बुधवार, 15 जून 2011

बिन टीके मरते बच्चे

कई अग्रणी दवा कंपनियों ने ऐलान किया है कि वह विकासशील देशों को आपूर्ति किए जाने वाले टीकों की कीमतों में भारी कटौती करने वाली हैं। ग्लैक्सोस्मिथक्लाइन, मर्क, जॉनसन ऐंड जॉनसन और सनोफी-एवेंतिस आदि कई कंपनियों ने अंतरराष्ट्रीय टीकाकरण के लिए चलाए जा रहे कार्यक्रम जीएवीआई यानी गावी के माध्यम से इस कदम को उठाने का निर्णय लिया है। यह सार्वजनिक एवं निजी क्षेत्र के संगठनों के बीच की ऐसी पार्टनरशिप है जो विकासशील देशों में जनटीकाकरण कार्यक्रम को बढ़ावा देती हैं। याद रहे गावी वही नेटवर्क है जो खरबपति बिल गेट्स के चैरिटी कार्यक्रम का अहम हिस्सा है। जीएसके ने बताया कि वह रोटावायरस के लिए आवश्यक टीकों की कीमतों में 67 फीसदी की कमी करेगी। जानकार बताते हैं कि रोटावायरस से उपजे दस्त के चलते हर साल दुनिया भर में पांच लाख बच्चे काल कवलित होते हैं। कहा जा रहा है कि विकासशील देशों को दी जा रही सब्सिडी को विकासित देशों को आपूर्ति किए जाने वाली कीमतों से वसूली जाएगी। यह भी कहा जा रहा है कि जीएसके नामक अग्रणी कंपनी दुनिया का पहला मलेरियारोधी टीका जल्द ही बाजार में लाने वाली है। चूंकि विकसित देशों से इस बीमारी को समाप्त किया जा चुका है जिस वजह से क्रॉस सब्सिडी मुमकिन नहीं दिखती है। इस वजह से कंपनी ने तय किया है कि वह मामूली मुनाफे के साथ इस टीके को बेचेगी। इस बात को मद्देनजर रखते हुए कि हर साल दुनिया भर में लाखों बच्चे जीवनोपयोगी टीकों के अभाव में आज भी मर रहे हैं। इन टीकों की कीमतों में की जा रही कटौती निश्चित ही स्वागतयोग्य हैं। उम्मीद की जा सकती है कि बहुउद्देशीय कंपनियों का यह कदम तमाम मासूमों की जिंदगियों को बचाने में कारगर होगा, लेकिन यह सवाल उठाना आवश्यक है कि दवाओं के उद्योग से हर साल बिलियन डॉलर का मुनाफा कमाती इन बहुउद्देशीय कंपनियों को ऐसा कदम उठाने की जरूरत ही क्यों महसूस हुई? क्या शेयरधारकों की बैठक में उन्हें मजबूर किया गया कि वह भले कम मुनाफा कमाएं मगर बच्चों की जान अवश्य बचा लें। क्या कारपोरेट सम्राटों में अचानक चैरिटी की भावना जाग गई है जिसके चलते उन्होंने अपने अपने हिस्से में आ रहे मुनाफे को त्यागने का निर्णय लिया। दरअसल ऐसी कोई बात नहीं है। यह शुद्ध बाजार का तर्क है कि उन्हें यह कदम उठाने के लिए मजबूर होना पड़ा। दुनिया के विभिन्न देशों में टीकों का बाजार आज तेजी से बढ़ रहा है जहां मुनाफे की भी गारंटी रहती है। इसके चलते आज कई अन्य बड़ी कंपनियां जो अब तक इसके निर्माण से दूर रही हैं वह भी इसमें कूद रही हैं। पिछले दिनों खबर आई थी कि प्रख्यात बहुउद्देशीय कंपनी जॉनसन ऐंड जॉनसन भी टीकों के निर्माण के उद्योग में उतर रही है। स्वाभाविक है अगर कंपनियों को बाजार में टिकना है तो उन्हें मुनाफे की दर कम करके कीमतें कम करनी ही पड़ेंगी। दूसरा अहम पहलू यह है कि हाल ही में संयुक्त राष्ट्रसंघ से संबद्ध यूनिसेफ जिसे विश्व में जीवनोपयोगी टीकों का सबसे बड़ा खरीदार समझा जाता है। यूनिसेफ ने पहली बार उस धनराशि का उद्घाटन किया जो उसने पिछले एक दशक में इन दवा निर्माता कंपनियों को उन सोलह टीकों के लिए दी है जो उसके विभिन्न कार्यक्रमों में इस्तेमाल होते हैं। ये सभी ऐसे टीके हैं जो बेहद जीवनोपयोगीसमझे जाते हैं। यूनिसेफ द्वारा अपनी वेबसाइट इस राशि को उजागर किए जाने का साफ मकसद था कि समूचे सौदे में अधिक से अधिक पारदर्शिता लाई जाए ताकि भविष्य में दवानिर्माता