दवा कंपनियों द्वारा अपनी दवाओं के क्लीनिकल परीक्षण के लिए इंसानों को कथित रूप से ‘बलि का बकरा’ बनाए जाने पर गंभीर रूख अपनाते हुए सुप्रीमकोर्ट ने कल यानी 8 सितम्बर,2012 को केंद्र और विभिन्न राज्य सरकारों से इन आरोपों पर जवाब-तलब किया है। न्यायाधीश आरएम लोढा और न्यायाधीश एआर दवे की पीठ ने इस मसले पर केंद्र सरकार से ऐसे मामलों में अब तक यदि कुछ मौतें हुई हैं तो उनका भी ब्योरा मांगा है। इसके साथ ही पीठ ने केंद्र से ऐसी दवाओं के दुष्प्रभावों और पीडि़तों या उनके परिजनों को दिए गए मुआवजे की भी जानकारी चाही है। न्यायालय ने गैर सरकारी संगठन स्वास्थ्य अधिकार मंच द्वारा दाखिल की गई एक जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए यह निर्देश दिए। याचिका में आरोप लगाया गया है कि विभिन्न फार्मा कंपनियों द्वारा देशभर में बड़े पैमाने पर अपनी दवाओं के क्लीनिकल परीक्षण में भारतीय नागरिकों को बलि का बकरा बनाया जा रहा है।
सुप्रीम कोर्ट ने अतिरिक्त महाधिवक्ता सिद्धार्थ लूथरा से कहा, ‘हम एक पंक्ति का निर्देश भी जारी कर सकते हैं कि बहुत से लोगों को प्रभावित करने वाले इस प्रकार के सभी क्लीनिकल परीक्षणों पर आगे रोक लगाई जाए। हम इस बारे में बेहद गंभीर हैं।’ पीठ ने हालांकि इस मसले पर गंभीर चिंता जाहिर की, लेकिन परीक्षणों पर सीधे पूर्ण रोक लगाने से बचते हुए केंद्र सरकार से विस्तृत जवाब मांगा। इस मुद्दे के चिंताजनक पहलुओं पर,दैनिक ट्रिब्यून के 7 अक्टूबर,2012 के अंक में विचार किया हैः
"एक तरफ यूरोपीय देशों में जानवरों पर भी दवाओं का परीक्षण करने के खिलाफ आवाजें उठने लगी हैं और दूसरी तरफ हमारे देश में न सिर्फ जानवरों पर, बल्कि इंसानों पर भी क्लीनिकल ट्रायल यानी दवाओं के परीक्षण हो रहे हैं। भोले-भाले लोगों को घातक दवाओं के परीक्षण के लिए गिनी पिग के तौर पर इस्तेमाल किया जा रहा है और जाहिर है कि ऐसे अनेक लोग असमय ही काल का ग्रास बन रहे हैं। इंसान से चूहों की तरह व्यवहार किया जा रहा है। उन पर दवाओं का परीक्षण किया जाता है, जिसकी वजह से कई लोगों की जान भी जा चुकी है। अनैतिकता की पराकाष्ठा देखिए कि जिन लोगों पर दवाओं के परीक्षण किए जा रहे हैं, उन्हें इस बारे में कोई जानकारी भी नहीं कि किस तरह बड़ी कंपनियां अपने फायदे के लिए उनकी जिंदगी को दांव पर लगा रही हैं। अफसोस की बात तो यह है कि क्लीनिकल ट्रायल के मामले में अंतरराष्ट्रीय हेलसिंकी घोषणा पत्र (देखें, बॉक्स) के प्रावधानों की धज्जियां भी उड़ाई जा रही हैं। पिछले दिनों एक मामले की सुनवाई करते हुए जब देश की शीर्ष अदालत ने कुछ दवा कंपनियों पर यह टिप्पणी की कि वे इंसानों को बलि का बकरा बना रही हैं, तो कम से कम उन लोगों को कोई हैरानी नहीं हुई, जो दवाओं के कारोबार से गहराई से जुड़े हैं। इत्तिफाक से मानवाधिकार संगठनों ने भी सुप्रीम कोर्ट की इस टिप्पणी पर कोई विशेष