रविवार, 21 फ़रवरी 2010

क्या करें जब भूख कम या ज्यादा लगे....

हम कमाते क्यों हैं, खाने के लिए... एक ऐड की यह पंच-लाइन खाने का जिक्र आते ही दिमाग में घूम जाती है। वाकई,इंसान इतनी भागदौड़ पेट के लिए ही करता है। लेकिन अगर खाना ही दिक्कत बन जाए! यानी कोई खाने से मुंह मोड़ ले या कोई जरूरत से कुछ ज्यादा ही खाने लगे तो समझ लीजिए कि मामला ईटिंग डिसऑर्डर का है। खाने से जुड़े इन डिसऑर्डर की वजहें और इलाज सायकॉलजी में छुपे हैं। ईटिंग डिसऑर्डर की वजहें, नुकसान और इलाज के बारे में बता रही हैं प्रियंका सिंह:
केस-1 सुदीप्त की उम्र दो साल है। उसकी मां उसे जो भी खाना खिलाती हैं,वह उलट देता है। सुदीप्त लगातार कमजोर होता जा रहा है और जल्दी-जल्दी बीमार भी पड़ने लगा है। परिवारवाले परेशान हैं लेकिन सुदीप्त की बीमारी समझ नहीं पा रहे।
केस-2 स्नेहा 17 साल की हैं। इसी साल कॉलेज जॉइन किया है। छह महीने पहले तक तंदरुस्त और खूबसूरत दिखनेवाली स्नेहा अचानक काफी कमजोर हो गई हैं। वजन काफी कम हो गया है। आंखों के नीचे काले घेरे पड़ गए हैं। अक्सर चिड़चिड़ी रहती हैं।
केस-3 रश्मि 35 साल की हैं। बीते साल मंदी के चलते कंपनी ने उन्हें नौकरी से निकाल दिया। अब वह दिन भर घर में रहती हैं। कुछ ही महीनों में उनका वजन करीब 10किलो तक बढ़ गया है। शरीर काफी बेडौल नजर आने लगा है। इन तीनों ही मामलों में मरीज को कौन-सी बीमारी है, यह पहली नजर में पहचान पाना आसान नहीं है। असल में, ये तीनों मामले ईटिंग डिसऑर्डर (ईडी) यानी खाने संबंधी विकारों के हैं। इसमें पीड़ित शख्स बहुत कम या बहुत ज्यादा खाना खाने लगता है, जो उसकी इमोशनल और फिजिकल हेल्थ, दोनों के लिए काफी नुकसानदेह साबित होता है।
क्या हैं ईटिंग डिसऑर्डर (ईडी) खाने की असामान्य आदतें, जिनमें कोई भी शख्स नॉर्मल डाइट से बहुत कम या ज्यादा खाने लगता है, ईटिंग डिसऑर्डर (ईडी) कहलाती हैं। इससे पीड़ित शख्स अपने वजन और शरीर की शेप को लेकर कुछ ज्यादा ही चिंतित रहने लगता है। ईडी सबसे ज्यादा टीन-एज लड़कियों और महिलाओं में पाए जाते हैं लेकिन अक्सर छोटे बच्चों,मानसिक रूप से कम विकसित और कई बार सामान्य महिला व पुरुषों में भी पाए जाते हैं। आमतौर पर ईडी की शुरुआत नॉर्मल डाइट से थोड़ा ज्यादा या कम खाने से होती है, लेकिन धीरे-धीरे अंतर काफी बढ़ जाता है। पुरुषों में ये डिसऑर्डर कम देखने को मिलते हैं।
कितनी तरह के होते हैं ईडी आमतौर पर ईटिंग डिसऑर्डर तीन तरह के होते हैं :एनोरेक्सिया (खुद को भूखे रखना या बेहद कम खाना), बुलिमिया (खाना उलटना) और बिंज ईटिंग (लगातार छुट-पुट खाते रहना)।
