४२ वर्षीय सीनियर एक्जीक्यूटिव शांतनु शर्मा एक सॉफ्टवेयर कंपनी में काम करते हैं। उन्हें आज तक कोई नेत्र समस्या नहीं हुई। लेकिन पिछले कुछ समय से वे अपनी बाईं आँख में कुछ धुँधलापन महसूस कर रहे थे। उनके काम में बहुत पढ़ना और काफी देर कम्प्यूटर पर काम करना पड़ता है। इस वजह से उनके लिए ऑफिस में काम पर ध्यान देना मुश्किल हो रहा था। पिछले ३-४ महीनों से उन्हें यह समस्या पेश आ रही थी। उन्होंने सोचा कि यह छोटी-मोटी दिक्कत होगी जो कुछ दिनों में खुद ब खुद दूर हो जाएगी। लेकिन जब कुछ फर्क नहीं पड़ा जो शांतनु ने डॉक्टर को दिखाने का इरादा किया। नेत्र विशेषज्ञ ने जाँच करके बताया कि उनकी बार्ईं आँख में कैटरैक्ट यानी मोतियाबिंद उतर आया है।
मोतियाबिंद आँख के कुदरती लेंस के प्रोटीन में बाधा देते हुए दृष्टि को धुँधला बना रहा था। अगर समय पर इलाज न किया जाए या अनदेखी हो तो मोतियाबिंद अंधेपन का कारण बन सकता है। हालाँकि यह समस्या अधिकतर उम्रदराज लोगों में देखने को मिलती है, लेकिन कम उम्र के काफी लोगों को भी यह दिक्कत झेलनी पड़ती है। अन्य कारकों में शामिल हैं धूप में बहुत देर रहना, मधुमेह, कुपोषण आदि। कम उम्र में होने को प्रिसिनाइल कहते हैं और पिछले कुछ सालों में कम उम्र के लोगों में मोतियाबिंद के मामले बढ़े हैं। उम्र संबंधी मोतियाबिंद के अलावा अन्य किस्म के मोतियाबिंद भी होते हैं जिनमें शामिल हैं- सेकंडरी कैटरेक्ट, मेटाबॉलिक कैटरेक्ट, मेटाबॉलिक कैटरेक्ट, ट्रामैटिक कैटरेक्ट, पैदाइशी मोतियाबिंद व विकिरण मोतियाबिंद।
कम उम्र में मोतियाबिंद के जोखिम
बढ़ता प्रदूषण और पर्यावरण में ऑक्सीडेंट का शामिल होना मोतियाबिंद के विकसित होने में अहम भूमिका निभाते हैं। ताजा फल व सब्जियाँ हमारी एंटीऑक्सीडेंट सुरक्षा को मजबूत करते हैं और कोशिकाओं की झिल्ली को लीक होने से बचाते हैं। पोषण की कमी की वजह से प्रिसिनाइल मोतियाबिंद पनप सकता है। मोतियाबिंद उन लोगों में भी विकसित हो सकता है जिन्हें मधुमेह जैसी कोई स्वास्थ्य समस्या हो। भारत में मधुमेह के मरीज बहुत तेजी से बढ़ते जा रहे हैं यह वजह कम उम्र के मोतियाबिंद रोगियों में इजाफा कर रही है। कुछ अन्य भी हैं जो मोतियाबिंद के जल्द विकसित होने में रोल निभाते हैं जैसे कि जलन, आँख को क्षति, दवाएँ विशेषकर कोर्टीसोन। अल्ट्रावॉयलेट किरणों या अन्य किस्म के रेडिएशन में अधिक देर रहने की वजह से भी मोतियाबिंद होता है,जैसे कि आर्क वेल्डिंग,विभिन्न लेजरों की श्रेणियां,एक्स-रे आदि। अध्ययन यह भी दर्शाते हैं कि बहुत देर तक धूप में रहने से कोर्टियल कैटरेक्ट का जोखिम दोगुना हो जाता है। अल्ट्रावायलेट से सुरक्षा देने वाले चश्मे पहनने चाहिए ताकि नुकसानदेह विकिरण से सीधे सम्पर्क न हो।
फोकस बहाल करने के विकल्प
