
एमडीआर टीबी के साथ ऐसे कई सवाल जुड़े हैं जो भारत के लिए चिंता का विषय होने चाहिए। पाठकों को बताते चलें कि साधारण टीबी का इलाज़ तो छह महीने का होता है मगर एमडीआर-टीबी का इलाज़ दो साल या इससे भी ज्यादा तक चलता है और इसकी दवा मे ज़हरीले पदार्थ की मात्रा भी होती है। इलाज़ लंबा होने के कारण एमडीआर-टीबी आर्थिक रूप से भी नुक़सानदायक साबित होती है क्योंकि सामान्य टीबी की तुलना में एमडीआर-टीबी की दवाएं 50 से 200 गुना तक महंगी होती हैं।
जिस प्रकार की टीबी पर सामान्य दवा का असर ख़त्म हो गया है,उनमें सबसे उल्लेखनीय है-एक्सडीआर टीबी जिसके अधिकतर रोगियों की मौत हो जाती है। इस टीबी का पता सबसे पहले 2006 में चला था और दो वर्ष के भीतर यानी 2008 तक,58 देशों में इसके कम से कम एक मामला सामने आ चुका था।
विश्व स्वास्थ्य संगठन का सुझाव है कि टीबी की जांच सुविधाएं तुरंत बढाई जानी चाहिए और एमडीआर टीबी की जांच दो दिन में करने की सुविधा सब जगर होनी चाहिए। गौरतलब है कि पारंपरिक तरीकों से इस टीबी का पता लगने में ही चार महीने तक गुज़र जाते हैं।
पाठकों को बताते चलें कि असाधारण टीबी के मामले प्रायः तभी होते हैं जब पहले हुई टीबी का ठीक से इलाज़ न कराया गया हो या रोगी ने घटिया दवा इस्तेमाल की हो। एक्सडीआर टीबी की जांच की सुविधा अभी चंद देशों में ही है।
(टाइम्स ऑफ इंडिया,दिल्ली,21.3.2010 में कौंतेय सिन्हा की रिपोर्ट पर आधारित)
(नोटःसंगीतापुरी जी ने ब्लॉग 4 वार्ता के 22 मार्च के अंक में इस पोस्ट की चर्चा की है जिसे देखने के लिए क्लिक करें)
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