हिंदू धर्म शास्त्रों में सभी जीवों को ईश्वर का अंश माना गया है व मांसाहार को बिलकुल त्यागने योग्य, दोषपूर्ण व पाप योनियों में ले जाने वाला कहा गया है। महाभारत में भीष्म पितामह ने मांस खाने वाले, मांस का व्यापार करने वाले व मांस के लिए जीव हत्या करने वाले तीनों को दोषी बताया है। निरामिष आहार को श्रेष्ठ कहा गया है।
निरामिष आहार के दो रूप हैं - स्थूल एवं सूक्ष्म। स्थूल दृष्टि से तो निरामिष आहार का इतना की अर्थ है कि मांसाहार त्याग। इसका अर्थ इतना ही नहीं है कि हम आहार में आमिष भोजन का त्याग करें, लेकिन हमारे मन में अमैत्री का भाव हो, हमारे व्यवहार में शोषण प्रतिष्ठित हो और हमारे वचन में कटुता, रोष और अहंकार हो। जिस प्रकार एक ओर चींटी को चीनी खिलाना या मछलियों को तालाब में दाना देना तथा दूसरी ओर बेहिचक मुनाफाखोरी और शोषण करना अहिंसा का परिहास है, उसी प्रकार एक तरफ निरामिष आहार का व्रत लेना और दूसरी तरफ धोखा, आडंबर, विश्वासघात और वैर में लगे रहना पाखंड है। निरामिष आहार का दर्शन है-मैत्री भाव। निरामिष आहार जब तक हमारे जीवन का मूल्य नहीं बनेगा, तब तक नैतिक एवं आध्यात्मिक जागरण का स्रोत नहीं हो सकेगा। वास्तव में निरामिष आहार का विकास मानव के विकास और उसकी पूर्णता तथा मानव के धार्मिक और आध्यात्मिक एकता की दिशा में बढ़ते हुए चरण हैं। सात्विक होने के लिए सात्विक भोजन अपेक्षित है और उसके लिए निरामिष आहार आवश्यक है। मानव व्यक्तित्व से यदि हमें पाशविकता का उन्मूलन करना है तो हमें अपने आहार के लिए दूसरे प्राणी के जीवन लेने का मोह छोड़ना होगा। निरामिष आहार केवल आहार की ही एक शैली नहीं, वह जीवन की भी शैली है। जिसका आधार है-इस पृथ्वी पर ईश्वरकृत प्राणियों से प्रेम करना एवं उन्हें मनसा, वाचा, कर्मणा द्वारा किसी प्रकार का कष्ट नहीं पहुंचाना। निरामिष आहार केवल शरीर को नहीं, बल्कि मन और हृदय को भी विशाल, उदार एवं प्रांजल करता है।
हम लोग जीने के लिए भोजन करते हैं भोजन के लिए नहीं जीते हैं। अतः आहार एक साधन है, साध्य नहीं। इस दृष्टि से हमें वैसे आहार को अपनाना चाहिए जो हमें पोषण देने के साथ-साथ अपने वातावरण में एकत्व कर सके। यद्यपि जीवनशास्त्र की दृष्टि से मनुष्य भी पशु जगत का ही एक प्राणी है, फिर भी उसमें बुद्धि और हृदयगत सुकोमल संवेदनाओं का इतना विकास हुआ है कि उसका पशु स्वभाव संयमित होता गया है। उसकी यही करुणा उसे अपने आहार के लिए दूसरे प्राणी के प्राण नहीं लेने के लिए प्रेरणा देती है। इसलिए निरामिष आहार केवल भोजन विज्ञान ही नहीं, बल्कि मानव विज्ञान और संस्कृति विज्ञान बन गया है।
जहां एक ओर मानव में क्रूरता का भाव है वहां अपरिमित करुणा की भावनाएं भी हैं। वह विकृत होकर करुणा की प्रतिमूर्ति बन सकता है। आहार जीवन के लिए आवश्यक है, किंतु कैसा भी आहार ग्रहण कर, मृत्युंजयी नहीं बन सकते। हममें ऐसे भी कुछ तत्व हैं जो शाश्वत, चिरंतन और सनातन हैं, जिसे आत्मतत्व कहा गया है। यह आत्मतत्व हमारे आहार पर आधारित नहीं है, फिर भी यह हम पर निर्भर है कि हम किस प्रकार का आहार खाएं। यदि हम विश्व के समस्त प्राणियों की एकता के विचार को स्वीकार करें तो हमें यह मानना होगा कि जैसे हमें जीने का अधिकार है उसी प्रकार अन्य प्राणियों को भी जीने का प्राकृतिक अधिकार है। तत्वमसि एवं अहं ब्रह्मासि के सिद्धांत के अनुसार ब्रह्म एवं जीव की पूर्ण एकता है(लाजपत राय सभरवाल,नई दुनिया,दिल्ली,26.6.11)।
शाकाहार को समर्पित एक ब्लॉग का लिंक यहां है।
शाकाहार पर वीकिपीडिया का आलेख भी काबिले गौर है।
शाकाहार सबसे उत्तम आहार है, भोजन के बारे में तो ये कहा गया है, जैसा खाओगे वैसा, ही खुद भी बन जाओगे।
जवाब देंहटाएंआपका दिया लिंक भी जोरदार है
जवाब देंहटाएंआभार।
जवाब देंहटाएं---------
विलुप्त हो जाएगा इंसान?
ब्लॉग-मैन हैं पाबला जी...
हम तो पूर्णतया शाकाहारी हैं । लेकिन यह भी समझ आता है कि यदि सभी शाकाहारी हो जाएँ तो शायद पृथ्वी पर संतुलन बिगड़ जायेगा ।
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छा लिखा है ... और लिंक भी बहुत अच्छा है ...
जवाब देंहटाएंसभरवाल जी का एक सार्थक आलेख!!
जवाब देंहटाएंइस प्रस्तुति के लिए आभार कुमार राधारमण जी,
साथ ही निरामिष का लिंक देने के लिए भी आभार!!
abhaar ! uprokt post hetu.......
जवाब देंहटाएंहमें पशु पक्षी इसलिए नहीं खाना चाहिए इनमें भी जीवन होता है और हमें किसी जीवन का नष्ट करने का अधिकार नहीं मिला लोगों को सोचना चाहिए कि जिसमें खून बहता है वह चीज ना खाएं अमजद खान एनिमल्स सेव
जवाब देंहटाएं