यह शब्द उस अवस्था के लिए प्रयुक्त किया जाता है, जब मूत्राशय से मूत्र अपने आप बाहर निकल जाता है और इसे नियंत्रित करना मुश्किल होता है। कभी भी हँसने, खाँसने या ऐसी कोई क्रिया, जिससे पेट पर दबाव पड़ता हो या तनाव पड़ता हो तो थोड़ा सा मूत्र बाहर निकल जाता है। यह समस्या अनेक स्त्रियों को परेशान करती है और अपने आप में एक शर्म तथा तनाव उत्पन्न करने वाली परिस्थिति बन जाती है।
अधिकांशतः अनेक बच्चों को जन्म देने वाली माताएँ जो शिशु के जन्म के बाद अपने शरीर को पुनर्गठित करने पर विशेष ध्यान नहीं देती हैं, इस समस्या से परेशान होती हैं। उम्र अधिक होने पर जो ढीलापन आता है, उससे भी ऐसा हो सकता है। शिशु को जन्म देने के दौरान नीचे के अंगों पर बहुत खिंचाव पड़ता है, विशेषकर मूत्राशय एवं मूत्र नली तथा उससे संबंधित तंतु एवं मांसपेशियों पर। फलस्वरूप मूत्र नियंत्रण प्रणाली में दोष उत्पन्न हो जाते हैं। यदि इन अंगों को पुनः पूर्वावस्था में लाने का कोई प्रयास नहीं किया जाए तो वे ढीले ही रह जाते हैं। तदुपरांत कई महीनों तक मूत्र नियंत्रण संभव नहीं हो पाता। जो स्त्रियाँ शिशु जन्म के पूर्व तथा पश्चात् योगाभ्यास करती हैं, वे बहुत शीघ्र मूत्र नियंत्रण एवं श्रोणी प्रदेश के अंगों की सुचारू क्रियाशीलता पुर्नप्राप्त कर लेती हैं,परंतु जो अपने अंगों की कसावट को पुनः सुगठित करने का कोई सजग प्रयास नहीं करतीं, उनमें यह सभी विकृतियाँ रह जाती हैं। योगाभ्यास से शरीर विन्यास एवं सौंदर्य तो सुरक्षित रहता ही है, साथ ही शिशु जन्म से होने वाली क्षति भी बहुत कम होती है। जो क्षति होती है, वो भी शीघ्र सुधर जाती है।
परंतु एक चेतावनी उन स्त्रियों के लिए है, जो शिशु जन्म के तुरंत बाद से ही अपने अंगों को पुर्नव्यवस्थित करने तथा शरीर विन्यास को सुघड़ बनाने हेतु योगाभ्यास अपनाने के लिए आतुर हों, उन्हें यह सलाह दी जाती है कि शिशु जन्म के तुरंत बाद से ही आसन करना प्रारंभ न कर दें, खासकर किसी दक्ष प्रशिक्षक के निर्देशन के। यह प्रतिबंध प्रसव के चालीस दिन पश्चात तक मानना चाहिए, ताकि प्रारंभिक क्षतिपूर्ति प्राकृतिक रूप से पूर्ण हो जाए और प्रसवोपरांत अतिरिक्त प्रवाह का खतरा कम हो जाए। शिथिलीकरण, ध्यान व मृदु प्राणायाम के कुछ अभ्यास तो निश्चित रूप से प्रसव के तुरंत बाद से प्रारंभ किए जा सकते हैं।
जिन्हें मूत्राशय की गड़बड़ियाँ होती रहती हैं या पूर्व में मूत्र प्रणाली का संक्रमण हो चुका हो, उन्हें योगाभ्यास के साथ-साथ पानी अधिक मात्रा में पीना चाहिए (प्रतिदिन ६-१० गिलास), ताकि मूत्र प्रणाली की धुलाई होती रहे। यौन क्रिया के तुरंत बाद मूत्राशय खाली कर लेने से संक्रामक कीटाणु भीतर प्रवेश करने से पहले ही धुल जाएँगे। पहले से ही कमजोर अंग प्रणाली में अधिकांशतः संक्रमणों का प्रवेश इसी प्रक्रिया के दौरान होता है। हरसिंगार के पत्ते का रस भी इसमें बहुत लाभकारी होता है। सौभाग्य से योग एकमात्र ऐसी प्रणाली है जो गुर्दों के ठप होने और जीवन को खतरा होने से पहले ही ह्रासीय प्रक्रिया को रोककर स्वास्थ्य प्रदायी हो सकती है। इन रोगों के यौगिक उपचार का लक्ष्य है संपूर्ण मूत्र प्रजनन प्रणाली एवं संबंधित क्षेत्रों में जो प्राणशक्ति की कमी है, उसे परिपूरित करना। जब यह प्राणशक्ति सुचारू रूप से प्रवाहित होने लगेगी तो संक्रमण इस क्षेत्र में पैर जमा ही नहीं सकेगा तथा संपूर्ण शरीर का स्वास्थ्य सुदृढ़ बनेगा व प्रतिरोध क्षमता भी बेहतर होगी(नई दुनिया,जुलाई प्रथमांक,2011 से साभार)।
bahut acchhi jankari. aabhar.
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