व्याकरण के सभी नियमों और शब्दार्थों से अनजान, दीन-दुनिया से बेखबर जब कोई बच्चा लोरी के रूप में मां के कंठ से निकली दिल की आवाज सुनता है तो सो ही जाता है। इन शब्दों का मतलब भले ही उसे न पता हो, लेकिन फिर भी वह मां के भावों को समझ लेता है और उसका दिल रखने के लिए लोरी की उंगली थामकर नींद के रास्ते पर चल पड़ता है। लोरी की शुरुआत कब और कहां हुई, यह अलग अध्ययन का विषय हो सकता है, इसके नतीजे भी कई हो सकते हैं, लेकिन इसकी शुरुआत क्यों हुई इस पर कोई दोराय नहीं है। सभी विद्वान एक सुर में इसके पक्ष में खड़े होते हैं। लोरी सुनने वाले बच्चे को कम से कम इस दुनिया की तो कोई भी भाषा नहीं आती, लेकिन फिर भी वह मां के इन "प्रेम-गीतों" का अर्थ बखुबी समझ जाता है। तभी तो सो जाता है। शायद यहीं से शुरू होता है लोरी का सफर।
कई प्रयोगों में पाया गया है कि जब बच्चा मां के गर्भ में होता है, तभी से मां की आवाज को समझने-पहचानने लगता है। इसी तरह, उस पर गीत-संगीत का भी प्रभाव पड़ता है। इससे उसके मस्तिष्क का तेजी से विकास होता है। लोरी के संबंध में भी बच्चों पर ऐसा ही सकारात्मक प्रभाव होता है। जहां छोटे बच्चे लोरी के संगीत का आनंद लेते हैं, वहीं कुछ बड़े बच्चे मां की इन शुभकामना रूपी लोरियों के अर्थ से भी निंद्रालोक की कल्पना करने लगते हैं। वैज्ञानिक भी मानते हैं कि इससे उनके मस्तिष्क की सोचने-समझने की क्षमता अपेक्षाकृत तेजी से बढ़ने लगती है। लोरी में आई परियों की रानी, नींद की राजकुमारी, सपनों का उड़नखटोला और इंद्रधनुष का झूला आदि जहां एक ओर बच्चों को जल्दी सोने के लिए उकसाते हैं, वहीं दूसरी ओर उनके दिमाग की कल्पनाशीलता को तेज करते हैं। ऐसी ही कल्पनाशीलता आगे चलकर बड़े-बड़े आविष्कारों, कलाकृतियों और साहित्यिक रचनाओं की आधारशिला साबित होती है।
हर तरह के नियमों-कानूनों से आजाद इन लोरियों में मां अपने बच्चे के लिए हमेशा ही स्वर्ग का आनंद खोजने की कोशिश करती रही है। इन लोरियों की एक सबसे बड़ी खासियत यह भी रही है कि इनके लिए न तो मां को किसी तरह का कोई रियाज करना पड़ा और न ही उसे कभी कहीं से कोई प्रशिक्षण लेना पड़ा। ये तो मां के वे लयबद्ध सुरीले भाव रहे हैं जो बच्चे को कंठ की नहीं, दिल की आवाज सुनाते हैं। गांव-कस्बे से लेकर देश-विदेश तक में किसी न किसी रूप में लोरी की परंपरा रही है। भाषा, शब्द और उनका अर्थ भले ही अलग-अलग रहा हो, लेकिन मां के दिल से निकले भाव सभी में एक से रहे हैं। पर अब ऐसा नहीं रहा। आधुनिक हो-हल्ले के बीच लोरी के बोल ऐसे दबे की फिर न उठ सके। रही-सही कसर संयुक्त परिवारों के टूटने-चटखने की "तीखी गूंज" ने पूरी कर दी। शहरी संस्कृति में जी रही आजकल की नौकरी-पेशे वाली मांओं के पास जब अपने बच्चे को ठीक से दूध पिलाने तक का भी समय न मिल पाता हो, तो वे उसे लोरी ही क्या सुनाएंगी? वैसे भी लोरी के नाम पर आजकल की मांओं को केवल फिल्मी गीत ही गुनगुनाने आते हैं। जिनमें शब्द और सुर-ताल तो सुनाई देते हैं, पर ममत्व कहीं भी दिखाई नहीं देता। ऐसे माहौल में लोरी तो शांत हो गई, लेकिन बचपन असंतुष्ट और अशांत रह गया।
