मनुष्य यदि प्रकृति के नियमों का उल्लंघन नहीं करे तो वह सरलता से अद्भुत रोग प्रतिरोधक शक्ति उत्पन्न कर सकता है। अतः मनुष्य का पहला प्रयास यह होना चाहिए कि वह प्रकृति-पुत्र के रूप में इतना शक्तिमान बन जाए जिससे वह किसी भी रोग का आसानी से पराक्रम कर सके।"द मेडिसिंस ऑफ नेचर" में डॉ. स्विनबर्ग ने लिखा है कि "रोग का निवारण करने का दावा मैं कभी नहीं करता। रोग-निवारण का कार्य तो प्रकृति ही करती है। मैं तो केवल निमित्त ही बनता हूँ।"
कनाडा की सास्के चेवान यूनिवर्सिटी के औषधी शास्त्र विभाग के अध्यक्ष डॉ. बॅण्डेल मॅकलोड मनुष्य को प्रकृति की ओर लौट आने का अनुरोध करते हुए कहते हैं कि "वास्तव में हमें प्रकृति की रोग-प्रतिकारक एवं रोग निवारक शक्तियों में विश्वास रखना चाहिए। परंतु हम औषधियों के उपयोग की ओर अधिक से अधिक मुड़ रहे हैं।"
प्रत्येक मनुष्यों में ईश्वर के एक अन्यान्य उपहार के रूप में पाई जाने वाली प्रतिरोधात्मक शक्ति को प्रसिद्घ वैज्ञानिक एवं मॉण्डियल यूनिवर्सिटी के एक्सपेरिमेंटल मेडिसिन एंड सर्जरी के डायरेक्टर डॉ. हान्स सिल्व ने "एडॅप्टेशन एनर्जी" नाम से संबोधित किया है। यह सिद्घ हो चुका है कि यह शक्ति भौतिक, रासायनिक और मानसिक तनाव का सामना करती है और मनुष्य स्वस्थ व निरोगी रहता है।
"कैंसर" नामक बीमारी का नामकरण करने वाले सुप्रसिद्घ चिकित्सक एवं दार्शनिक हिपोक्रेटस ने कहा था कि "आप अपने आहार को ही औषधि बनाइए।" इसमें लेशमात्र भी संदेह नहीं है कि आपके स्वास्थ्य का अच्छा रहना, आपके आहार की गुणवत्ता पर ही निर्भर करता है। आज मनुष्य प्रकृति द्वारा प्रदत्त खाद्य वस्तुएँ शक्ति और ऊर्जा से भरपूर धान-अनाज आदि को छोड़कर व्यर्थ का कचरा खाने में मशगूल है। सामिष भोजन जिसे भोजन कहना उचित नहीं है, खाने के चक्कर में आज व्यक्ति असंख्य रोग उत्पन्ना करने वाले गंभीर रोगों को खुला निमंत्रण दे रहे हैं। मनुष्य स्वयं प्रकृति के पौष्टिक और उपयोगी स्त्रोतों से खिलवाड़ कर स्वयं को दूर्धर रोगों की अग्नि में झोंक देता है। किसी महान आरोग्य शास्त्री ने कहा है कि "हम अपनी कब्र दाँतों से ही खोदते हैं।" श्रम के महत्व को भी नजरअंदाज करता आज का भौतिकवादी मनुष्य आलस्य की ओर अग्रसर हो रहा है। फलस्वरूप बीमारियों को आक्रमण करने से कोई भी असुविधा नहीं हो रही है। कहते हैं कि रोटी का सच्चा स्वाद वही मनुष्य पा सकता है जो कठोर श्रम करके उसे ग्रहण करता है।
कैंसर पर विजय पाने में भी प्रकृति सर्वश्रेष्ठ भूमिका निभाती है, बशर्ते पूर्ण इच्छाशक्ति और निष्ठा के इसके कतिपय नियमों का अनुसरण किया जाए। "क्लोरोफिल" नामक अत्यंत उपयोगी तत्व सभी हरे पदार्थों जैसे पत्तियों, गेहूँ के ज्वारों एवं सब्जियों आदि में प्रचुरता से पाया जाता है। क्लोरोफिल को हरे रक्त के नाम से भी पहचाना जाता है, क्योंकि क्लोरोफिल एवं रूधिर की रासायनिक संरचना लगभग समान ही है। क्लोरोफिल में अन्य तत्वों के साथ मैग्निशियम पाया जाता है, जबकि रूधिर में मैग्निशियम के स्थान पर लौह तत्व पाया जाता है। डॉ. हेन्स मिलर ने क्लोरोफिल को रक्त का निर्माण करने वाला प्राथमिक स्रोत कहा है। एनिमिया अर्थात् रक्त की कमी से ग्रस्त कई रोगियों को भ्रपूर मात्रा में क्लोरोप्लास्ट देने पर उनके रूधिर में आश्चर्यजनक रूप से वृद्घि पाई गई है।