एनोरेक्सिया (बेहद कम खाना) नॉर्मल वजन से 15 फीसदी वजन कम होने के बावजूद भी कोई शख्स वजन कम करने की कोशिश में लगा रहे तो वह एनोरेक्सिया से पीड़ित हो सकता है। यह नर्वस सिस्टम से जुड़ा डिसऑर्डर है। इसमें मरीज खुद को भूखा रखता है या बहुत कम कैलरी वाला खाना खाता है। उसमें दुबलेपन के लिए सनक होती है और वजन बढ़ने का बहुत ज्यादा डर मन में समाया होता है। बेहद कमजोर होने पर भी मरीज को अपना वजन ज्यादा लगता है। ऐसे लोग बहुत ज्यादा एक्सरसाइज करके, खुद को भूखा रखके, खाना उलटकर या वजन कम करने की दवा खाकर वजन कम करते हैं। कुछ स्टडी बताती हैं कि किसी भी दूसरे डिसऑर्डर के मुकाबले एनोरेक्सिया के मरीजों में मौत की आशंका 10 फीसदी ज्यादा होती है।
कैसे पहचानें आमतौर पर ईडी का मरीज खुद के डिसऑर्डर से पीड़ित होने से अनजान रहता है। अक्सर उसे दूसरे के मजाक का सामना करना पड़ता है। परिवार और करीबी लोग ही गौर करके ईडी की पहचान कर सकते हैं। नीचे दिए गए लक्षणों के आधार पर पहचान की जा सकती है : वजन एकदम कम होना, बहुत कमजोर हो जाना, स्किन में पीलापन और सूखापन आना, नाखूनों का कमजोर और पीला पड़ना, सिरदर्द और चक्कर आते रहना, तेजी से मूड स्विंग्स, डिप्रेशन और तनाव, धीरज काफी कम होना,आंखों के नीचे घेरे आना, नींद न आना, खून की कमी, लगातार कब्ज रहना, लो ब्लडप्रेशर, नब्ज का मंदा पड़ना, बहुत ज्यादा ठंड लगना, स्कूल-कॉलेज में कम परफॉर्म, जरूरत से ज्यादा एक्सरसाइज करना, कैलरी और फैट को लेकर सनक, खुद को भूखों रखना, जबरन उपवास करना, दूसरों के साथ खाने से बचना, डाइट पिल्स खाना, खाने के तुरंत बाद बाथरूम जाकर उलटी करना, खाने को अनजान जगहों जैसे सूटकेस, बेड के नीचे या अलमारी आदि में छिपाना, खाने की डायरी मेंटेन कर उसमें फूड आइटम, कैलरी, एक्सरसाइज से जुड़ी तमाम डिटेल्स लिखना, इंटरनेट पर वजन कम करने के तरीके तलाशने रहना या इससे संबंधित किताब पढ़ना
इलाज किसी ईडी की वजह न्यूट्रिशन नहीं, सायकॉलजी से जुड़ी होती हैं, इसलिए इलाज भी सायकायट्रिस्ट और काउंसल की मदद से किया जाता है। इसमें फैमिली सपोर्ट, काउंसलिंग और मेडिकेशन (दवाएं) तीन तरह के ट्रीटमेंट किया जाता है। सबसे पहले मरीज को किसी भी बहाने से सायकायट्रिस्ट या फैमिली काउंसलर के पास ले जाएं। काउंसलिंग के जरिए ज्यादा वजन होने का वहम मरीज के मन से निकाला जाता है। इसके बाद बेहतर डाइट चार्ट के जरिए उसका वजन सामान्य करने की कोशिश की जाती है। अगर मरीज को डिप्रेशन, एंग्जाइटी या दूसरी कोई दिक्कत है साथ में एंटी-डिप्रेसेंट (अवसाद से लड़ने की दवा) या मूड स्टैबलाइजर भी दी जाती हैं। मरीज किसी भी कीमत पर खाना न चाहे तो न्यूट्रिशनिस्ट की सलाह जरूरी है, ताकि वह डाइट में बदलाव कर ज्यादा न्यूट्रिशन वाला खाना बताए। इलाज में वक्त लगता है, इसलिए धीरज रखें।
