विश्वास और जीवंत संवाद ये दो ऐसे घटक हैं, जिन पर मरीज और चिकित्सक से संबंध टिके होते हैं। इन दोनों महत्वपूर्ण भावनाओं के बिना चिकित्सक और मरीज का संबंध किसी भी क्षण खत्म हो सकता है। अधिकतर मरीज अपने चिकित्सक से इसलिए तौबा कर लेते हैं और दूसरों के पास इलाज के लिए चले जाते हैं, क्योंकि वे उनसे संतुष्ट नहीं होते। अक्सर मरीज को शिकायत रहती है कि डॉक्टर तो पूरी बात ही नहीं सुनता। विश्वास का पुल टूटने के कई कारण होते हैं। विशेषज्ञ चिकित्सक का हौव्वा मरीज पर इस कदर हावी रहता है कि इससे अक्सर मरीज में हीनभावना पैदा हो जाती है। वे चिकित्सक के व्यक्तित्व का इतना दबाव महसूस करते हैं कि उनकी दिल की बात दिल में ही रह जाती है।
मरीज या उसके परिजन बीमारी से जुड़े प्रश्न पूछना चाहते हैं,लेकनि चिकित्सक के पास इतना समय ही नहीं होता कि वो उनके प्रश्नों का उत्तर दें। यदि उत्तर देता भी है तो हां या नहीं में अथवा दो टूक लहजे में, जिससे मरीज हतोत्साहित होकर दूसरे प्रश्न नहीं पूछता। मरीज को चिकित्सक के कक्ष में ऐसा माहौल मिलना चाहिए कि वह बिना किसी डर के दवा,इंजेक्शन अथवा ऑपरेशन से जुड़े सवाल कर सके।
कई मरीज इतने आतंकित रहते हैं कि वे चिकित्सक से जल्द से जल्द पीछा छुड़ाकर वापस चले जाना चाहते हैं। उन्हें लगता है कि चिकित्सक का समय अधिक कीमती है,इसलिए जितनी जल्दी हो सके,उसके चैंबर से निकल जाना चाहिए। कई बार चिकित्सक मरीज के प्रश्नों के उत्तर मेडिकल भाषा में देने लगते हैं। मरीज के लिए चिकित्सकीय भाषा में कही गई बात का कोई अर्थ नहीं है। मरीज को सरल भाषा में बीमारी और उसके इलाज़ के बारे में जानकारी मिलनी चाहिए,जो अक्सर नहीं मिलती।
कितने समय में देखते हैं मरीज?
कई चिकित्सकों का ध्यान ओपीडी में बैठे मरीजों की कतार पर रहता है। जैसे किसी फैक्ट्री की असेंबली लाइन में एक के बाद एक ऑब्जेक्ट आते रहते हैं और कारीगर उन्हें कम से कम समय में जोड़कर वापस कन्वेयर बेल्ट पर रख देते हैं। ठीक इसी तरह कुछ चिकित्सकों को भी अपने सीमित समय में अधिक से अधिक मरीज देखने की फिक्र होती है। उनकी नजर मरीजों की संख्या पर टिकी होती है। चेंबर में आने वाला मरीज अपनी हालत चिकित्सक को बताना चाहता है, लेकिन उसके रुखे व्यवहार के चलते वह कुछ नहीं कहता। मरीज यह सोचकर चुप रह जाता है कि दवाओं के बारे में केमिस्ट से पूछ लेगा।
नैदानिक जाँचें
एक और प्रवृत्ति इन दिनों जोर पकड़ चुकी है। डॉक्टर अपने क्लिनिकल ज्ञान एवं अनुभव से रोग का निदान करने से अधिक तरजीह लेबोरेटरी जाँचों की रिपोर्टों को देने लगा है। सी.टी. एवं एम.आर.आई. जैसी महँगी जाँचें भी कई बार अनावश्यक रूप से लिख दी जाती हैं। इसका कारण यह है कि वह उपभोक्ता फोरम के चक्कर से बचना चाहता है। क्लिनिकल जाँचों में समय लगता है, इसलिए वह नैदानिक जाँचें लिख देता है।
मरीज का सम्मान
कई चिकित्सक मरीज को यथेष्ट सम्मान नहीं देते। वे अपने व्यवहार से मरीज को नीचा दिखाने में नहीं चूकते। मरीज की जरूरतों के प्रति संवेदनशीलता का अभाव चिकित्सक के व्यवहार से स्पष्ट झलकता है। कई मरीज अज्ञानतावश कुछ ऐसा पूछ बैठते हैं, जिसका चिकित्सक मजाक उड़ाता है या कोई तीखी टिप्पणी कर बैठता है। मरीज चाहे कितना अनजान क्यों न हो, चाहे कितना ही बच्चे जैसा सवाल पूछ रहा हो, उसका समुचित और माकूल उत्तर दिया जाना चाहिए। सभी मरीज ज्ञानी नहीं होते।
मरीज की जानकारी
