिशिष्ट,अप्रैल प्रथम,2010 में प्रकाशित हुआ है)
nice info...thanks.
जवाब देंहटाएं