बुलिमिया (खाना उलटना) मरीज अक्सर बार-बार और काफी ज्यादा खाता है लेकिन खाने के बाद उलटी कर देता है। मरीज का वजन सामान्य से काफी ज्यादा होता है। असल में इसमें पीड़ित खाने को सायकोलॉजिकल सपोर्ट मानता है। वह अपनी इच्छाशक्ति पर कंट्रोल नहीं रख पाता, इसलिए खाता जाता है लेकिन गिल्ट होने पर उलट देता है। एनोरेक्सिया के मरीजों की तरह वजन बढ़ने का डर मन में समाया होता है और अक्सर अपने वजन और बॉडी शेप को लेकर शिकायत होती है। शुरुआत एक-दो बार खाना उलटने से होती है लेकिन धीरे-धीरे आदत बन जाती है। आमतौर पर नेगेटिव सोच वाले और कम आत्मविश्वास वाले लोगों में यह समस्या ज्यादा होती है। एक तरह से ये खुद को पनिश करते हैं। यह समस्या रेग्युलर नहीं है।
लक्षण - गले का सूखा रहना और बार-बार खराब होना - मसूड़ों के नीचे और गले में सूजन होना - दांतों की ऊपरी परत का पीला पड़ना या कट-फट जाना - लगातार एसिडिटी बनना - डीहाइड्रेशन - वजन काफी बढ़ जाना - लूज मोशन के लिए दवा खाना - जोरदार मूड स्विंग्स एनोरेक्सिया की तरह की काउंसलिंग और मेडिकेशन, दोनों को मिलाकर इलाज किया जाता है। आमतौर पर क्लीनिकल काउंसलिंग और न्यूट्रिशन एजुकेशन से यह समस्या हल हो जाती है। बुलिमिया के मरीजों में सुधार की उम्मीद एनोरेक्सिया के मुकाबले ज्यादा होती है। साथ में अगर कब्ज,बाल झड़ने या दांतों में दिक्कत हो जाती है तो उसी के मुताबिक दवा दी जाती है। स्थिति खराब होने पर कई बार भूख शांत करने की दवा भी मरीज को दी जाती है। मरीज को मेडिटेशन करना चाहिए।
बिंज ईटिंग (लगातार छुटपुट खाते रहना) अगर कोई शख्स दिन भर या किसी खास दिन लगातार छुटपुट चीजें खाता रहता है तो उसे बिंज ईटिंग की समस्या हो सकती है। बुलिमिया और बिंज इटिंग डिसऑर्डर (बेड)दोनों ही तरह के मरीज बिंज ईटिंग से पीड़ित पाए जाते हैं। अक्सर बिंज ईटिंग का मरीज खुद की इस आदत के बारे में गिल्ट महसूस करता है और परेशान होता रहता है। उस परेशानी में वह और बिंज ईटिंग करता है। ऐसे में अक्सर मरीज मोटा होता जाता है। कई लोग वीकएंड बिंज ईटिंग करते हैं। मसलन वीकएंड पर खाने के अलावा, केक, आइसक्रीम, कुकीज, समोसा, चॉकलेट जैसी तमाम चीजें खा लेते हैं। वैसे, यह डिसऑर्डर बहुत कॉमन नहीं है। - नियमित तौर पर किसी खास दिन दोगुना-तिदुना खाना - खाने पर कंट्रोल नहीं होने का डर - दूसरों के साथ खाने से डरना - सोशल या प्रफेशनल वर्ल्ड में नाकामी के लिए वजन को दोषी ठहराना - हाई बीपी होना या कॉलेस्ट्रॉल बढ़ना - पैरों और जोड़ों में दर्द होना - सेक्स की इच्छा न होना - बहुत ज्यादा पसीना आना और सांस उखड़ना - सिर्फ खाने को ही अपना दोस्त मानना।