क्षतिग्रस्त अपारदर्शी लेंस को हटाकर उसकी जगह इंट्राऑक्यूलर लेंस(आईओएल) मोनोफोकल आईओएल लगाकर दृष्टि को ठीक कर दिया जाता है। लेंस साफ छवि दिखाते हैं लेकिन बुरी बात यह है कि सिर्फ एक ही दूरी पर साफ दृष्टि प्रदान करती है दूर या दरमियानी या नज़दीक। मोनोफोकल आईओएल मरीज़ को दूरी से साफ देखने में मदद देते हैं लेकिन नज़दीक की चीज़ें देखने के लिए उन्हें चश्मे की ज़रूरत पड़ती है या फिर इसके उलट बात हो सकती है क्यों कि उनका फोकस एक ही बिंदु पर होता है। इसलिए,सर्जरी के बाद विशेष चश्मे प्रयोग किए जा सकते हैं।
क्रिस्टालेंस अकॉमोडेटिंग आईओएल इम्प्लांट मोतियाबिंद को ठीक करने के लिए एक अन्य विकल्प है। क्रिस्टालेंस एकमात्र अकॉमोडेटिंग लेंस है जो मानवीय प्राकृतिक लेंस को आँख से निकाल लेने के बाद लगाया जा सकता है। यह लेंस इन्सान के कुदरती लेंस की ही भांति दूर व नज़दीक की चीज़ों पर फोकस करने में सक्षम है। इसके साथ सर्जरी के बाद चश्मे की ज़रूरत नहीं रहती।
क्रिस्टालेंस नज़र को बेहतर करने के लिए डिजाईन किया गया है और इसमें सर्जरी के बाद चश्मे पर निर्भरता खत्म हो जाती है। यह कुदरती लेंस की तरह फोकस करता है। आँख की मांसपेशियों का इस्तेमाल करते हुए यह सभी दूरियों पर मौजूद चीजों पर फोकस करते हुए उन्हें स्पष्टता से दिखाता है लेकिन हर मरीज को
यह लेंस नहीं लगाया जा सकता। अगर आँख में पहले ही से मौजूद कोई समस्या है,तो उस मामले में रोगी को पारम्परिक कान्टैक्ट लेंस या मोतियाबिंद के चश्मे के साथ जीना पड़ेगा। छोटे बच्चों की भी सर्जरी नहीं हो सकती क्यों कि उनकी आंखें अभी विकसित हो रही होती हैं। वे जैसे-जैसे बढ़ते जाते हैं,उनकी आंखों का आकार व शक्ति बदल सकते हैं (डॉ. राजीव चौधरी,सेहत,नई दुनिया,फरवरी द्वितीयांक 2011)।
मोतियाबिंद ऑपरेशन में लेंस का चयन
आँख में फोकस करने वाले लेंस में सफेदी हो जाने को मोतियाबिंद कहा जाता है। इसके लक्षण धुँधला दिखना, प्रकाश फैलना, चश्मे के नंबर बढ़ना या, घटना, रात को सड़क पर गाड़ियों के प्रकाश से असुविधा इत्यादि हैं। मोतियाबिंद हो जाने पर ऑपरेशन द्वारा मरीज के लेंस को निकालकर आज के दौर में कृत्रिम लेंस फिट कर दिया जाता है। एक नज़र ऑपरेशन के प्रकारों पर-
बड़ा चीरा, बिना लेंस
कुछ वर्षों पहले प्रचलित प्रक्रिया में मरीज की आँख में बड़ा (१०-११ एमएम) चीरा लगाकर पूरा लेंस एक साथ निकाल दिया जाता है और चीरे को ५ से ८ टाँकों से बंद कर दिया जाता है। इस प्रक्रिया में कृत्रिम लेंस लगाने की सही जगह नहीं होने के कारण लेंस नहीं लगाया जाता है एवं मरीज़ को मोटा चश्मा दे दिया जाता है।
बड़ा चीरा : लेंस सहित
इस प्रक्रिया में मोतियाबिंद निकालते वक्त लैंस की एक महीन परत छोड़ दी जाती है जिस प कृत्रिम लेंस टिका दिया जाता है। लेंस के कारण ऑपरेशन के बाद मोटा चश्मा नहीं लगता है। इस प्रक्रिया को बिना टांके से करने की विधि को एसआईसीएस कहते हैं।