कंपनियों को अपनी कीमतें कम करने के लिए मजबूर होना पड़े और वह उसी राशि में अधिक बच्चों का टीकाकरण कर सके ताकि अधिक मासूम जिंदगियों की रक्षा हो सके। उदाहरण के लिए उसने पाया कि पश्चिमी दवा कंपनियां उन्हीं टीकों के लिए यूनिसेफ से दोगुनी कीमतें लेती हैं जबकि भारत एवं इंडोनेशिया की कंपनियां आधे दाम लेती हैं। यह भी जानने योग्य है कि नोवार्टिस, मर्क ऐंड कंपनी जैसी बहुउद्देशीय कंपनियों ने अपने स्तर पर कभी उन दामों को उजागर नहीं किया था जो वह यूनिसेफ से वसूलती रही हैं। यूनिसेफ की तरफ से पारदर्शिता बनाए रखने के लिए उठाए गए कदमों के साथ ही यह कयास भी लगाए जा रहे थे कि बड़ी-बड़ी कंपनियां भी दामों को घटाने के लिए मजबूर होंगी। इस बात को आसानी से देखा जा सकता है कि जब तक मुमकिन था तब तक दवा कंपनियों ने भरसक दामों को उंचा बनाए रखा। मुख्य दवा बाजार में आ रहे ठहराव की पृष्ठभूमि में टीकों के बाजार के लगातार बढ़ते मुनाफे को कंपनियों ने बटोरने में संकोच नहीं किया भले मुनाफे की दर थोड़ी कम थी और अब जबकि दबाव पड़ रहा है तब वे मानवीय नजर आने की कोशिश में हैं। इसे संयोग ही कहेंगे कि यूनिसेफ की इस रिपोर्ट के प्रकाशन होने के चंद दिनों पहले भारत में टीकाकरण के विपरीत प्रभावों के चलते होने वाली मौतों की संख्या में अचानक आए उछाल के बारे में सूचना के अधिकार के तहत हासिल जानकारी सामने आई थी। अगर बारीकी में देखें तो इसके पीछे भी टीकों के निर्माण में लगी सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों में उत्पादन को बंद कर इसे निजी कंपनियों को सौंपने की नीति दिखती है। जीवनोपयोगी टीकों का सवाल किस तरह आज बड़ी-बड़ी कारपोरेट ताकतों के लिए मुनाफे की लूट का चरागाह बना है इसे अब अच्छी तरह समझा जा सकता है। बच्चों की मौतों में आए उछाल का यही वह समय है जब कसौली, कुनूर और चेन्नई स्थित सार्वजनिक क्षेत्र की तीन प्रमुख कंपनियों को यह कहते हुए बंद किया गया कि वह कथित तौर पर विश्व स्वास्थ्य संगठन के दिशानिर्देशों का पालन नहीं करती हैं। इसमें सेंट्रल रिसर्च इंस्टिीट्यूट-कसौली, पॉस्चर इंस्टिीट्यूट ऑफ इंडिया-कूनूर और साठ साल पुरानी बीसीजी वैक्सीन लैबोरेटरी-चेन्नई। जनवरी 2008 में बंद किए गए इन कंपनियों के चलते जीवनोपयोगी टीकों में जबरदस्त कमी आई जो टीकाकरण कार्यक्रम के लिए बेहद जरूरी थे। गौरतलब है कि जीवनोपयोगी टीकों का का बड़ा हिस्सा इन्हीं कंपनियों से प्राप्त होता था, लेकिन अचानक इन्हें बंद किए जाने के बाद निजी कंपनियों एवं विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा आपूर्ति किए गए टीके ही एकमात्र सहारा थे। हालांकि इन कंपनियों को अचानक बंद किए जाने को लेकर काफी हंगामा हुआ था और तत्कालीन स्वास्थ्य मंत्री पर निजी कंपनियों को फायदा पहुंचाने के आरोप भी लगे थे। स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय द्वारा दी गई सूचना के मुताबिक वर्ष 2008 से टीकाकरण के विपरीत प्रभावों के चलते होने वाली मौतों में अचानक उछाल आया है। सूचना के अधिकार के तहत मांगी गई जानकारी के मुताबिक केरल में वर्ष 2001 से 2007 के बीच 136 बच्चों की मौत हुई। आंकड़ों के मुताबिक वर्ष 2001 में भारत में टीकाकरण के विपरीत प्रभाव के चलते एक भी मौत नहीं हुई थी, जबकि वर्ष 2010 में यह संख्या 128 तक पहुंच गई। इससे स्थिति का अनुमान लगाया जा सकता है(सुभाष गाताडे,दैनिक जागरण,13.6.11)।

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