बिहार सरकार स्वास्थ्य सेवाओं में निरंतर सुधार का दावा करती रही है। इसमें सचाई भी है, क्योंकि पिछली सरकार के समय जहां सरकारी अस्पतालों, स्वास्थ्य केंद्रों और मेडिकल कालेजों तक में इलाज कराना कठिन हो गया था, वहां अब स्थिति में काफी सुधार हुआ है। 2005 तक जहां हर स्वास्थ्य केंद्र में औसतन सिर्फ 39 रोगी हर माह आते थे, वहीं चार साल बाद अगस्त 2009 तक यह संख्या बढ़ कर 4000 रोगी प्रति स्वास्थ्य केंद्र हो गई। वार्षिक संस्थागत प्रसव की संख्या में तो चमत्कारिक सुधार हुआ। 2005-06 में जहां राज्य भर में केवल 45 हजार शिशुओं ने सरकारी अस्पताल या स्वास्थ्य केंद्र में सुरक्षित ढंग से जन्म लिया था, वहीं ऐसे खुशनसीब बच्चों की संख्या वर्ष 2009-10 में जुलाई 2009 तक ही 3 लाख 12 हजार 480 हो गई थी। यह और बात है कि सरकार ने संस्थागत प्रसव पर जोर देते समय परिवार नियोजन व जनसंख्या स्थिरीकरण के लिए प्रयास करने का कोई ध्यान नहीं रखा। सरकार यदि विकास पर जोर दे रही है, तो उसे आबादी की बाढ़ रोकने के लिए भी पर्याप्त सक्रियता दिखानी चाहिए। यदि ऐसा न हुआ तो विकास की सारी उपलब्धियां जनसंख्या के सागर में विलीन हो जाएंगी। संस्थागत प्रसव एक ऐसा अवसर था, जिसका उपयोग छोटे परिवार को बढ़ावा देने में किया जा सकता था। इस नीतिगत शिथिलता के बावजूद स्वास्थ्य विभाग ने अच्छा काम किया है। कई सेवाएं पहली बार शुरू हुईं। डाक्टरों की कमी अब भी महसूस की जा रही है। बिहार राज्य स्वास्थ्य सेवा संघ का कहना है कि यह कमी दूर करने के लिए सरकार को नियम बदलने होंगे। संघ ने यहां डाक्टरों के सरकारी नौकरी की ओर आकर्षित नहीं होने के एक दर्जन से अधिक कारण गिनाये हैं। यह मुद्दा स्वास्थ्य विभाग की परामर्शदातृ समिति की प्रथम बैठक में उठाया गया। चिकित्सा सेवा बेहतर बनाने की अड़चनों का हल निकालने के लिए दो साल पहले परामर्शदातृ समिति का गठन किया गया था, लेकिन दुर्भाग्यवश, इसकी पहली बैठक महज तीन दिन पूर्व आयोजित हो सकी। संघ ने कहा कि राज्य चिकित्सा सेवा में प्रवेश के लिए सरकार ने दो साल की ग्रामीण सेवा को अनिवार्य बना दिया है। इस शर्त में संशोधन कर अन्य राज्यों की तरह एमबीबीएस के बाद एक साल के इंटर्नशिप को जरूरी बनाया जा सकता है। सरकार और संघ को ऐसा रास्ता निकालना चाहिए, जिससे गरीब और ग्रामीण जनता का हित हो। दोनों को दो कदम आगे बढ़ने का जज्बा दिखाना चाहिए(संपादकीय,दैनिक जागरण,पटना,29.5.2010)।
पर मंजिल अभी बहुत दूर है..सबसे पहले सरकारी अस्पताल के डॉक्टरों की मानसिकता में भी बदलाव लाना होगा..कार्यशैली में परिवर्तन लाना होगा. जो चंद दिनों या सालों में नहीं आता..हां कुछ नियमों के सख्ती से पालन के बाद स्थिती में सुधार आ सकता है। हाल ही में व्यक्तिगत अनुभव हुआ। पीजीआई के डॉक्टनर इमरजेंसी जैसी स्थिती न होने पर भी घबड़ाए हुए थे औऱ मरीज को तुरंत ही दिल्ली रेफर कर दिया.यहां तक की एक्सरे या सीटी स्कैन तक करने की जहमत नहीं उठाई....जबकि दिल की बीमारी में ईलाज सारे देश में एक जैसा ही है..खाली मेजर सर्जरी को छोड़कर....इतने डॉक्टरों के बोर्ड पटना में देखे हैं फिर समझ में नहीं आता कि हर ईलाज के लिए वहां व्यवस्था क्यों नहीं हो पा रही। इन सबके लिए बदलाव मानसिक स्तर पर लाने की बहुत जरुरत है...
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