आमतौर पर मरीज को १५ दिन या ३० दिन बाद फालोअप के लिए बुलाया जाता है। कई चिकित्सकों को मरीज की मेडिकल हिस्ट्री याद ही नहीं रहती। हर बार मरीज से पूछने पर मरीज का विश्वास डगमगा जाता है। चिकित्सक महीने भर में सैकड़ों मरीजों को देखता है, इसलिए उससे यह उम्मीद नहीं की जा सकती कि वह हर मरीज की मेडिकल हिस्ट्री याद रख सके। ऐसे चिकित्सकों से मरीज दूरी बनाना पसंद करते हैं, क्योंकि वह चिकित्सक पर अपना भरोसा खो चुका है। कई चिकित्सक मरीजों की केस हिस्ट्री याद रखते हैं। वे मरीज को देखते ही पहचान लेते हैं। उन्हें फाइल में देखने की जरूरत भी नहीं पड़ती। ऐसे चिकित्सकों पर मरीजों का विश्वास रहता है(डॉ. संजीव नाईक,सेहत,नई दुनिया,जुलाई 2011 प्रथमांक)।
मरीज का सम्मान
कई चिकित्सक मरीज को यथेष्ट सम्मान नहीं देते। वे अपने व्यवहार से मरीज को नीचा दिखाने में नहीं चूकते। मरीज की जरूरतों के प्रति संवेदनशीलता का अभाव चिकित्सक के व्यवहार से स्पष्ट झलकता है। कई मरीज अज्ञानतावश कुछ ऐसा पूछ बैठते हैं, जिसका चिकित्सक मजाक उड़ाता है या कोई तीखी टिप्पणी कर बैठता है। मरीज चाहे कितना अनजान क्यों न हो, चाहे कितना ही बच्चे जैसा सवाल पूछ रहा हो, उसका समुचित और माकूल उत्तर दिया जाना चाहिए। सभी मरीज ज्ञानी नहीं होते।
मरीज की जानकारी
आमतौर पर मरीज को १५ दिन या ३० दिन बाद फालोअप के लिए बुलाया जाता है। कई चिकित्सकों को मरीज की मेडिकल हिस्ट्री याद ही नहीं रहती। हर बार मरीज से पूछने पर मरीज का विश्वास डगमगा जाता है। चिकित्सक महीने भर में सैकड़ों मरीजों को देखता है, इसलिए उससे यह उम्मीद नहीं की जा सकती कि वह हर मरीज की मेडिकल हिस्ट्री याद रख सके। ऐसे चिकित्सकों से मरीज दूरी बनाना पसंद करते हैं, क्योंकि वह चिकित्सक पर अपना भरोसा खो चुका है। कई चिकित्सक मरीजों की केस हिस्ट्री याद रखते हैं। वे मरीज को देखते ही पहचान लेते हैं। उन्हें फाइल में देखने की जरूरत भी नहीं पड़ती। ऐसे चिकित्सकों पर मरीजों का विश्वास रहता है(डॉ. संजीव नाईक,सेहत,नई दुनिया,जुलाई 2011 प्रथमांक)।
Sahi bat ...Sahmat hun...
जवाब देंहटाएंयह समस्या आप है। एक बार प्रस्सिद्धि पा लेने के बाद चिकित्सक मरीज के साथ कभी दोस्ताना नहीं बनना चाहता।
जवाब देंहटाएंबहुत सही बातें लिखी हैं . आजकल डॉक्टर्स में भी एथिक्स की कमी हो गई है . रही सही कसर CPA ने पूरी कर दी . लेकिन यह सच है की एक डॉक्टर को मरीज़ के प्रति संवेदनशील होना चाहिए .
जवाब देंहटाएंआपने बिलकुल सही बातें उठाई है और जब भी डाक्टर और मरीज़ आमने सामने हो ये बातें ध्यान रखनी चाहिए.
जवाब देंहटाएंBade kam ki jankariyaan hain. aabhar.
जवाब देंहटाएंबहुत ही काम की बात कही है आपने।
जवाब देंहटाएंसही लिखा आपने.....
जवाब देंहटाएंज्ञानवर्धक लेख के लिए आभार
बिलकुल सही है हर बात ! बहुत बार मैंने भी
जवाब देंहटाएंयही सब महसूस किया है !
मरीज या उसके परिजन बीमारी से जुड़े प्रश्न पूछना चाहते हैं,लेकनि चिकित्सक के पास इतना समय ही नहीं होता कि वो उनके प्रश्नों का उत्तर दें। यदि उत्तर देता भी है तो हां या नहीं में अथवा दो टूक लहजे में,........... lekin daktor bhi kya karen ! baahar marijon ki bhari bhed main afra-tafri jo machi hai (Sarkaari asptalon ke sandrbh main)
जवाब देंहटाएंaabhar uprokt post hetu.
सही कहा है ... विज्ञानिक दृष्टिकोण से देखना चाहिए आज ...
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