फोड़े, फुंसियाँ और मुँहासे- अक्सर किशोरावस्था में यह समस्या अनेक नवयुवकों एवं युवतियों को परेशान करती है। बदलते हुए शारीरिक और मनोभावनात्मक परिवेशों के कारण तथा अंतःस्त्रावी ग्रंथियों के स्त्राव में असंतुलनों के कारण यह समस्या उत्पन्न होती है। हालाँकि बाज़ार में अनेक मलहम व नुस्खे प्रचलित हैं, पर इन सबके द्वारा इनका समुचित समाधान होना मुश्किल है।
योगासनों विशेषतः सूर्य नमस्कार और प्राणायामों के अभ्यास से अंतःस्त्रावी तंत्र सुचारू बनता है। खान-पान पर नियंत्रण तथा नियमित जीवनचर्या भी उपचार का आवश्यक अंग है। संयत शाकाहारी भोजन सर्वोत्तम है। हठयौगिक क्रियाओं से मल निष्कासित होते हैं। आंतरिक शुद्घिकरण होता है। इस समस्या से मुक्त होने के लिए रक्त का शुद्घ होना प्राथमिक आवश्यकता है, जिसके लिए अमरोली सहायक है। सेवन तथा लेपन दोनों ही अनुशंसित हैं। खुली हवा में घूमना, खेलना-कूदना, तैरना तथा प्रसन्न रहना भी उतना ही ज़रुरी है, जितना पढ़ाई, लिखाई और करियर।
दाद-खाज, खुजली : यह एक प्रकार की फफूंदी का संक्रमण है। यह चर्म रोग अक्सर गीले रहने वाले स्थानों पर, जहाँ त्वचा की परतें आपस में घर्षण करती हैं, उत्पन्न होता है। उदाहरण के लिए जंघामूल, कांख तथा पैरों की अँगुलियों के पोरों के बीच में। नाइलोन इत्यादि कृत्रिम वस्त्रों तथा गीले अंतः वस्त्र धारण करने से लक्षण उभरते हैं। त्वचा में चकत्ते बन जाते हैं, जिनमें तीव्र खुजली होती है। यह रोग आंतरिक अशुद्घियों की अधिकता तथा कोशिकीय चयापचय द्वारा उत्पन्न उम्लीय पदार्थों का जमाव दर्शाता है।
उपचार हेतु घाव को सूखा तथा धूप एवं हवा में खुला रखना चाहिए। गीले कपड़े नहीं पहनें, पसीना पोछ दें या कपड़े बदल लें। अन्य उपायों के साथ शंखप्रक्षालन द्वारा आंतरिक अम्लीय मलों को दूर करना सर्वोत्तम उपचार है। प्रारंभ में लाक्षणिक लाभ हेतु फफूंदनाशक औषधि लेपन सहायक होता है,परन्तु शीघ्र आंतरिक शुद्धिकरण किए बिना समस्या बार-बार सताती रहती है।
हर्पीज : यह एक अत्यंत पीड़ादायी विषाणु (वायरल) संक्रमण है, जो त्वचा की सतह पर एक पट्टे के रूप में ढेर सारी छोटी-छोटी पानी भरी फुँसियों के रूप में उभरता है। ऐसा माना जाता है कि बचपन में निकली छोटी माता के रोगाणु स्नायु तंत्र के भीतर चुपचाप पड़े रहते हैं। जैसे ही शरीर की प्रतिरोधी क्षमता क्षीण अथवा जीवनी शक्ति दुर्बल होती है, रोगाणु पुनः क्रियाशील हो रोग उत्पन्न कर देते हैं। यौगिक विचारधारा के अनुसार जीवनी शक्ति के प्रवाह में अवरोध ही इसका मूल कारण है। यह समस्या अक्सर सीने के एक ओर पसलियों के बीच उभरती है। इस स्थान का संबंध अनाहत चक्र से होता है। दूसरा उदाहरण है बुखार के दौरान बुखार या उतरते समय मुँह के चारों तरफ इन छोटी-छोटी फुँसियों का हो जाना। यह भी शरीर की घटी हुई जीवनी शक्ति को इंगित करते हैं। ये सर्दी-ज़ुकाम के साथ अक्सर जुड़े रहते हैं और शरीर की जीवनी शक्ति घटने-बढ़ने के साथ लक्षण आते-जाते रहते हैं। इन बार-बार होने वाले रोगों पर हठयोग,सूर्य नमस्कार तथा प्राणायामों के नियमित अभ्यास द्वारा आसानी से नियंत्रण पाया जा सकता है।
सोरियासिसः यह बार-बार होने वाला चर्मरोग है। त्वचा पर अनेक भद्दे धब्बे उभर आते हैं,जो वास्तव में अचेतन मन की गरहाई में अवस्थित विकृत का बाह्य प्रकटीकरण होता है। असंतुलित प्राणविहीन आहार तथा अनियमित-असंयत दिनचर्चा इसके प्रमुख कारक हैं। अत्यधिक कार्बोहाइड्रेटयुक्त भोजन,चर्बी का गलत समायोजन तथा रक्त एवं त्वचा में कॉलेस्ट्रोल की अधिकता भी विकृति को बढ़ाते हैं। जीवन में जब-जब तनावपूर्ण क्षण आते हैं,रोग के बड़े-बड़े चकत्ते चमड़ी एवं सिर पर दृष्टिगोचर होने लगते हैं। त्वचा की कोशिकाओं का अनियंत्रित चयापचय तथा रक्त-संचारण और प्रतिरक्षा प्रणाली इत्यादि की जटिलता अन्तर्क्रिया विकृत हो इन चकत्तों को उत्पन्न करती है।
इससे निजात पाने के लिए आहार-शुद्धि के अलावा,नियमित दिनचर्या अपनाना एवं जीवन के प्रति संतुलित मानसिकता को धारण करना प्राथमिक आवश्यकता है। यौगिक साधना कार्यक्रम में सिर के बल किए जाने वाले आसन तथा प्रातःकाल सूर्य की रोशनी में सूर्य नमस्कार तथा प्राणायाम बहुत लाभप्रद हो सकता है(स्वामी सत्यानंद सरस्वती,सेहत,नई दुनिया,जुलाई पंचमांक 2011)
Nice post .
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आजकल तो इसकी विशेष आवश्यकता है।
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कम्प्यूटर से तेज़...!
सुज्ञ कहे सुविचार के....
You are doing great job, sir..keep posting.
जवाब देंहटाएंaabhar achhi jankari....
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