प्रतिक्रिया नहीं जताई। इसकी वजह शायद यह है कि इन संगठनों को दवा कंपनियों के उस गोरखधंधे की पूरी जानकारी है, जो गैरकानूनी तो है ही, अनैतिक भी है और मानवता के खिलाफ भी है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्लूएचओ) की ताजा रिपोर्ट कहती है कि देश में हर हफ्ते करीब 10 लोग दवा परीक्षण की वजह से मर रहे हैं और यह सिलसिला कम से कम दस साल से चल रहा है। वर्ष 2008 से 2011 के बीच 1971 लोग दवा परीक्षण की वजह से मारे गए। 2012 की शुरुआत में ऐसे 12 डॉक्टरों का पर्दाफाश हुआ, जो गुपचुप तरीके से बच्चों पर दवा परीक्षण कर रहे थे। बाद में इन्हें सिर्फ 5,000 रुपए का आर्थिक जुर्माना लगाकर छोड़ दिया गया।
इस मामले को बेहद गंभीर मानते हुए स्वास्थ्य अधिकार मंच नामक एक संगठन ने कोर्ट में जनहित याचिका दायर की थी। संगठन का कहना है कि मध्य प्रदेश में ऐसे 200 मामले सामने आए हैं, जिनमें बिना इजाजत लिए मरीजों पर दवा परीक्षण किया गया। जाहिर है कि यह सारा खेल अनैतिक और गैरकानूनी है। वर्ष 2004 से 2006 के बीच कई दवा कंपनियों ने लोगों पर परीक्षण किए और इस मामले में बनाए गए नियम-कानूनों का उल्लंघन किया। अफसोस की बात यह है कि इस बारे में किसी को सजा तक नहीं हुई। विश्व स्वास्थ्य संगठन का कहना है कि भारत दवा परीक्षण का सबसे बड़ा केंद्र बनता जा रहा है। कम लागत, लचर नियम-कानून और सजा न हो पाने की वजह से दवा कंपनियां लोगों की जान से खिलवाड़ कर रही हैं। इसके उलट यूरोप में अब जानवरों पर भी परीक्षण के खिलाफ बवाल हो रहा है और जर्मनी सहित कई देश धीर-धीरे जानवरों की जगह अब कंप्यूटर पर दवा टेस्ट करने लगे हैं।
"एक तरफ यूरोपीय देशों में जानवरों पर भी दवाओं का परीक्षण करने के खिलाफ आवाजें उठने लगी हैं और दूसरी तरफ हमारे देश में न सिर्फ जानवरों पर, बल्कि इंसानों पर भी क्लीनिकल ट्रायल यानी दवाओं के परीक्षण हो रहे हैं। भोले-भाले लोगों को घातक दवाओं के परीक्षण के लिए गिनी पिग के तौर पर इस्तेमाल किया जा रहा है और जाहिर है कि ऐसे अनेक लोग असमय ही काल का ग्रास बन रहे हैं। इंसान से चूहों की तरह व्यवहार किया जा रहा है। उन पर दवाओं का परीक्षण किया जाता है, जिसकी वजह से कई लोगों की जान भी जा चुकी है। अनैतिकता की पराकाष्ठा देखिए कि जिन लोगों पर दवाओं के परीक्षण किए जा रहे हैं, उन्हें इस बारे में कोई जानकारी भी नहीं कि किस तरह बड़ी कंपनियां अपने फायदे के लिए उनकी जिंदगी को दांव पर लगा रही हैं। अफसोस की बात तो यह है कि क्लीनिकल ट्रायल के मामले में अंतरराष्ट्रीय हेलसिंकी घोषणा पत्र (देखें, बॉक्स) के प्रावधानों की धज्जियां भी उड़ाई जा रही हैं। पिछले दिनों एक मामले की सुनवाई करते हुए जब देश की शीर्ष अदालत ने कुछ दवा कंपनियों पर यह टिप्पणी की कि वे इंसानों को बलि का बकरा बना रही हैं, तो कम से कम उन लोगों को कोई हैरानी नहीं हुई, जो दवाओं के कारोबार