दूसरे ईडी ये कुछ-कुछ मेन ईडी से ही मिलते-जुलते होते हैं लेकिन कहीं-न-कहीं उनसे अलग भी होते हैं।
इमोशनल ईटिंग : इससे पीड़ित लोगों को लगता है कि खाना ही सबसे अच्छा दोस्त है। वे कुछ भी खाते रहते हैं और खाने पर फोकस करने से दूसरी परेशानियों से मन हट जाता है। ज्यादा खाने से उन्हें खुद के प्रति अच्छा महसूस होता है। खाना ही उनके एंटरटेनमेंट और संतुष्टि का सबसे बड़ा जरिया बन जाता है। अक्सर ब्रेकअप या किसी और तनाव के दौरान लोग इमोशनल ईटिंग करते हैं।
कंपलसिव ओवरईटिंग : यह एक तरह का फूड एडिकशन (खाने की लत) है। किसी खास खाने को देखकर कंट्रोल नहीं कर पाते। इसके पीड़ित अक्सर किसी इमोशन को छिपाने के लिए ज्यादा खाना खाते हैं। पीड़ित को अपनी समस्या के बारे में पता होता है लेकिन कंट्रोल नहीं कर पाता। अक्सर कैफीन, निकोटिन या अल्कोहल वाली चीजों के लिए एडिकशन होता है, जैसे कि चाय, कॉफी, चॉकलेट आदि। अगर कंट्रोल न किया जाए तो हार्ट अटैक, बीपी, कॉलेस्ट्रॉल, किडनी संबंधी बीमारियां सामने आ सकती हैं।
इन्हें भी जानें इन्हें सीधे-सीधे डिसऑर्डर नहीं माना जाता लेकिन ये समस्याएं भी खाने से ही जुड़ी होती हैं।
यूर्मिनेशन सिंड्रोम: इसमें भी पीड़ित को खाना उलटने की आदत होती है। उलटी करने में दर्द नहीं होता और मरीज अक्सर दोबारा ज्यादा बारीक,पिसा हुआ या खाना खाता है। ज्यादातर बच्चों और मानसिक रूप से अल्पविकसित लोगों में पाया जाता है। लेकिन कुछ सामान्य लोगों में भी यह सिंड्रोम पाया जाता है।
मिट्टी आदि खाने की आदत: कुछ लोग खड़िया, मिट्टी, चॉक, पेपर, राख जैसी गैर-पौष्टिक चीजें या कच्चा चावल, कच्चा आलू, स्टार्च जैसी चीजें खाते हैं। प्रेग्नेंट महिलाओं, छोटे बच्चों और मानसिक रूप से कमजोर लोगों में इस तरह की आदतें सामने आती हैं। कई लोग कैल्शियम की कमी होने पर चॉक खाते हैं। मिनोपॉज या प्रेग्नेंसी के दौरान महिलाओं में इस तरह की दिक्कतें ज्यादा पाई जाती हैं।
रात में खाने की आदत (नाइट ईटिंग सिंड्रोम) : कुछ लोग देर रात में पूरे होशोहवाश में काफी सारा खाना खाते हैं तो कुछ को नींद में भी खाने की आदत होती है। नींद में मरीज फ्रिज आदि तक चलकर जाता है और उसमें से निकालकर खाना खाता है। उसे अपनी इस आदत के बारे में जानकारी नहीं होती।
ऑर्थोरेक्सिया : हेल्दी खाने पर हद से ज्यादा फोकस करने की आदत ज्यादातर लड़कियों में पाई जाती है। कई मामलों में मृत्यु की भी आशंका होती है।
ईडी की वजहें ये डिसऑर्डर बेशक खाने से जुड़े हों लेकिन इनकी सबसे बड़ी वजह मनोवैज्ञानिक होती है। डिप्रेशन, एंग्जाइटी, खुद की बनाई इमेज की वजह से ईडी से पीड़ित हो जाता है।
