जम्मू-कश्मीर में कांगड़ी कैंसर अब बीते दिनों की बात बनती जा रही है। जीवनस्तर में सुधार और जागरूकता का ही असर है कि राज्य के शहरी इलाके इस जानलेवा बीमारी से निजात पा ही चुके हैं, दूरदराज पहाड़ी क्षेत्रों में भी नए मरीजों की संख्या न के बराबर है। कांगड़ी कैंसर जम्मू-कश्मीर खासकर कश्मीर संभाग में ही पाया जाता है। यह कैंसर स्थानीय लोगों द्वारा सर्दियों में शरीर को गर्म रखने के लिए इस्तेमाल की जाने वाली कांगड़ी में रखे कोयले से निकलने वाली गर्मी से होता है। एक दशक पहले तक वादी में कई लोग इससे ग्रस्त थे जिनमें दूरदराज क्षेत्रों में रहने वालों की संख्या ज्यादा थी। शेर-ए-कश्मीर आयुर्विज्ञान संस्थान सौरा (स्कीम्स) कम्यूनिटी मेडिसीन विभाग में एसोसिएट प्रोफेसर डॉ. रौऊफ रशीद कौल ने बताया कि कांगड़ी कैंसर कश्मीर में ही पाया जाता है। इसे हमारी मेडिकल टर्मिनोलॉजी में स्कैमासेल कार्सिनोमा कहा जाता है। यह गर्मी शरीर की त्वचा के बाहरी हिस्सों को खुरदरा बनाते हुए सेल की संरचना में बदलाव लाती है, जिससे शरीर पर फोडे़ जैसे बन जाते हैं। यह इसकी पहली अवस्था रहती है जिसे डिस्पलेसिया कहा जाता है। फोडे़ बनने से पहले ही अगर इसका इलाज न हो तो यह जानलेवा बन जाता है। यह शरीर के उन्हीं हिस्सों में ज्यादा होता है, जहां कांगड़ी की गर्मी सबसे पहले पहुंचती है। जांघों और पेट के निचले भाग से ही इसकी शुरुआत होती है। हमने जितने भी मरीज देखे हैं उनमें से 95 प्रतिशत में यह बीमारी जांघों से ही शुरू हुई। अब लोग कांगड़ी से होने वाले बीमारियों के प्रति जागरूक हो गए हैं। ऐसे में इसका इस्तेमाल पहले की अपेक्षा घट चुका है, जिससे कैंसर मरीज भी न के बराबर हंै। कांगड़ी कैंसर पर शोध कर चुके डॉक्टर इम्तियाज ने बताया कि 1990 तक यहां यह बीमारी खूब थी। धीरे-धीरे यह कम होती जा रही है। मैंने वर्ष 2003 से 08 तक एक शोध किया। इस दौरान जो भी कांगड़ी कैंसर से ग्रस्त मिला, वह बुजुर्ग या आर्थिक रूप से पिछड़े वर्ग से था या फिर दूरदराज इलाकों का रहने वाला। हमने 17 रोगियों को अध्ययन के लिए चुना था। हम यह नहीं कह सकते कि यह कैंसर समाप्त हो गया है, लेकिन अब दूरदराज इलाकों में ही बचा है। समाजसेवी संगठन कैंसर सोसाइटी कश्मीर के उमर किरमानी ने कहा, 10 साल पहले तक कांगड़ी कैंसर के बहुत मरीज थे, लेकिन अब 60 फीसदी से ज्यादा कमी आई है। बीते दो सालों में हमने ऐसे पांच नए मरीज भी नहीं देखे। जो हैं वह या तो जीवन के साठ बसंत पार कर चुके हैं या फिर दूरदराज के इलाकों में रहने वाले हैं(नवीन शर्मा,दैनिक जागरण,जम्मू,11.1.11)।
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