से गहराई से जुड़े हैं। इत्तिफाक से मानवाधिकार संगठनों ने भी सुप्रीम कोर्ट की इस टिप्पणी पर कोई विशेष प्रतिक्रिया नहीं जताई। इसकी वजह शायद यह है कि इन संगठनों को दवा कंपनियों के उस गोरखधंधे की पूरी जानकारी है, जो गैरकानूनी तो है ही, अनैतिक भी है और मानवता के खिलाफ भी है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्लूएचओ) की ताजा रिपोर्ट कहती है कि देश में हर हफ्ते करीब 10 लोग दवा परीक्षण की वजह से मर रहे हैं और यह सिलसिला कम से कम दस साल से चल रहा है। वर्ष 2008 से 2011 के बीच 1971 लोग दवा परीक्षण की वजह से मारे गए। 2012 की शुरुआत में ऐसे 12 डॉक्टरों का पर्दाफाश हुआ, जो गुपचुप तरीके से बच्चों पर दवा परीक्षण कर रहे थे। बाद में इन्हें सिर्फ 5,000 रुपए का आर्थिक जुर्माना लगाकर छोड़ दिया गया।
इस मामले को बेहद गंभीर मानते हुए स्वास्थ्य अधिकार मंच नामक एक संगठन ने कोर्ट में जनहित याचिका दायर की थी। संगठन का कहना है कि मध्य प्रदेश में ऐसे 200 मामले सामने आए हैं, जिनमें बिना इजाजत लिए मरीजों पर दवा परीक्षण किया गया। जाहिर है कि यह सारा खेल अनैतिक और गैरकानूनी है। वर्ष 2004 से 2006 के बीच कई दवा कंपनियों ने लोगों पर परीक्षण किए और इस मामले में बनाए गए नियम-कानूनों का उल्लंघन किया। अफसोस की बात यह है कि इस बारे में किसी को सजा तक नहीं हुई। विश्व स्वास्थ्य संगठन का कहना है कि भारत दवा परीक्षण का सबसे बड़ा केंद्र बनता जा रहा है। कम लागत, लचर नियम-कानून और सजा न हो पाने की वजह से दवा कंपनियां लोगों की जान से खिलवाड़ कर रही हैं। इसके उलट यूरोप में अब जानवरों पर भी परीक्षण के खिलाफ बवाल हो रहा है और जर्मनी सहित कई देश धीर-धीरे जानवरों की जगह अब कंप्यूटर पर दवा टेस्ट करने लगे हैं।
स्वास्थ्य अधिकार मंच का कहना है कि मध्यप्रदेश में ऐसे 200 मामले सामने आए हैं, जहां मरीजों पर बिना उनकी इजाजत के दवा परीक्षण किया गया। मंच के पुनीत सिंह कहते हैं, ‘स्थितियां बद से बदतर होती जा रही हैं। पिछले तीन वर्षों के बीच कई दवा कंपनियों ने लोगों पर परीक्षण किए और इस मामले में बनाए गए नियम-कानूनों का उल्लंघन किया। अफसोस की बात तो यह है कि इस बारे में किसी को सजा तक नहीं हुई।’वे जोर देकर यह बात भी कहते हैं कि यूरोप में तो अब जानवरों पर परीक्षण के खिलाफ भी बवाल हो रहा है और जर्मनी सहित कई देश धीरे-धीरे जानवरों की जगह कंप्यूटर पर दवा टेस्ट करने लगे हैं। लेकिन हमारे देश में लचर कानून और आम लोगों में जागरूकता की कमी के कारण गैर-कानूनी तरीके से दवा परीक्षण का धंधा चल रहा है।
