दाहिना पाँव बाईं जाँघ पर और बायाँ पाँव दाहिनी जाँघ पर ऐसी रीति से रखें कि उनकी ए़ड़ियाँ पेट के नीचे के भाग से सटकर बैठे। पश्चात दोनों हाथ पीछे फेरकर दाहिने पाँव का अँगूठा दूसरे हाथ की तर्जनी और दो उँगलियों की चुटकी में पकड़ें, फिर ठोड़ी हृदय में लगाकर दबाएँ, इसके अनन्तर नासिका के अग्रभाग पर दृष्टि स्थिर करनी चाहिए, इसको बद्ध पद्मासन कहते हैं।
इस आसन से अनेक व्याधियों का नाश होता है। विशेषतः पेट संबंधी बहुत-सी व्याधियाँ इस आसन के करने से दूर होती हैं। पेट का फूलना, बदहजमी, अपच के अनेक दोष, पेट का दर्द, परिणामशूल, आमवात, कब्ज, बद्धकोष्ठता, खट्टी डकार आदि सब इसके करने से दूर होते हैं। परंतु केवल मिनट दो मिनट करने से उक्त लाभ प्राप्त करने की इच्छा करना व्यर्थ है। कम से कम आधा घंटा आसन पर स्थिर बैठने का अभ्यास करना चाहिए। तब गुण का अनुभव होने लगता है।
घंटा डेढ घंटा तक बैठने से और भी अधिक लाभ होते हैं। इस प्रकार प्रतिदिन तीन-चार बार छः मास तक अभ्यास करने से स्थिर रूप से आरोग्य प्राप्त होता है। इस आसन से कमर के स्नायु तथा पाँव की नस-नाड़ियाँ निर्मल हो जाती हैं, इसलिए वहाँ आरोग्य प्राप्त होता है।
बार-बार पीठ को दबाकर बैठने के कारण पृष्ठवंश के मेरुदंड में टेढ़ापन आ जाता है, वह इससे दूर हो जाता है और उसमें सरलता अथवा समता आती है। इसलिए पृष्ठवंश का मज्जा-प्रवाह इस आसन के करने से ठीक होता है अर्थात् मज्जा-तंतु के रोग इस आसन से क्रमशः दूर होते हैं। पृष्ठवंश के टेढ़ेपन के कारण मनुष्य में असंख्य बीमारियाँ होती हैं। गुर्र्दे से लेकर मस्तिष्क तक के विविध भागों में इन मज्जा-तंतुओं के बिगड़ जाने से विविध बीमारियाँ होना संभव होता है। इसलिए सब अवस्थाओं में सब आयु वाले लोगों को यह आसन लाभदायक होता है।
कई मनुष्यों के हाथ पीछे से पाँव के अँगूठों तक पहुँचते ही नहीं, इसका कारण इतना ही है कि उनकी नस-नाड़ियाँ अशुद्ध रहती हैं। बार-बार प्रयत्न करने पर एक माह में पाँव के अँगूठे पीछे से हाथ में आने लगते हैं। तब तक उनको एक हाथ से ही पीठ की ओर से एक पाँव का अँगूठा पकड़ने का यत्न करना चाहिए। एक हाथ से जो अँगूठा पकड़ा है वह दाएँ हाथ से दाहिने पाँव का और बाएँ हाथ से बाएँ पाँव का ही अँगूठा पीछे से पकड़ने से "अर्थ बद्ध पद्मासन" होता है।
यद्यपि इससे कुछ विशेष लाभ नहीं होता है तथापि तैयारी की दृष्टि से इतना करना लाभदायक ही है। अर्थ बद्ध पद्मासन करना हो तो क्रमशः दोनों ओर का अवश्य हेर-फेर करना चाहिए तथा पूर्ण बद्ध पद्मासन भी पाँवों और हाथों के हेर-फेर से करना चाहिए तथा पूर्ण बद्ध पद्मासन भी पाँवों और हाथों के हेर-फेर से करना चाहिए। इस प्रकार करने से ही उचित लाभ पहुँचता है।
इस आसन में बैठकर गुदा और शिश्नस्थान की नस-नाड़ियों का उर्घ्व आकर्षक करने से वीर्य दोष दूर हो जाते हैं। श्वास और ऊच्छ्वास की समप्रमाण में परंतु मंदगति कदाहिना पाँव बाईं जाँघ पर और बायाँ पाँव दाहिनी जाँघ पर ऐसी रीति से रखें कि उनकी एड़ियाँ पेट के नीचे के भाग से सटकर बैठे। पश्चात दोनों हाथ पीछे फेरकर दाहिने पाँव का अँगूठा दूसरे हाथ की तर्जनी और दो उँगलियों की चुटकी में पकड़ें, फिर ठोड़ी हृदय में लगाकर दबाएँ, इसके अनन्तर नासिका के अग्रभाग पर दृष्टि स्थिर करनी चाहिए, इसको बद्ध पद्मासन कहते हैं(सेहत,नई दुनिया,दिसम्बर प्रथमांक 2011)।
aapke blog par hamesha hi achchhi jaankari milti hai..
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी पोस्ट ....
जवाब देंहटाएंफुर्सत के दो क्षण मिले, लो मन को बहलाय |
जवाब देंहटाएंघूमें चर्चा मंच पर, रविकर रहा बुलाय ||
शुक्रवारीय चर्चा-मंच
charchamanch.blogspot.com
bahut hi achhi aur gyanvardhak post.
जवाब देंहटाएंशहर कब्बो रास न आईल
ओशो ने सत्य ही कहा है—स्वास्थय केवल एक होता है.आपके द्वारा,योग की जानकारी सराहनीय है. सादर धन्यवाद.
जवाब देंहटाएंसार्थक महत्वपूर्ण जानकारी देती पोस्ट....
जवाब देंहटाएंसादर आभार...
सार्थक व ज्ञानवर्द्धक .आभार.
जवाब देंहटाएंसार्थक व ज्ञानवर्द्धक .आभार.
जवाब देंहटाएं