शनिवार, 24 सितंबर 2011

उत्तरप्रदेश में प्रयोग सफल रहा तो दूसरे राज्यों में भी वैद्यजी करेंगे उपचार

गांवों के लिए दोयम दर्जे के डाक्टरों की फौज तैयार करने में विफल यूपीए सरकार ने अब ग्रामीण जनता का उपचार ‘वैद्य जी’ से कराने की सोची है। फिलहाल यह व्यस्वस्था सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश से शुरू की गई है और सब कुछ ठीक-ठाक रहा तो धीरे-धीरे सभी राज्यों के गांवों में ‘वैद्य जी’ तैनात हो जाएंगे। गौरतलब है कि सबसे ज्यादा डाक्टरों की कमी उत्तर प्रदेश के ग्रामीण इलाकों में है। गांवों में ‘वैद्य जी’ तैनात करने के लिए केंद्र सरकार ने 27.35 करोड़ रुपए मंजूर किए हैं। पैसा राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन के खाते से दिया जाएगा। उल्लेखनीय है कि गांवों में डाक्टरों की कमी को पूरा करने के लिए स्वास्थ्य मंत्रालय ने मेडिकल स्कूल खोलने की योजना बनाई थी जिसके तहत साढ़े तीन वर्ष की पढ़ाई पूरी करने के बाद मेडिकल स्कूल के छात्र को उपचार करने की डिग्री दी जानी थी। इस योजना को मेडिकल काउंसिल आफ इंडिया के तत्कालीन अध्यक्ष डा. केतन देसाई ने मंजूरी भी दे दी थी और दावा किया गया था कि जिला स्तर पर खुलने वाले मेडिकल स्कूलों में चार वर्ष बाद हर वर्ष कम से कम पांच हजार डाक्टर निकलने लगेंगे और दस वर्ष बाद गांवों में डाक्टरों की कमी समाप्त हो जाएगी। एमसीआई ने इन डाक्टरों का पंजीकरण करने के लिए एक शर्त लगाई थी जिसके तहत डाक्टरों को जिंदगी भर गांव में ही प्रैक्टिस करना था, मगर अंग्रेजी डाक्टरों के विरोध के चलते यह योजना फिलहाल रोक दी गई है। इस समय ग्रामीण इलाकों में करीब 16 हजार डाक्टरों की कमी है जिनमें 12,263 विशेषज्ञ व 3,789 परामर्शदाता हैं। इनमें सबसे ज्यादा कमी उत्तर प्रदेश में है। यहां के गांवों में 1,442 विशेषज्ञ व 1,689 परामर्शदाता हैं जबकि योजना आयोग की 2008 की रिपोर्ट के मुताबिक पूरे देश में 6 लाख डाक्टरों की कमी है। इस समय प्रति 30 हजार ग्रामीण जनता पर एक डाक्टर का औसत चल रहा है। बहरहाल डाक्टरों की इस कमी को पूरा करने के लिए स्वास्थ्य मंत्रालय ने वैकल्पिक व्यवस्था करने को सोची है जिसके तहत गांवों में अब आयुर्वेदाचार्यों को तैनात किया जाएगा। मंत्रालय ने उत्तर प्रदेश के परिवार कल्याण सचिव को निर्देश दिए हैं कि ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन के तहत इस वर्ष 1140 आयुर्वेदिक पुरुष डाक्टरों और 759 आयुर्वेदिक फार्मासिस्टों को तैनात कर दिया जाए। इस काम के लिए मंत्रालय ने दो मदों में 21.89 करोड़ रुपए एवं 5.46 करोड़ रुपए मंजूर किए हैं। यह अतिरिक्त धनराशि आयूष विभाग के नाम पर मिशन के खाते से उत्तर प्रदेश को दी गई है। यह भी पता चला है कि यदि उत्तर प्रदेश में इन डाक्टरों से ग्रामीण जनता को राहत मिली तो बाद में इसे मध्य प्रदेश में भी लागू किया जाएगा, क्योंकि उत्तर प्रदेश के बाद मध्य प्रदेश के गांवों में डाक्टरों की सर्वाधिक कमी है। मंत्रालय इस बात पर भी विचार कर रहा है कि यदि आयूष के डाक्टरों से ग्रामीण जनता संतुष्ट नजर आई तो धीरे-धीरे यह व्यस्वस्था सभी राज्यों के ग्रामीण इलाकों में लागू कर दी जाएगी(ज्ञानेन्द्र सिंह,राष्ट्रीय सहारा,दिल्ली,21.9.11)। 