सायकॉलजिकल : किसी तरह की परेशानी में घिरने पर लोग ईडी का शिकार हो जाते हैं। इमोशनल ब्रेकअप के दौरान भी टीन-एजर्स कई बार इससे पीड़ित हो जाते हैं। इसी तरह खुद की तैयार की गई इमेज में फिट होने के लिए भी लड़कियां खाना छोड़ देती हैं।
एनवायरमेंटल : जब कोई शख्स अकेला होता है, खासकर टीन-एज में तो उसके मन में नेगेटिव विचार आ जाते हैं। तब अक्सर वह खाने में सपोर्ट तलाशता है और इमोशनल ईटिंग में भी शामिल हो सकता है। किसी एक्टर या एक्ट्रेस के जैसी फिगर पाने की कोशिश में भी लोग ईडी से पीड़ित हो जाते हैं।
बायलॉजिकल : शरीर में कुछ एंजाइम होते हैं, जिनमें असंतुलन पैदा होने से मन में डिप्रेशन आ जाता है। कई बार बहुत ज्यादा एक्सरसाइज करने से भी एंजाइटी लेवल बढ़ सकता है और शख्स कंपलसिव ईटिंग की ओर बढ़ सकता है।
पैरंट्स का असर : अगर मां डाइटिंग करती है तो उसकी देखा-देखी बेटी भी इस तरह की गतिविधियों में शामिल हो सकती है। इसलिए घर में ऐसा माहौल बनाए रखें कि बच्चों पर गलत असर न पड़े। जिन बच्चों के पैरंट्स खाने को लेकर ज्यादा कंट्रोल करते हैं कि ये खाएं, ये न खाएं उनमें भी इस तरह की समस्या होने के चांस ज्यादा होते हैं।
दोस्तों का असर : कई बार दोस्तों की देखादेखी और उनके बार-बार खुद पर कॉमेंट करने पर भी टीन-एजर ईटिंग डिसऑर्डर की ओर बढ़ जाते हैं। ईडी से होनेवाले नुकसान - काफी कमजोरी महसूस करना - सोशल और अकैडमिक लाइफ पर असर - न्यूट्रिशन की कमी होने से हीमोग्लोबिन पर असर - डिप्रेशन - बालों का झड़ना - आंखों का कमजोर होना - स्किन सूख जाना - दांतों की बीमारियां - कार्यक्षमता का घटना - याददाश्त कमजोर होना - इम्यूनिटी कम होने से बार-बार बीमार पड़ना - बार-बार इन्फेक्शन होना - दिल और किडनी की बीमारी - पीरियड्स का बंद होना या अनियमित होना - इनफर्टिलिटी की भी समस्या हो सकती है
ईडी और डायबीटीज़ डायबीटीज़ के मरीज अगर ईडी से भी पीड़ित हो तो स्थिति काफी गंभीर हो सकती है। इससे शुगर लेवल लगातार कम या ज्यादा होता है, कॉलेस्ट्रॉल बढ़ जाता है और ब्लडप्रेशर में भी उतार-चढ़ाव होता है। शुगर के मरीजों में बाकी ईडी के मुकाबले बुलिमिया ज्यादा पाया जाता है। एक्सपर्ट्स पैनल डॉ. अनूप मिश्रा, हेड ऑफ मेटाबॉलिक डिपार्टमेंट, फोर्टिस हॉस्पिटल डॉ. शिखा शर्मा, न्यूट्री-हेल्थ एक्सपर्ट डॉ. रेखा शर्मा, चीफ डायटीशियन, मेडंटा द मेडिसिटी डॉ. तरु अग्रवाल, रिसर्च एनालिस्ट, न्यूट्री-हेल्थ सिस्टम डॉ. समीर पारिख, डिपार्टमेंट हेड, मेंटल हेल्थ, मैक्स हेल्थकेयर
(नभाटा,दिल्ली,21.2.2010)

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