अमेरिका के आहार एवं घास विशेषज्ञों का एक समूह है जो निरंतर विभिन्न किस्म की घास एवं पादपों के अध्ययन में प्रयासरत है। इन्हीं में से एक डॉक्टर्स अर्प थॉमस ने अपने जीवन की आधी शताब्दी अर्थात ५० वर्ष मात्र विविध किस्म की घास के अध्ययन में लगा दिए और अपने शोधपत्रों में उन्होंने उल्लेख किया कि गेहँू की घास अर्थात ज्वारे अन्य सभी प्रकार की घास से श्रेष्ठ हैं। गेहूँ के ज्वारे का सेवन करने से मनुष्य को प्रत्येक प्रकार का पोषण प्राप्त हो जाता है। एक किलो गेहूँ में ज्वारे से ही जो पोषण ऊर्जा प्राप्त हो जाती है वह लगभग तेईस किलो साग-सब्जियों से प्राप्त होती है।
कैंसर के विभिन्न रोगियों द्वारा भी क्लोरोफिल के सेवन से स्वस्थ होने के आँकड़े प्रकाश में आ रहे हैं, अतः इस सफलता को देखते हुए भी कैंसर योद्घा ने अपनी चिकित्सा के साथ-साथ गेहूँ के ज्वारे के रस का सेवन करना चाहिए। अमेरिका की डॉ. विग्मोर ने भी कई गंभीर अवस्था तक पहुँचे कैंसर रोगियों को गेहूँ के ज्वारों द्वारा स्वस्थ कर दिया था।
कैंसर मनुष्य पर किसी बाहरी विषाणु, जीवाणु या कीट का आक्रमण नहीं होकर यह स्वयं मनुष्य के शरीर में कोशिकाओं का असामान्य प्रसार है। इसका अर्थ एक मायने में यह हुआ कि कैंसर मनुष्य शरीर की आंतरिक अनियमितताओं के परिणामस्वरूप ही उत्पन्ना होता है। अतः मनुष्य यदि इन अनियमितताओं को प्रयास करके नियमित और स्थिर कर ले तो कैंसर नष्ट भी हो सकता है। सभी रोग बाहरी रोगाणुओं के आक्रमण से होते हैं, फिर कैंसर के साथ किसी रोगाणु का नाम ही नहीं जुड़ा है, तो कैंसर भी रोग नहीं होकर सही अर्थ में एक अनियमितता है।
कैंसर होने के पश्चात सर्वप्रथम इसी तथ्य को स्मरण रखना आवश्यक है कि कैंसर वास्तव में कोई रोग हो ही नहीं सकता। इसे थोड़ा विस्तार से समझना अत्यावश्यक है। "कैंसर का उल्लेख प्राचीन मिस्र की ममियों में मिलता है। "रोग" यह नाम उन्हीं बीमारियों को दिया गया है जिन्हें रोगाणुओं द्वारा फैलाया जाता है। चूँकि उस समय कैंसर की प्रकृति ही पहचानी गई थी परंतु उसका नामकरण नहीं हुआ था। जब कैंसर रोगाणुओं द्वारा फैलाया ही नहीं जाता था तब वह रोग किस प्रकार हुआ। इसी कारण चरक-संहिता या सुश्रुत संहिता में इसका उल्लेख नहीं होना ही सिद्घ करता है कि "कैंसर" यह रोग की श्रेणी में ही रखा नहीं जा सकता।
सवाल यह है कि शरीर की अनियमितता द्वारा उत्पन्न विकृति को क्या मनुष्य स्वयं प्राकृतिक रूप से एवं दृढ़ इच्छाशक्ति द्वारा दूर नहीं कर सकता? क्या यह संभव है कि मनुष्य जिस प्रकार नियमित व्यायाम,सुबह की दौर द्वारा अपने शरीर की बढी हुई चर्बी घटा लेता है,उसी प्रकार आंतरिक प्रयासों और ध्यान प्रयोगों द्वारा वह कैंसर अर्थात् अनियमित बढ़ी हुई कोशिकाओं को भी घटाने का यत्न करे।
यह संभव हो सकता है कि हमारे पवित्र ग्रंथों के आधार पर हमारा इतिहास देखा जाए तो ज्ञात होता है कि जब चिकित्सा पद्धति उन्नत नहीं थी,तब भी स्वस्थ विचारधारा तप,नियम आदि द्वारा मनुष्य स्वयं रोगों को नियंत्रित कर लेता था। अतः,प्रकृति के शख्तिशाली स्त्रोतों को पूजते हुए यदि मनुष्य ध्यानमग्न होकर अपनी इच्छाशक्ति बढ़ाए तो प्रकृति की यह मौन शक्तियां भी चमत्कार कर सकती हैं।
कैंसर को मात्र एक व्यक्ति नष्ट कर सकता है और वह व्यक्ति वही है जिसे कैंसर हुआ है। आज ही यदि योद्धा दृढ़ संकल्प से अपनी आंतरिक शक्ति को जागृत कर ले,तो निस्संदेह कैंसर नष्ट हो सकता है।
(विवेक हिरदे,नई दुनिया,4.2.11)
प्राकृतिक उपचार सबसे लाभप्रद है!
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