दवाओं का बाजार कितने तगड़े मुनाफे पर टिका है, यह हम सभी जानते हैं। इसी मुनाफे के फेर में दवा कंपनियां लोगों की जान से खिलवाड़ कर रही हैं। कई बार तो अस्पताल में भर्ती मरीज को भी परीक्षण के लिए दवाई खिला दी जाती है। एक मामला हरियाणा का है। प्रभा देवी के बेटे मनीष के शरीर पर दवा परीक्षण की वजह से सफेद दाग बनने लगे, जो अभी तक ठीक नहीं हुए। मनीष की दवाई चल रही है। उनके पिता जगन दास का कहना है, ‘हमारे गांव में कुछ लोग आए और उन्होंने कहा कि नवजात बच्चों को कोई नया टीका लगाना है और यह मुफ्त है। अगर इसे पैसा देकर लगवाते तो 6000 रुपए लगते।’ इसी तरह की एक घटना आंध्र प्रदेश में भी सामने आई। गुंटूर जिले की 35 महिलाओं पर स्तन कैंसर की दवा के असर का परीक्षण किया गया। महिलाओं को इसके बदले में पैसा भी दिया गया। जब महिलाओं ने दर्द और बेहोशी की शिकायत की, तो डॉक्टरों ने अचानक दवाई देना बंद कर दिया। इलाके में काम करने वाले एक डॉक्टर का कहना है कि स्वास्थ्य अधिकारियों की लापरवाही से उन डॉक्टरों को अपने आप सुरक्षा मिल जाती है, जो दवा कंपनियों के लिए काम करते हैं।
हाल ही प्रकाशित एक रिपोर्ट में कहा गया है कि अंतरराष्ट्रीय क्लिनिकल परीक्षण और शोध का बाजार करीब 20 अरब डॉलर का है। भारत में यह बाजार करीब दो अरब डॉलर का हो गया है और यह 50 प्रतिशत की दर से बढ़ रहा है। दवा बाजार से जुड़े विशेषज्ञों का कहना है कि, ज्यादातर नई दवाओं का आविष्कार अमेरिका, जर्मनी, ब्रिटेन, फ्रांस, स्विट्जरलैंड जैसे विकसित देशों में होता है लेकिन इनका परीक्षण भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश, भूटान, अफ्रीकी देश, श्रीलंका जैसे विकासशील और गरीब देशों में किया जाता है।
हालांकि दवा कंपनियों ने दावा किया है कि वे उन्हीं लोगों पर परीक्षण करती हैं, जो असाध्य बीमारी से ग्रस्त हैं। इस मामले में हो रही मौत के लिए उन्हें दोष नहीं देना चाहिए। एक बहुराष्ट्रीय दवा कंपनी से जुड़े अधिकारी ने नाम न बताने की शर्त पर कहा कि दवा परीक्षण के लिए भारत में भी वही नियम-कानून हैं, जो अमेरिका और दूसरे यूरोपीय देशों में हैं।
एक तरफ दवा के परीक्षण के दौरान देश में हर दो दिन में तीन लोगों की मौत हो रही है, वहीं दूसरी तरफ ऐसी दवाओं को भी हमारे देश में बेचा जा रहा है, जिन्हें अमेरिका, ब्रिटेन और यूरोपीय देशों में प्रतिबंधित किया गया है। और यह सब हो रहा है दवा कंपनियों और कुछ चिकित्सकों की मिलीभगत के कारण। स्वास्थ्य मंत्रालय से जुड़ी संसद की स्थायी समिति की रिपोर्ट के अनुसार, दवा के साइड इफेक्ट के कारण जिन दवाओं पर अमेरिका, यूरोप और अधिकांश विकसित देशों में प्रतिबंधित लगाया गया है, उन्हें खुले तौर पर भारत में बेचा जा रहा है। समिति का कहना है कि इस बात के पर्याप्त साक्ष्य हैं कि मिलीभगत के कारण कई दवाओं को बिना जांचे-परखे मंजूरी भी दी जा रही है। समिति को यह जानकारी भी मिली है कि देश के अलग-अलग क्षेत्रों में होने के बावजूद चुनिंदा दवाओं के बारे में कुछ चिकित्सा विशेषज्ञों ने एक ही प्रकार की सिफारिश की। यहां तक कि उनके पत्रों की भाषा और सुझाव भी एक ही प्रकार के थे।
क्या है हेलसिंकी घोषणापत्र?