छोटा चीरा,लचीले लेंस
इस अत्याधुनिक प्रक्रिया में फेको मशीन द्वारा मोतियाबिंद को आँख के अंदर ही तोड़ दिया जाता है। महीन परत(कैप्सूल) पर लेंस टिका दिया जाता है। चीरा छोटा होने के कारण लेंस को फोल्ड करके डाला जाता है और मरीज़ की नज़र जल्दी ही साफ हो जाती है।
कृत्रिम लेंस और उनके प्रकार
आँख में कृत्रिम लेंस खास प्रकार के प्लास्टिक पदार्थ होते हैं। लेंस आँख के अंदर फिट हो जाने के बाद बाहर गढ़ता नहीं है और आमतौर पर आँख में अलग से दिखता नहीं है। छोटे चीरे से लेंस को आँख में फिट करने के लिए फोल्ड करके डालना पड़ता है। इसलिए,इन्हें लचीले पदार्थ से बनाया जाता है। ऑपरेशन के बाद मरीज को चश्मा दे दिया जाता है। जिस मरीज को लेंस नहीं लगा होता है,उन्हें काफी मोटे चश्मे देने पड़ते हैं। लेंस लगने के बाद साधारण नम्बर दिए जाते हैं। छोटे चीरे और फोल्डेबल लेंस के उपयोग से चश्मे के नम्बर नहीं के बराबर लाए जा सकते हैं। इनमें भी सिलीन्ड्रिकल नम्बर कम करने के लिए खास टोरिक लेंस उपलब्ध है। दूर और पास की वस्तु बिना चश्मे के एक साथ साफ देखने के लिए खास मल्टीफोकल एवं अकोमोडेटिव लेंस उपलब्ध हैं। ये लेंस महंगे होते हैं तथा खास तरह के मरीज़ों में ही लगाए जाते हैं।
ऑपरेशन का निर्णय कैसे लें
आमतौर पर मोतियाबिंद का ऑपरेशन अपनी दिनचर्या प्रभावित होने पर अपनी सुविधानुसार समय पर कराया जा सकता है। नेत्र विशेषज्ञ की सलाह से मोतियाबिंद के पकने के पहले ऑपरेशन कराना फायदेमंद होता है क्योंकि इसमें छोटे चीरे से मोतियाबिंद को तोड़ने में कम समस्या होती है। पुरानी बड़े चीरे वाली प्रक्रिया में मोतियाबिंद के पकने का इंतज़ार करना उचित होता था। कुछ अन्य समस्याओं जैसे पर्दे के रोग की जांच एवं इलाज़ के लिए मोतियाबिंद का शीघ्र ऑपरेशन कराने की सलाह नेत्र रोग विशेषज्ञ दे सकते हैं। लेंस के प्रकार एवं पदार्थ का चयन भी अपनी दिनचर्या की ज़रूरतें एवं नेत्र रोग < विशेषज्ञ की सलाह से लें। आज आधुनिक फेको तथा फोल्डेबल लेंस प्रक्रिया को उन मरीज़ो में भी इस्तेमाल किया जाता है जिनमें चश्मे उतारने वाले लेसिक लेजर ज्यादा नम्बर या किसी अन्य कारण से असुरक्षित हैं।
छोटे बच्चों व नवजात शिशुओं में मोतियाबिंद
मोतियाबिंद नवजात शिशुओं को भी प्रभावित कर सकता है जो कि गर्भकाल में किसी आनुवांशिक रोग या समस्या की वजह से हो सकता है। जिन बच्चों को किसी भी अन्य कारण से मोतियाबिंद होता है उसे भी जन्मजात मोतियाबिंद ही कहा जाता है। छोटे बच्चों या शिशुओं को अपनी माता से मोतियाबिंद होने का जोखिम रहता है जो रुबेला के संपर्क में आती है या चयापचयी संबंधी गड़बड़ी होती है जिसे गैलेक्टोसेमिया कहते हैं। लेकिन