शुक्रवार, 12 मार्च 2010

आज विश्व ग्लूकोमा दिवस है

ग्लूकोमा,जिसे काला मोतिया के नाम से भी जाना जाता है,आंखों को स्थायी रूप से अंधा बना देता है। कुछ अन्य रोगों की ही तरह,ग्लूकोमा का भी जब पता चलता है,तब तक बहुत देर हो चुकी होती है। इससे बचने का एक ही रास्ता है और वह यह कि इसकी पहचान जितनी जल्दी संभव हो,कर ली जाए। खासकर 40 से ज्यादा उम्र के लोगों मे इसका ख़तरा ज्यादा रहता है।
आँखों को सही आकार और पोषण देने वाला एक तरल पदार्थ होता है, जिसे एक्वेस ह्यूमर कहते हैं। लेंस के चारों ओर स्थित सीलियरी टिश्यू इस तरल पदार्थ को लगातार बनाते रहते हैं। और यह द्रव पुतलियों के द्वारा आँखों के भीतरी हिस्से में जाता है। इस तरह से आँखों में एक्वेस ह्यूमर का बनना और बहना लगातार होता रहता है, जिसके संतुलन को इंट्रोक्युलर प्रेशर कहते हैं। स्वस्थ आँखों के लिए यह जरूरी है। कभी-कभी आँखों की बहाव नलिकाओं का मार्ग रुक जाता है, लेकिन सीलियरी ऊतक इसे लगातार बनाते ही जाते हैं जिससे ऑप्टिक नर्व के ऊपर पानी का दबाव बढ जाता है जो दृष्टि-तंत्र को इतना प्रभावित कर सकता है कि मनुष्य स्थायी अंधेपन या ग्लूकोमा का शिकार हो जाए। ग्लूकोमा के दो मुख्य प्रकार हैं। प्राइमरी ओपन एंगल या क्रोनिक ग्लूकोमा मे देखने की क्षमता लगातार घटती जाती है,हालांकि रोगी को कोई दर्द नहीं होता।क्लोज्ड एंगल या एक्यूट ग्लूकोमा होने पर,आंखों से द्रव का निकलना एकदम से रुक जाता है जिससे दबाव इतना बढ जाता है कि लक्षण तुरंत दिखने लगते हैं। इस प्रकार के ग्लूकोमा के लक्षणों की पहचान आसानी से की जा सकती है। कंजीनियल ग्लूकोमा मे बच्चे को जन्म से ग्लूकोमा होता है। एक अन्य प्रकार सेकेण्डरी ग्लूकोमा का है।
जो व्यक्ति ग्लूकोमा की चपेट मे आने वाला होता है,उसे चश्मे का पावर बहुत जल्दी-जल्दी बदलना पड़ता है। रोशनी लगातार कम होती जाती है और अंधेरे कमरे मे देखना बहुत मुश्किल प्रतीत होने लगता है। धीरे-धीरे सिरदर्द की समस्या भी पैदा होने लगती है और रोशनी के ईर्द-गिर्द सतरंगी रेखा-सी दिखने लगती है।
इसी विषय पर नई दुनिया के सेहत परिशिष्ट के मार्च प्रथम अंक मे छपा संपादकीय भी देखिएः कालामोतिया (ग्लूकोमा) एक ऐसी बीमारी है जो नेत्र ज्योति को हमेशा के लिए हर लेती है। इस बीमारी में होने वाली क्षति की पूर्ति किसी औषधि या सर्जरी से नहीं हो सकती। इस सच का दुःखद पहलू यह है कि हमारे देश में अधिकांश लोग साधारण नेत्र रोगों के परीक्षण तक नहीं करा पाते हैं। अभिशाप झेल रहे दूसरे कई लोगों की नजर केवल चश्मा लगाने से ही ठीक हो सकती है लेकिन यह सुविधा भी उन्हें नसीब नहीं है। केवल चश्मे के अभाव में आबादी का एक बड़ा हिस्सा अंधत्व भुगत रहा है। राष्ट्रीय अंधत्व निवारण कार्यक्रम के तहत ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वालों को किसी समाज सेवी संस्था की मदद से मोतियाबिंद की सर्जरी का लाभ तो मिल जाता है लेकिन जिनकी चश्मा तक खरीदने की क्षमता नहीं है उन मरीजों की मदद कैसे की जा सकेगी? आज भी समाज में विधिवत शिक्षित नेत्र रोग विशेषज्ञों की संख्या बहुत कम है। प्राथमिक स्तर पर नेत्र रोगों की जो भी जाँचें हो सकती हैं उसमें ऑप्टोमेट्रिस्ट की महत्वपूर्ण भूमिका है। केंद्रीय बजट में स्वास्थ्य उपकरणों के आयात शुल्क में कटौती की गई है जिसका स्वास्थ्य सेवाउद्योग से जुड़े लोगों ने स्वागत किया है। इसी तरह ऑर्थोपेडिक इंपलांट्स के आयात कर में भी छूट दी गई है। शुल्क में छूट मिलने के बाद उच्च स्तरीय मशीनें और उपकरण तो आयात होंगे लेकिन इलाज सस्ता होगा इसमें शक है। सरकार ने स्वास्थ्य क्षेत्र के बजट आवंटन में इजाफा तो किया है लेकिन तीन बड़ी जानलेवा बीमारियों मधुमेह, हृदयरोग और कैंसर के लिए अलग से कोई प्रावधान नहीं किए गए हैं। देश को आगामी बीस सालों तक हर साल अस्पतालों में एक लाख बिस्तरों का इजाफा करना होगा। हेल्थ इंफ्रास्ट्रक्चर के क्षेत्र में विदेशी पूँजी निवेश के लिए दरवाजे खोलने से निजी क्षेत्र में नए अस्पताल तो आएँगे लेकिन प्रश्न अब भी खड़ा है कि आर्थिक रूप से कमजोर मरीजों तक इलाज कैसे पहुँचेगा।

2 टिप्‍पणियां:

  1. अगर आप चाहते हैं कि आपको ऐसे ही दिखलाई देता रहे तो इसे ध्‍यान से पढि़एगा और इस पर अमल कीजिएगा। सतर्कता में ही बचाव है।
    हिन्‍दी के मार्ग में वर्ड वेरीफिकेशन रूपी इस अंग्रेजी को आने से रोकिए। डेशबोर्ड में सैटिंग में कमेंट में जाकर वर्ड वेरीफिकेशन को डिसेबल कीजिएगा।

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  2. शुक्रिया। आवश्यक सुधार कर दिया गया है।

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