रिसर्च बिना "वैद्यकी" 
सहारा की इसी दिन की एक अन्य रिपोर्ट कहती है कि अभी आम आदमी की सेहत दुरुस्त रखने की सुविधाओं के मामले में देश की स्थिति बहुत कमजोर है। तीन साल पूर्व के अनुमानों के आधार पर आबादी को स्वस्थ रखने के लिए देश में छह लाख डॉक्टरों की कमी है। अभी महज 335 मेडिकल कॉलेज हैं जिनमें 181 निजी व 154 सरकारी हैं। इनमें क्रमश: 22,770 तथा 18,799 (कुल 41 हजार, 569) युवकों को चिकित्सा शिक्षा दी जा रही है। 2011 में आकर यह हालात तब बने हैं जब 2008 से लगातार सीटों में इजाफा हुआ। अन्यथा, 2010 में तो सिर्फ 32,356 सीटें चिकित्सा विज्ञान की पढ़ाई के लिए उपलब्ध थीं। देश में इस समय सभी तरह के रजिस्र्टड डॉक्टरों की कुल तादाद 8 लाख, 56 हजार है मगर आंकड़ों के अनुसार छह लाख डॉक्टर ही सही मानकों पर सक्रिय हैं। छह लाख डॉक्टरों की कमी है और अभी औसतन हर 30 हजार ग्रामीण आबादी पर एक डॉक्टर है। सरकार का मानना है कि मौजूदा हालात में आम जनता की चिकित्सा चुनौतियों से तब निपटा जा सकता है जब हर साल एक लाख डॉक्टर तैयार किये जा सकें। पर इसके लिए जो जरूरी संसाधन बनाने होंगे, उस मोच्रे पर हालत बहुत पतली है। 12वीं योजना का अंतिम मसौदा पूरी तरह प्रकट नहीं हुआ है। लेकिन जन- स्वास्थ्य इसकी शीर्ष प्राथमिकता नहीं है। दूसरी ओर मेडिकल की पढ़ाई कितनी महंगी होती जा रही है, इसका अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि निजी क्षेत्र के मेडिकल कॉलेजों में एक डॉक्टर तैयार होने की लागत सरकारी कॉलेजों की तुलना में 20 गुना अधिक है। उनमें ट्यूशन फीस काफी ज्यादा है, अन्य मदों में भी भारी शुल्क लेकर छात्रों व उनके अभिभावकों का ‘उत्पीड़क दोहन’ किया जाता है। इसका जिम्मेदार पहले तो सम्बंधित नियामक- मेडिकल काउंसिल आफ इंडिया की लचर व्यवस्था है और उस पर मुलम्मा चढ़ाते हैं स्पष्ट दिशा-निर्देशों एवं कड़े नियम-कानूनों के अभाव और सरकारी मशीनरी की ‘सुविधा शुल्क’ पर चलने वाली कार्यपण्राली। इस दशा में आयुर्वेद का पल्ला थामने की बात कुल जमा सरकारी मजबूरी अधिक दिखती है। नतीजे तो बाद में दिखेंगे, लेकिन अभी यह कवायद उत्तर प्रदेश में होने जा रहे चुनावों की रोशनी में भी ज्यादा लगती है। नहीं तो योजना के लिए केवल इस राज्य को चुनने की विवशता क्या थी? यूपीए सरकार के दौर में गांवों को बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के लिए ‘खुली लैब’ जैसा बना दिया गया है। सुबूत केंद्र सरकार की वह योजना है जिसके अंतर्गत सिर्फ गांवों के लिए साढ़े तीन साल की पढ़ाई के आधार पर ‘डिग्रीधारी डॉक्टर’ बनाये जाने थे। भला हो, उन लोगों का जिनके चलते दोयम दज्रे के डॉक्टर बनाने की यह योजना परवान न चढ़ सकी। आयुर्वेद भारतीय चिकित्सा प्रणाली है और इसके भैषज्य अचूक होने की बात हमारे ग्रंथों तथा संहिताओं में है। बावजूद इसके पर्यावरण और बीमारियों की नयी चुनौतियों के बरक्स आयुर्वेद में अध्ययन-अनुसंधान की कमी इस प्रयोग के प्रति विश्वस्त नहीं करती। इस ओर भी ध्यान देने की जरूरत है!

5 टिप्‍पणियां:

  1. गाँव वालों की चिकित्सा के लिए कुछ तो प्रयास ज़रुरी है ..

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  2. आंकड़ों से सजी यह पोस्ट बताती है कि इस दिशा में काफ़ी कुछ करना ज़रूरी है।

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  3. काफी अच्छी विस्तृत जानकारी !

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  4. अभी इस ओर काफी ध्यान देने की आवश्यकता है .....

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