अच्छी बात यह है कि रुबेला का टीका विकसित होने की वजह से यह रोग उतना आम नहीं रहा। मोतियाबिंद जैसी नेत्र समस्या बच्चे के व्यक्तित्व, सीखने की क्षमता और यहाँ तक की उसकी दिखावट पर भी बुरा असर डालती है, यह असर उसकी सारी जिंदगी भर बना रहता है। इसलिए माता पिता को अपने बच्चे की सेहत पर पूरा ध्यान देना चाहिए और जैसे कि बच्चा पैदा हो सकती आँखों की जाँच करानी चाहिए तथा नियमित तौर पर उसका नेत्र परीक्षण कसना चाहिए (डॉ. प्रशांत भारतीय,सेहत,नई दुनिया,फरवरी द्वितीयांक 2011)।
यह लेंस नहीं लगाया जा सकता। अगर आँख में पहले ही से मौजूद कोई समस्या है,तो उस मामले में रोगी को पारम्परिक कान्टैक्ट लेंस या मोतियाबिंद के चश्मे के साथ जीना पड़ेगा। छोटे बच्चों की भी सर्जरी नहीं हो सकती क्यों कि उनकी आंखें अभी विकसित हो रही होती हैं। वे जैसे-जैसे बढ़ते जाते हैं,उनकी आंखों का आकार व शक्ति बदल सकते हैं (डॉ. राजीव चौधरी,सेहत,नई दुनिया,फरवरी द्वितीयांक 2011)।
मोतियाबिंद ऑपरेशन में लेंस का चयन
आँख में फोकस करने वाले लेंस में सफेदी हो जाने को मोतियाबिंद कहा जाता है। इसके लक्षण धुँधला दिखना, प्रकाश फैलना, चश्मे के नंबर बढ़ना या, घटना, रात को सड़क पर गाड़ियों के प्रकाश से असुविधा इत्यादि हैं। मोतियाबिंद हो जाने पर ऑपरेशन द्वारा मरीज के लेंस को निकालकर आज के दौर में कृत्रिम लेंस फिट कर दिया जाता है। एक नज़र ऑपरेशन के प्रकारों पर-
बड़ा चीरा, बिना लेंस
कुछ वर्षों पहले प्रचलित प्रक्रिया में मरीज की आँख में बड़ा (१०-११ एमएम) चीरा लगाकर पूरा लेंस एक साथ निकाल दिया जाता है और चीरे को ५ से ८ टाँकों से बंद कर दिया जाता है। इस प्रक्रिया में कृत्रिम लेंस लगाने की सही जगह नहीं होने के कारण लेंस नहीं लगाया जाता है एवं मरीज़ को मोटा चश्मा दे दिया जाता है।
बड़ा चीरा : लेंस सहित
इस प्रक्रिया में मोतियाबिंद निकालते वक्त लैंस की एक महीन परत छोड़ दी जाती है जिस प कृत्रिम लेंस टिका दिया जाता है। लेंस के कारण ऑपरेशन के बाद मोटा चश्मा नहीं लगता है। इस प्रक्रिया को बिना टांके से करने की विधि को एसआईसीएस कहते हैं।
छोटा चीरा,लचीले लेंस
इस अत्याधुनिक प्रक्रिया में फेको मशीन द्वारा मोतियाबिंद को आँख के अंदर ही तोड़ दिया जाता है। महीन परत(कैप्सूल) पर लेंस टिका दिया जाता है। चीरा छोटा होने के कारण लेंस को फोल्ड करके डाला जाता है और मरीज़ की नज़र जल्दी ही साफ हो जाती है।
कृत्रिम लेंस और उनके प्रकार
