यूएस से भारत लौटे बायोइंफार्मेटिक्स इंजीनियर और प्रोफेसर कानव काहोल किसी स्वास्थ्यगत जांच में लगते वक्त को लेकर इतने परेशान हुए कि उन्होंने "स्वास्थ्य स्लेट" या हेल्थ टैबलेट ही बना दी। इससे कई तरह की जांच बड़े ही आसान तरीके से हो सकती है जैसे ब्लडप्रेशर और शुगर जांच। यह टैबलेट ईसीजी और शरीर का तापमान जांचने के साथ पानी की शुद्धता की जांच भी करता है, जो कि देश में बीमारियों के कुछ मुख्य कारणों में से है। इस यंत्र द्वारा जांच लगभग ९९ प्रतिशत सही होती है। इसे ऑपरेट करना बहुत ही आसान है। ग्रामीण स्वास्थ्यकर्ता इसे सरलता से इस्तेमाल कर सकते हैं। आशा स्वास्थ्यकर्ता और एएनएम अभी ग्रामीणों को प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र ले जाते हैं, लेकिन इस स्लेट की मदद से वे ऑन-द- स्पॉट मदद कर सकेंगे और इसमें वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग की भी सुविधा है। ऐसी उम्मीद की जा सकती है कि इस तरह के उपकरण के जरिए ऐसे केसेज में बेहतर मेडिकल डिलीवरी दी जा सकेगी, खासकर ग्रामीण इलाकों में। बीपी और शुगर जैसी छोटी लेकिन अहम जांचों के लिए मरीज को इंतजार नहीं करना पड़ेगा।
लगभग ४० मिलियन भारतीय आबादी, जो थायरॉ़इड की मरीज है, में आधे से ज्यादा प्रतिशत महिलाओं का है। चिकित्सकों के अनुसार इस बीमारी में महिलाओं और पुरुषों का प्रतिशत क्रमशः ७ और १ है। इम्यून सिस्टम के गलत दिशा में काम करने के कारण शरीर में थॉयरॉइड हॉर्मोन की घट-बढ़ से यह बीमारी होती है, जो जल्द ही मरीज के पूरे रुटीन को असंतुलित कर देती है। इसके पीछे आनुवंशिक, इनवायरमेंटल और डायटरी फैक्टर्स भी हो सकते हैं। यह भी देखा गया है कि हॉर्मोनल असंतुलन से ग्रस्त महिलाएं इस रोग के प्रति ज्यादा संवेदनशील होती हैं। आमतौर पर यह बीमारी २० से ४० आयुवर्ग के लोगों में दिखती है लेकिन यह किसी भी उम्र के लोगों को अपनी गिरफ्त में ले सकती है।
थायरॉइड तितली के आकार की एक ग्रंथि है, जो गले में सामने की ओर होती है। यह ग्रंथि थॉयरॉइड हॉर्मोन पैदा करती है, जिसका काम शरीर के मेटाबॉलिज्म को रेगुलेट करना और विकास और दूसरी प्रक्रियाओं को तय करना है। इस हॉर्मोन का कम या ज्यादा मात्रा में उत्पादन कई समस्याएं पैदा कर देता है जैसे वजन कम होना या बढ़ना, हार्टरेट बढ़ना, घबराहट, गले में सामने की ओर एनलार्जमेंट, अनियमित पीरियड, इनफर्टिलिटी आदि। अगर थॉयरॉइड अतिसक्रिय है और ज्यादा हॉर्मोन प्रोड्यूस कर रहा है तो व्यक्ति को हायपर-थॉयरॉइडिज्म हो जाता है। इसके विपरीत ग्लैंड के कम सक्रिय होने पर कम हॉर्मोन्स का उत्पादन हाइपोथॉयरॉइडिज्म का कारक होता है।
करें लक्षणों पर गौर