लोरी का बच्चे के मन-मस्तिष्क पर क्या प्रभाव पड़ता है इस विषय पर और गहन शोध किया जा सकता है, लेकिन लोरी के दौरान जिस कारण बच्चा मां की गोद में सोने लगता है उसके पीछे और भी कई चीजों की खास भूमिका होती है। लोरी गुनगुनाते समय बच्चे के शरीर पर हल्की-हल्की थपकी और एक लयबद्ध तरीके से बच्चे को झुलाना भी उसे सुलाने में बहुत मददगार साबित होते हैं। ये सभी चीजें बच्चे की "जाग" के खिलाफ एक तरह से नींद की नाकेबंदी होती हैं। इसमें बच्चे को इस तरह से "घेरा" जाता है कि वह बेचारा दुनिया से हटकर नींद के आगोश में चला जाता है। लोरी की आवाज के बीच उसका ध्यान आस-पास की आवाजों से हटने लगता है। इसी तरह, बच्चे को बार-बार इधर-उधर झुलाते रहने से उसकी नजर किसी भी चीज पर नहीं टिक पाती। अगर वह इसके लिए कोशिश करता भी है तो कुछ ही देर में उसकी आंखें थककर बोझिल-सी होने लगती हैं। ऐसे में उसे न चाहकर भी थकान के कारण अपनी आंखें बंद करनी पड़ जाती हैं। बच्चे को सुलाने के लिए झुलाना एक तरह से दाएं-बाएं दोलन कर रही सम्मोहित करने वाली "गेंद" या "छल्ले" की तरह हो जाता है। जिसमें आंखों का यहां-वहां घूमना कुछ देर बाद सम्मोहन की नींद में पहुंचा देता है।
इसके अलावा, बाकी बचा हुआ काम बच्चे को हल्के हाथों से थप-थपाने से पूरा हो जाता है। इस तरह से थप-थपाने के पीछे असली मकसद यही होता है कि बच्चे का सारा ध्यान लगातार लोरी व सोने पर ही केंद्रीत रहे और उसके हाथ-पांव हिलाने पर भी न जाए। कुल मिलाकर, लोरी और उसकी इन लयबद्ध सहायक क्रियाओं का मुख्य उद्देश्य बच्चे का सारा ध्यान समेटकर नींद की ओर लगाना होता है। ऐसा करने पर बच्चे का नन्हा-सा मस्तिष्क दुनियादारी से कटकर खुद को "बोर" महसूस करने लगता है और थक-हारकर सोने में ही अपनी भलाई समझता है। यही वजह है कि लोरी और इन क्रियाओं के कारण कुछ ही देर बाद बच्चे को उबासी आने लगती है और वह आखिर में नींद का दामन थाम लेता है। यह भी मानव मस्तिष्क की एक खूबी होती है कि जब उसे किसी चीज की आदत पड़ जाती है तो आगे चलकर इसके संकेत मात्र से ही शरीर भी अपनी प्रतिक्रिया दिखाने लगता है। इसी तरह, जब बच्चा बड़ा होने लगता है तो उस पर लोरी या नींद की इस "घेराबंदी" का असर कम होने लगता है, क्योंकि बढ़ता हुआ बच्चा अपने आस-पास के वातावरण के प्रति और ज्यादा सजग होने लगता है(राजीव शर्मा,नई दुनिया,दिल्ली,7.4.11)।