क्लीनिकल परीक्षण से संरक्षण प्रदान करने और इसके नियमन के लिए साल 1964 में हेलसिंकी घोषणापत्र जारी किया गया था। इस घोषणा पत्र पर भारत समेत दुनिया के सभी प्रमुख देशों ने हस्ताक्षर किए हंै। इस घोषणापत्र में छह बार संशोधन भी किए गए हैं, लेकिन इस पर प्रभावी ढंग से अमल नहीं किया जा रहा है। हेलसिंकी घोषणापत्र में क्लीनिकल परीक्षण के लिए आचार संहिता का पालन करने के साथ यह सुनिश्चित करने का बात कही गई है कि लोगों पर इसका प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़े और क्लीनिकल परीक्षण से होने वाले मुनाफे से ऐसे लोगों को वंचित नहीं किया जाए, जिन पर दवाओं का परीक्षण किया गया हो। दवाओं का परीक्षण दबाव, जोर-जबरदस्ती या लालच देकर नहीं कराया जाए।
तगड़े मुनाफे का खेल
आप यकीन करें या नहीं, कई आम दवाएं जिनकी कीमत 10 रुपए है, उनकी कीमत आपको 100 या इससे भी ज्यादा चुकानी पड़ रही है। कहने का मतलब है कि देशी-विदेशी दवा कंपनियां आपकी जेब पर डाका डालकर कई सौ फीसदी मुनाफा कमा रही हैं। यह खुलासा केंद्रीय कंपनी मंत्रालय की रिपोर्ट में हुआ है। राष्ट्रीय औषधि मूल्य निर्धारण प्राधिकरण (एनपीपीए) ने दवाओं पर अधिकतम मुनाफा कमाने की सीमा सौ फीसदी निर्धारित कर रखी है, लेकिन कंपनियां इस नियम का खुलेआम उल्लंघन करती हैं। कंपनी मामलों के मंत्रालय की एक रिपोर्ट में खुलासा किया गया है कि कुछ भारतीय फार्मा. कंपनियां जबरदस्त मुनाफा कमा रही हैं। रिपोर्ट में कहा गया है कि कई दवाओं का बाजार मूल्य लागत मूल्य से 200 फीसदी से लेकर 500 फीसदी अधिक है। एक नामी कंपनी तो भारतीय बाजार में दवाएं बेचकर 1122 फीसदी तक मुनाफा कमा रही है। इस सर्वेक्षण में भारतीय बाजार में सर्वाधिक बिकने वाली देशी और विदेशी कंपनियों की दवाओं को शामिल किया गया है। एंटी हाइपरटेंशन जैसी बीमारी के लिए तीन बड़ी कंपनियों की दवाएं लागत मूल्य से 1078 फीसदी अधिक मुनाफे पर बेची जा रही हैं।"
सार्थकता लिये सटीक लेखन
जवाब देंहटाएंविचारोत्तेजक आलेख। बहुत कुछ चिंतन की सामग्री दे गया।
जवाब देंहटाएंउत्कृष्ट प्रस्तुति ....
जवाब देंहटाएंहमारे यहां, जानवरों पर ट्रायल की क्या आवश्यकता हैं, हम हैं न जानवरों के स्थानापन्न...
जवाब देंहटाएंएक और संग्रहनीय लेख !
जवाब देंहटाएंआपकी मेहनत प्रसंशनीय है राधारमण जी !
कुमार सहाब बड़ा ही अच्छा लेख है इससे ऐलोपैथी डाक्टर्स की समाज के प्रति प्रतिवद्धता की पौल खोलता है पहले भी डाक्टर्स अपने अनूठे कारनामों को से समाज को अपना असली चेहरा दिखा चुके हैं किसी ने मरीजों की किडनियाँ ही बैच दी।
जवाब देंहटाएंसच मैं वैसे तो मानव होना या दानव होना अपनी प्रकृति पर ही निर्भर है फिर भी मानवता सिखाने में आयुर्वेद का कहीं कोई सानी नही है।जिसमें वैद्यों की मानबता के किस्से भरे पड़े है। आयुर्वेदिक दुनिया का सबसे पुरानी चिकित्सा पद्यति है कृपया इसका विस्तार करे तथा करने में सहयोग करे क्योंकि यही वह पद्यति है जिसमे एक रोग का इलाज करने पर कोई अन्य रोग मु्फ्त में नही मिलता कृपया जानकारी बाँटने के लिये हमारे ब्लाग पर भी आये तथा पोस्टे पढ़े।http://ayurvedlight.blogspot.in/
http://ayurvedlight1.blogspot.in/ तथा
गुणों की खान हल्दी http://ayurvedlight.blogspot.in/2012/10/turmeric-mine-of-qualities.html#links
जवाब देंहटाएंsatik nd sarthak lekh.....sabhi jagah gaurakh dhandha ho raha hai ...
जवाब देंहटाएंबढिया रचना और जानकारी मै देर से पढ पाया
जवाब देंहटाएंबहुत ही सटीक जानकारी है
जवाब देंहटाएंआम जनता को दवा व्यापारी लूट रहे है एवं हमारे देश के पंगु नेता जो जनता के शुभ चिंतक बताते है आखिर क्यों चुप है क्या उन्हें इस बात का ज्ञान नही है अगर नही है तो कुछ लोगो को आमंत्रित करे जो इस बारे में जानते है क्या ऐसा करेगे शासन में बेठे लोग अथवा इन दवा कम्पनियो के एहसान का बदला आम जनता को लूटने देगे