पिछले दिनों उत्तर प्रदेश में केंद्र सरकार के क्लीनिकल इस्टेब्लिशमेंट कानून को स्वीकार कर लिया गया। केंद्र सरकार द्वारा बनाए गए इस कानून में नर्सिग होम और निजी अस्पतालों की जवाबदेही तय करने के लिए कई प्रावधान किए गए हैं। इस कानून के अंतर्गत मरीजों के हितों का ध्यान भी रखा गया है। यह कटु सत्य है कि इस दौर में चिकित्सा का संवेदनशील पेशा संवेदनहीनता का शिकार हो गया है। यही कारण है कि आज मरीजों को अनेक स्तरों पर शोषण का शिकार होना पड़ रहा है। कुछ अरसा पहले नवी मुंबई स्थित एक निजी अस्पताल के डॉक्टर को आइसीयू में भर्ती एक महिला रोगी से बलात्कार किए जाने के आरोप में गिरफ्तार किया गया। अगर किसी महिला रोगी से आइसीयू जैसी जगह पर भी बलात्कार किया जाता है तो इससे ज्यादा शर्म की बात और कोई नहीं हो सकती। यह दुर्भाग्यपूर्ण ही है कि इस दौर में कभी कोई डॉक्टर अंगों की तस्करी में लिप्त पाया जाता है तो कभी यौन शोषण का दोषी। एक तरफ डॉक्टरों द्वारा मरीजों को अनावश्यक दवाओं का सेवन कराया जाता है तो दूसरी तरफ धन के अभाव में गरीब मरीजों को अस्पताल से भगा दिया जाता है। दरअसल, चिकित्सा का क्षेत्र केवल व्यवसाय या एक पेशा भर नहीं है, बल्कि यह समाज सेवा का एक ऐसा मंच है, जहां बैठकर आप दीन-दुखियों के दुख-दर्द दूर कर समाज में वास्तविक रूप से खुशियां बांट सकते हैं। लेकिन विडंबना यह है कि आज धन के लालच में मरीजों के विश्वास के साथ छल किया जा रहा है। विभिन्न रूपों में डॉक्टरों के अंदर से संवेदना के खत्म होने का असर इस समाज पर पड़ रहा है। कई बार हमें स्वयं ऐसे अनुभवों से गुजरना पड़ता है। व्यावसायिकता के इस दौर में डॉक्टर रूपी भगवान भी व्यवसायी हो गए हैं। इस दूसरे भगवान पर भी जमकर चढ़ावा चढ़ता है। दवाओं की विभिन्न कंपनियां कीमती से कीमती चढ़ावा चढ़ाकर इस
भगवान का आशीर्वाद लेने की होड़ में रहती हैं। ऐसे में यह भगवान अपने भक्तों को मायूस कैसे कर सकता है? यहां से शुरू होता है होड़ का एक नया शास्त्र। भगवान चढ़ावे के बदले अपने हर भक्त को खुश करना चाहता है। इसलिए भगवान का हर पर्चा दवा रूपी अमृत से भरा रहता है। इस व्यवस्था में भगवान और भक्त दोनों तृप्त रहते हैं, लेकिन आम जनता को शोषण का शिकार होना पड़ता है। स्पष्ट है कि बाजार की शक्तियां अपने हित के लिए मानवीय हितों की आड़ में मानवीय मूल्यों को ही तरजीह नहीं देती हैं। ऐसे में संवेदना खोने का दुख किसे होगा? आज यह किसी से छिपा नहीं है कि दवा कंपनियां अपनी दवाएं लिखवाने के लिए डॉक्टरों को महंगे-महंगे उपहार देती हैं। इसलिए डॉक्टर इन कंपनियों की दवाएं बिकवाने की जी-तोड़ कोशिश करते हैं। हद तो तब हो जाती है, जब कुछ डॉक्टर अनावश्यक दवाएं लिखकर दवा कंपनियों को दिया वचन निभाते हैं। इस व्यवस्था में डॉक्टर के लिए दवा कंपनियों का हित रोगी के हित से ऊपर हो जाता है। एक समय था, जब डॉक्टर-वैद्य से मिलकर ही आधी बीमारी दूर हो जाती थी। दरअसल, मरीजों के प्रति उनका व्यवहार बड़ा दोस्ताना और नि:स्वार्थ हो जाता था। आज डॉक्टर का नाम लेते ही डर लगने लगता है। इस दौर में स्वयं डॉक्टर भी ऐसा वातावरण बनाते हैं, जिससे रोगी के मन में अपनी बीमारी को लेकर डर बैठ जाए और वह डॉक्टर पर सब कुछ लुटाने के लिए तैयार हो जाए। हालांकि इस दौर में भी अनेक डॉक्टर इस पेशे की गरिमा को बचाए हुए हैं। दरअसल, हमारी पीढ़ी बाजार के हाथों इस कदर बिक गई