लोरी का बच्चे के मन-मस्तिष्क पर क्या प्रभाव पड़ता है इस विषय पर और गहन शोध किया जा सकता है, लेकिन लोरी के दौरान जिस कारण बच्चा मां की गोद में सोने लगता है उसके पीछे और भी कई चीजों की खास भूमिका होती है। लोरी गुनगुनाते समय बच्चे के शरीर पर हल्की-हल्की थपकी और एक लयबद्ध तरीके से बच्चे को झुलाना भी उसे सुलाने में बहुत मददगार साबित होते हैं। ये सभी चीजें बच्चे की "जाग" के खिलाफ एक तरह से नींद की नाकेबंदी होती हैं। इसमें बच्चे को इस तरह से "घेरा" जाता है कि वह बेचारा दुनिया से हटकर नींद के आगोश में चला जाता है। लोरी की आवाज के बीच उसका ध्यान आस-पास की आवाजों से हटने लगता है। इसी तरह, बच्चे को बार-बार इधर-उधर झुलाते रहने से उसकी नजर किसी भी चीज पर नहीं टिक पाती। अगर वह इसके लिए कोशिश करता भी है तो कुछ ही देर में उसकी आंखें थककर बोझिल-सी होने लगती हैं। ऐसे में उसे न चाहकर भी थकान के कारण अपनी आंखें बंद करनी पड़ जाती हैं। बच्चे को सुलाने के लिए झुलाना एक तरह से दाएं-बाएं दोलन कर रही सम्मोहित करने वाली "गेंद" या "छल्ले" की तरह हो जाता है। जिसमें आंखों का यहां-वहां घूमना कुछ देर बाद सम्मोहन की नींद में पहुंचा देता है।
इसके अलावा, बाकी बचा हुआ काम बच्चे को हल्के हाथों से थप-थपाने से पूरा हो जाता है। इस तरह से थप-थपाने के पीछे असली मकसद यही होता है कि बच्चे का सारा ध्यान लगातार लोरी व सोने पर ही केंद्रीत रहे और उसके हाथ-पांव हिलाने पर भी न जाए। कुल मिलाकर, लोरी और उसकी इन लयबद्ध सहायक क्रियाओं का मुख्य उद्देश्य बच्चे का सारा ध्यान समेटकर नींद की ओर लगाना होता है। ऐसा करने पर बच्चे का नन्हा-सा मस्तिष्क दुनियादारी से कटकर खुद को "बोर" महसूस करने लगता है और थक-हारकर सोने में ही अपनी भलाई समझता है। यही वजह है कि लोरी और इन क्रियाओं के कारण कुछ ही देर बाद बच्चे को उबासी आने लगती है और वह आखिर में नींद का दामन थाम लेता है। यह भी मानव मस्तिष्क की एक खूबी होती है कि जब उसे किसी चीज की आदत पड़ जाती है तो आगे चलकर इसके संकेत मात्र से ही शरीर भी अपनी प्रतिक्रिया दिखाने लगता है। इसी तरह, जब बच्चा बड़ा होने लगता है तो उस पर लोरी या नींद की इस "घेराबंदी" का असर कम होने लगता है, क्योंकि बढ़ता हुआ बच्चा अपने आस-पास के वातावरण के प्रति और ज्यादा सजग होने लगता है(राजीव शर्मा,नई दुनिया,दिल्ली,7.4.11)।
वाह! बहुत अच्छा लगा यह जानना। बहुत ही मनोवैज्ञानिक ढ़ंग से बात समझाई है आपने।
जवाब देंहटाएंsunder post...achchi jankari...
जवाब देंहटाएंयह नई चीज है...
जवाब देंहटाएंनायाब जानकारी!! मगर आज जब आपकी सबसे ज़्यादा ज़रूरत थी तो आप लापता हो गए. मेरी पोस्ट पढ़िए,टिप्पणी के लिए नहीं.. सलाह के लिए!!
जवाब देंहटाएंसार्थक पोस्ट..
जवाब देंहटाएंलोरी के बारे में अच्छी जानकारी मिली। मेरी नातिन है, उसके लिए मैंने एक लोरी बनाई। अब गाना आता नहीं, लेकिन टूटी-फूटी आवाज में रिकोर्ड कर दिया। अब हाल यह हैं कि उसे वही लोरी चाहिए। आपकी बात सही है कि बच्चा दिल से निकली आवाज को पसन्द करता है।
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