आँख में कृत्रिम लेंस खास प्रकार के प्लास्टिक पदार्थ होते हैं। लेंस आँख के अंदर फिट हो जाने के बाद बाहर गढ़ता नहीं है और आमतौर पर आँख में अलग से दिखता नहीं है। छोटे चीरे से लेंस को आँख में फिट करने के लिए फोल्ड करके डालना पड़ता है। इसलिए,इन्हें लचीले पदार्थ से बनाया जाता है। ऑपरेशन के बाद मरीज को चश्मा दे दिया जाता है। जिस मरीज को लेंस नहीं लगा होता है,उन्हें काफी मोटे चश्मे देने पड़ते हैं। लेंस लगने के बाद साधारण नम्बर दिए जाते हैं। छोटे चीरे और फोल्डेबल लेंस के उपयोग से चश्मे के नम्बर नहीं के बराबर लाए जा सकते हैं। इनमें भी सिलीन्ड्रिकल नम्बर कम करने के लिए खास टोरिक लेंस उपलब्ध है। दूर और पास की वस्तु बिना चश्मे के एक साथ साफ देखने के लिए खास मल्टीफोकल एवं अकोमोडेटिव लेंस उपलब्ध हैं। ये लेंस महंगे होते हैं तथा खास तरह के मरीज़ों में ही लगाए जाते हैं।
ऑपरेशन का निर्णय कैसे लें
आमतौर पर मोतियाबिंद का ऑपरेशन अपनी दिनचर्या प्रभावित होने पर अपनी सुविधानुसार समय पर कराया जा सकता है। नेत्र विशेषज्ञ की सलाह से मोतियाबिंद के पकने के पहले ऑपरेशन कराना फायदेमंद होता है क्योंकि इसमें छोटे चीरे से मोतियाबिंद को तोड़ने में कम समस्या होती है। पुरानी बड़े चीरे वाली प्रक्रिया में मोतियाबिंद के पकने का इंतज़ार करना उचित होता था। कुछ अन्य समस्याओं जैसे पर्दे के रोग की जांच एवं इलाज़ के लिए मोतियाबिंद का शीघ्र ऑपरेशन कराने की सलाह नेत्र रोग विशेषज्ञ दे सकते हैं। लेंस के प्रकार एवं पदार्थ का चयन भी अपनी दिनचर्या की ज़रूरतें एवं नेत्र रोग < विशेषज्ञ की सलाह से लें। आज आधुनिक फेको तथा फोल्डेबल लेंस प्रक्रिया को उन मरीज़ो में भी इस्तेमाल किया जाता है जिनमें चश्मे उतारने वाले लेसिक लेजर ज्यादा नम्बर या किसी अन्य कारण से असुरक्षित हैं।
छोटे बच्चों व नवजात शिशुओं में मोतियाबिंद
मोतियाबिंद नवजात शिशुओं को भी प्रभावित कर सकता है जो कि गर्भकाल में किसी आनुवांशिक रोग या समस्या की वजह से हो सकता है। जिन बच्चों को किसी भी अन्य कारण से मोतियाबिंद होता है उसे भी जन्मजात मोतियाबिंद ही कहा जाता है। छोटे बच्चों या शिशुओं को अपनी माता से मोतियाबिंद होने का जोखिम रहता है जो रुबेला के संपर्क में आती है या चयापचयी संबंधी गड़बड़ी होती है जिसे गैलेक्टोसेमिया कहते हैं। लेकिन अच्छी बात यह है कि रुबेला का टीका विकसित होने की वजह से यह रोग उतना आम नहीं रहा। मोतियाबिंद जैसी नेत्र समस्या बच्चे के व्यक्तित्व, सीखने की क्षमता और यहाँ तक की उसकी दिखावट पर भी बुरा असर डालती है, यह असर उसकी सारी जिंदगी भर बना रहता है। इसलिए माता पिता को अपने बच्चे की सेहत पर पूरा ध्यान देना चाहिए और जैसे कि बच्चा पैदा हो सकती आँखों की जाँच करानी चाहिए तथा नियमित तौर पर उसका नेत्र परीक्षण कसना चाहिए (डॉ. प्रशांत भारतीय,सेहत,नई दुनिया,फरवरी द्वितीयांक 2011)।
अभी माता जी का ऑपरेशन करवाया था.. ठीक है सब कुछ!! सचमुच यह तकनीक बहुत ही आसान हो गई है!!
जवाब देंहटाएंआभार विस्तार से जानकारी का.
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