हॉर्मोन की कमी यानी हाइपोथॉयरॉइडिज्म के कारण होने वाली इस समस्या के कारण मरीज के चेहरे और शरीर पर सूजन, भारीपन, फटीक, कंस्टीपेशन, ड्राई-स्किन, जोड़ों और मांसपेशियों में दर्द और कड़ापन, अवसाद और अनियमित मासिक जैसे लक्षण दिखाई देते हैं। वहीं हायपरथॉयरॉइडिज्म यानी हॉर्मोन्स के अतिउत्पादन से मरीज को वजन घटना, हाथ-पैरों में कंपन, आंखें बाहर आना, रंग गहरा होना, अनिद्रा, ज्यादा पसीना आना, घबराहट, हीट इनटॉलरेन्स और एकाग्रता की कमी जैसी समस्याओं का सामना करना पड़ सकता है। उम्रदराज मरीज, जिसमें यह बीमारी सीवियर रूप में और अनट्रीटेड होती है, को दिल का दौरा पड़ने जैसे केसेज भी कई बार देखे गए हैं।
इम्यून सिस्टम और कई अन्य कारकों के एक साथ काम करने की वजह से इस बीमारी से बचाव थोड़ा कठिन है लेकिन सही समय पर और सही इलाज से मरीज स्वस्थ जीवन बिता सकता है। इसमें सबसे पहले मरीज ब्लड लेवल और फिर न्युक्लीयर स्कैन टेस्ट किया जाता है। इनके परिणामों के आधार पर इलाज तय होता है। हॉर्मोन कम होने पर इसकी बाहर से पूर्ति की जाती है, वहीं ज्यादा होने पर इसे दवाइयों द्वारा कम किया जाता है। मेडिकेशन के मददगार न होने पर रेडियो आयोडीन पिलाया जाता है और इसके भी कारगर न होने की दशा में ऑपरेशन के ज़रिए थॉयरॉइड ग्लैंड को निकाल दिया जाता है।
हायपरथॉयरॉइडिज्म और हाइपो-थॉयरॉइडिज्म दोनों ही बीमारियों में चिकित्सकीय सलाह बहुत जरूरी है। इन्हें टालने पर मरीज को बहुत सी परेशानियों का सामना करना पड़ता है। उदाहरण के तौर पर अगर कोई महिला हाइपोथॉयरॉइडिज्म से पीड़ित व अनट्रीटेड है और इसी अवस्था में अगर वो मां बनती है तो शिशु को कई तरह के बर्थ-डिफेक्ट हो सकते हैं। ये शारीरिक और मानसिक दोनों ही तरह के डिफेक्ट होते हैं। अपने माइल्ड फॉर्म में भी हाइपोथॉयरॉइडिज्म दिल के स्वास्थ्य को प्रभावित करता है। इनफर्टिलिटी और अवसाद जैसी समस्याएं भी रोग के इस फॉर्म में आम हैं। इसी तरह हायपर-थॉयरॉइडिज्म के लंबे समय तक अनट्रीटेड रहने या गलत ढंग से इलाज पर घातक समस्याएं भी हो सकती हैं जैसे थॉयरॉइड सर्टाम। इस केस में तत्काल इलाज की जरूरत होती है।
लगभग ४ दशकों से थायरॉइड के इलाज के तरीकों में खास बदलाव नहीं आया। हालांकि कई मरीज टीएसएच की जांच और इसके इलाज के परंपरागत तरीकों से पोटेंशियल लाभ न होने की शिकायत भी करते देखे गए हैं। वहीं इस साल हुए एक महत्वपूर्ण शोध के तहत ये माना जा रहा है कि नॉन-कैसरस बीमारियों में थायरॉइड संभवतः ऐसी पहली बीमारी होगी, जिसे "पर्सनलाइज्ड मेडिसिन" का लाभ मिलेगा। यानी हर मरीज की अलग जेनेटिक प्रोफाइल के अनुसार उसका इलाज किया जाएगा। ऐसे जेनेटिक वैरिएंट्स की पहचान की जा चुकी है, जो थायरॉइड फंक्शन पर असर डालते हैं। शोध का एक क्षेत्र यह भी है कि किस तरह बॉर्डरलाइन थायरॉइड के नियंत्रण द्वारा ब्लडप्रेशर और हार्ट डिजीज को नियंत्रित किया जा सके(डॉ सुनील एम जैन,सेहत,नईदुनिया,दिसम्बर द्वितीयांक 2012)।
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