है कि न्यूनतम मानवीय मूल्य भी जिंदा नहीं रह पाए। इस बाजार आधारित व्यवस्था में हमारी संवेदना भी बाजारू हो गई। यह कटु सत्य है कि बाजार के प्रभाव ने हर क्षेत्र में दलाल नामक जीव पैदा किए हैं। ऐसे में डॉक्टरी का पेशा भी दलाली से मुक्त कैसे रह सकता था। सो, कई डॉक्टर भी पेशेवर दलाल बन गए। डॉक्टरों को मरीजों के परीक्षण कराने के लिए भी परीक्षण केंद्रों द्वारा कमीशन दिया जाने लगा। इसी व्यवस्था के अनुरूप मरीजों के अनावश्यक परीक्षण कराए जाने लगे। अगर आपने डॉक्टर की इच्छा के विरुद्ध किसी और स्थान पर परीक्षण करा लिया तो डॉक्टर की ओर से वह सब गलत बता दिया जाता है। दरअसल, दलाली के इस युग में संवेदना के लिए कोई जगह नहीं है। इसलिए अगर यह पेशा संवेदना खो रहा है तो इस पर आश्चर्य कैसा!(रोहित कौशिक,दैनिक जागरण,राष्ट्रीय संस्करण,16.3.11)
भगवान का आशीर्वाद लेने की होड़ में रहती हैं। ऐसे में यह भगवान अपने भक्तों को मायूस कैसे कर सकता है? यहां से शुरू होता है होड़ का एक नया शास्त्र। भगवान चढ़ावे के बदले अपने हर भक्त को खुश करना चाहता है। इसलिए भगवान का हर पर्चा दवा रूपी अमृत से भरा रहता है। इस व्यवस्था में भगवान और भक्त दोनों तृप्त रहते हैं, लेकिन आम जनता को शोषण का शिकार होना पड़ता है। स्पष्ट है कि बाजार की शक्तियां अपने हित के लिए मानवीय हितों की आड़ में मानवीय मूल्यों को ही तरजीह नहीं देती हैं। ऐसे में संवेदना खोने का दुख किसे होगा? आज यह किसी से छिपा नहीं है कि दवा कंपनियां अपनी दवाएं लिखवाने के लिए डॉक्टरों को महंगे-महंगे उपहार देती हैं। इसलिए डॉक्टर इन कंपनियों की दवाएं बिकवाने की जी-तोड़ कोशिश करते हैं। हद तो तब हो जाती है, जब कुछ डॉक्टर अनावश्यक दवाएं लिखकर दवा कंपनियों को दिया वचन निभाते हैं। इस व्यवस्था में डॉक्टर के लिए दवा कंपनियों का हित रोगी के हित से ऊपर हो जाता है। एक समय था, जब डॉक्टर-वैद्य से मिलकर ही आधी बीमारी दूर हो जाती थी। दरअसल, मरीजों के प्रति उनका व्यवहार बड़ा दोस्ताना और नि:स्वार्थ हो जाता था। आज डॉक्टर का नाम लेते ही डर लगने लगता है। इस दौर में स्वयं डॉक्टर भी ऐसा वातावरण बनाते हैं, जिससे रोगी के मन में अपनी बीमारी को लेकर डर बैठ जाए और वह डॉक्टर पर सब कुछ लुटाने के लिए तैयार हो जाए। हालांकि इस दौर में भी अनेक डॉक्टर इस पेशे की गरिमा को बचाए हुए हैं। दरअसल, हमारी पीढ़ी बाजार के हाथों इस कदर बिक गई है कि न्यूनतम मानवीय मूल्य भी जिंदा नहीं रह पाए। इस बाजार आधारित व्यवस्था में हमारी संवेदना भी बाजारू हो गई। यह कटु सत्य है कि बाजार के प्रभाव ने हर क्षेत्र में दलाल नामक जीव पैदा किए हैं। ऐसे में डॉक्टरी का पेशा भी दलाली से मुक्त कैसे रह सकता था। सो, कई डॉक्टर भी पेशेवर दलाल बन गए। डॉक्टरों को मरीजों के परीक्षण कराने के लिए भी परीक्षण केंद्रों द्वारा कमीशन दिया जाने लगा। इसी व्यवस्था के अनुरूप मरीजों के अनावश्यक परीक्षण कराए जाने लगे। अगर आपने डॉक्टर की इच्छा के विरुद्ध किसी और स्थान पर परीक्षण करा लिया तो डॉक्टर की ओर से वह सब गलत बता दिया जाता है। दरअसल, दलाली के इस युग में संवेदना के लिए कोई जगह नहीं है। इसलिए अगर यह पेशा संवेदना खो रहा है तो इस पर आश्चर्य कैसा!(रोहित कौशिक,दैनिक जागरण,राष्ट्रीय संस्करण,16.3.11)
बिल्कुल सही कहा, इस पर आश्चर्य कैसा?
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