पोलियो, कुष्ठ रोग और एड्स से निपटने में काफी हद तक सफलता पाने के बावजूद भारत को टीबी, मलेरिया और कालाजार जैसी बीमारियों से लगातार खतरा बना हुआ है। देश में होने वाली कुल बीमारियों के 30 फीसदी हिस्से पर यही हावी हैं। मेडिकल जर्नल लैंसेट ने भारत पर आधारित अपनी प्रकाशन श्रृंखला में कहा है कि भारत में हैजा और टाइफाइड जैसी बीमारियां उपेक्षित हैं और उनकी सही तरीके से निगरानी भी नहीं होती। जर्नल में स्वास्थ्य विशेषज्ञों टी जैकब जॉन और विनोद पी शर्मा ने एक लेख लिखा है, जिसमें कहा गया है कि भारत का सार्वजनिक स्वास्थ्य सुरक्षा तंत्र संक्रामक बीमारियों से पूरी तरह पराजित है, जिसके चलते बहुत से परिवारों को निजी क्षेत्र की शरण लेनी पड़ती है, जहां उपचार की कीमत बहुत ज्यादा है। कुछ ही संक्रामक बीमारियों को केंद्र सरकार द्वारा चलाए जाने वाले रोकथाम कार्यक्रमों के तहत प्राथमिकता पर लिया जाता है। यहां तक कि इनमें से भी सिर्फ एचआइवी और कुष्ठ रोग पर ही सफलता मिलती दिखाई दे रही है, तपेदिक, मलेरिया व कालाजार पर नहीं। लेखकों ने कहा है कि सभी संक्रामक बीमारियों पर प्रभावशाली तरीके से लगाम कसने के लिए सार्वजनिक व निजी क्षेत्रों में स्वास्थ्यकर्मियों द्वारा बीमारियों की निगरानी केस स्टडी पर आधारित होनी चाहिए। इसके अलावा, सार्वजनिक स्वास्थ्य ढांचा विकसित करने के तौर पर जिला स्तर पर सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रतिक्रिया की सख्त जरूरत है। लेख में कहा गया है कि नियंत्रित की जा सकने वाली संक्रामक और अन्य बीमारियों के सामने सार्वजनिक क्षेत्र का स्वास्थ्य नेटवर्क कारगर साबित नहीं हो पा रहा है। इससे अनियमित निजी क्षेत्र को बड़े पैमाने पर प्रोत्साहन मिल रहा है और वह लोगों की जेबों से खूब पैसे ढीले कर रहा है। बीमारियों पर नियंत्रण के लिए जरूरी है कि जिला, राज्य और राष्ट्रीय स्तरों पर सार्वजनिक स्वास्थ्यकर्मियों का औपचारिक कैडर बनाया जाए, पूरे तंत्र का पुनर्गठन किया जाए और पर्याप्त प्रशिक्षण कार्यक्रमों को चलाया जाए। साथ ही इस प्रयास को गैर संक्रामक बीमारियों और चोटों के बढ़ते बोझ पर नियंत्रण से जोड़ा जाए, जो हर साल होने वाली मौतों और आर्थिक क्षति का बड़ा कारण बन चुकी हैं। लेख के मुताबिक, 1897 के लोक स्वास्थ्य अधिनियम में कोई बदलाव नहीं किया गया है और इसलिए बहुत सी बीमारियों का पता ही नहीं चल पाता। बीमारियों की सस्ती, वास्तविक और कुशल निगरानी, जिनसे महामारी की पहचान हो सके, को सरकारी और निजी दोनों क्षेत्रों के अस्पतालों में अनिवार्य रूप से उपलब्ध होनी चाहिए। इसमें कहा गया है कि संक्रामक बीमारियों का एक संभावित स्रोत जांच प्रयोगशालाएं भी हैं। हालांकि प्राथमिक और द्वितीयक लोक स्वास्थ्य सुरक्षा नेटवर्क की पहुंच माइक्रोबायोलॉजी प्रयोगशालाओं तक ही नहीं है। लेखकों के अनुसार कानूनन अंतिम संस्कार के पहले मृत्यु पंजीकरण जरूरी होता है, लेकिन ग्रामीण इलाकों में इन नियमों का उल्लंघन होता है। लगभग 70 फीसदी लोगों की मौत घरों में हो जाती है और बहुत से लोग इनके बारे में जानकारी नहीं देते(दैनिक जागरण,राष्ट्रीय संस्करण,मकर संक्रांति-2011)।
लोहड़ी,पोंगल और मकर सक्रांति उत्तरायण की ढेर सारी शुभकामनाएँ।
जवाब देंहटाएंवास्तव में ये सही है बड़ी बड़ी बीमारियों से लड़ने के लिए काफी ध्यान दिया जाता है किन्तु ऐसे लोगो की संख्या भी काम नहीं है जो उन बीमारियों से मार जाते है जो काफी छोटी है और जिनका आसानी से इलाज हो सकता है |
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