बुधवार, 15 दिसंबर 2010

हैपेटाइटिस

हेपटाइटिस बड़ी समस्या बनकर सामने आ रहा है। वजह यह कि लोग इसके बारे में ज्यादा नहीं जानते, इसलिए जांच आदि से दूर रहते हैं। साथ ही, बहुत-से मामलों में इसके लक्षण लंबे वक्त के बाद नजर आते हैं। जब तक पता चलता है, तब तक काफी देर हो चुकी होती है। बीमारी की जानकारी मिलने के बाद भी बहुत-से लोग इसे लाइलाज मानकर इलाज नहीं कराते, जबकि वक्त पर जांच और इलाज हो तो मरीज पूरी तरह से ठीक हो सकता है। साथ ही, वैक्सीन यानी टीका लगवा लेने से भी न सिर्फ खतरा कम होता है, बल्कि महंगे इलाज से भी बचा जा सकता है। एक्सपर्ट्स से बात करके पूरी जानकारी दे रही हैं प्रियंका सिंह :

क्या होता है हेपटाइटिस
हेपटाइटिस का मतलब है लिवर (जिगर) की सूजन। यह ग्रीक शब्द है, जिसमें हेपेटिक का मतलब होता है लिवर और आइटिस का मतलब सूजन। लिवर हमारे शरीर का अहम हिस्सा है, जो शरीर से जहरीले पदार्थ निकालता है, खाना पचाने में मदद करता है, एनर्जी स्टोर करता है, ब्लीडिंग रोकता है और इन्फेक्शन से लड़ने में मदद करता है।

लिवर की खासियत यह है कि किसी तरह का नुकसान होने पर खुद ही उसकी भरपाई कर लेता है, लेकिन लंबे वक्त तक सूजन या इन्फेक्शन रहे तो लिवर को स्थायी तौर पर नुकसान पहुंच सकता है। हेपटाइटिस ऐसी ही बीमारी है। यह वायरस से होता है। हेपटाइटिस का वायरस कई बार शरीर में आने के बरसों बाद तक मरीज को कोई नुकसान नहीं पहुंचाता, जबकि कुछ मामलों में यह शरीर को नुकसान पहुंचाने लगता है। यह एक्टिव और इनएक्टिव, दोनों तरीकों से शरीर में रहकर उसे नुकसान पहुंचा सकता है।

कैसे-कैसे वायरस
हेपटाइटिस वायरस यों तो पांच तरह का होता है - ए, बी, सी, डी और ई लेकिन डी कॉमन नहीं होता और बहुत ही गिने-चुने मामलों में नजर आता है। इसे डेल्टा वायरस कहा जाता है। यह बी के साथ ही अटैक करता है, वह भी गिने-चुने मामलों में। लेकिन अगर यह एक बार होता है तो मुश्किलें बढ़ा देता है। मरीज को पेट में पानी आने या कैंसर की आशंका बढ़ जाती है। तब मरीज का इलाज लंबा चलता है और ट्रीटमेंट मुश्किल हो जाता है। यह कई बार घातक भी साबित होता है। वैसे, हेपटाइटिस ए, बी, सी और ई को ही मेन वायरस माना जाता है। मोटे तौर पर लक्षणों और नुकसान के आधार पर हेपटाइटिस ए और ई व बी और सी को एक साथ रखा जा सकता है।

हेपटाइटिस ए और ई
इन दोनों का वायरस पानी और खाने के जरिए शरीर में आता है। वायरस का इन्फेक्शन होने के 15 से 45 दिन में लक्षण सामने आते हैं। अच्छी बात यह है कि ज्यादातर सभी मामलों में ए और ई वायरस खुद-ब-खुद चला जाता है। हेपटाइटिस ए की वैक्सीन है, लेकिन खास जरूरत नहीं समझी जाती, क्योंकि यह जानलेवा नहीं है।

वजह: खराब खाना खाने या पानी पीने से
लक्षण: उलटी, बुखार और पीलिया। ये लक्षण करीब चार हफ्ते तक चलते हैं। इसके बाद मरीज की हालत में सुधार होने लगता है।

इलाज: इसमें अलग से कोई खास इलाज नहीं होता। बुखार या दूसरे लक्षणों की दवा दी जाती है और मरीज को पूरा आराम करना होता है। साथ में विटामिन बी कॉम्प्लेक्स और विटामिन सी की टैब्लेट या कैप्सूल दिए जाते हैं और पौष्टिक खाने की सलाह दी जाती है। करीब 4-6 हफ्ते में मरीज नॉर्मल हो जाता है। ये दोनों वायरस लंबे समय तक जीवित नहीं रहते। इक्का-दुक्का मामलों में लिवर फेल्योर हो सकता है। लिवर फेल्योर होने से करीब हफ्ते, 10 दिन पहले से मरीज की मानसिक स्थिति खराब होने लगती है। उसकी याददाश्त कम होने लगती है और वह बेहोश हो सकता है। उस हालत में लिवर ट्रांसप्लांट ही इकलौता इलाज बचता है। इसमें 10 लाख रुपये से 25 लाख रुपये तक का खर्च आता है। साथ ही, सही लिवर डोनर की भी जरूरत होती है।

हेपटाइटिस बी और सी
बी और सी वायरस का इन्फेक्शन होने के करीब डेढ़ से दो महीने बाद लक्षण नजर आते हैं। जिन मामलों में एक महीने से चार महीने में लक्षण नजर आ जाते हैं, उन्हें एक्यूट कहा जाता है। इन्फेक्शन को छह महीने से ज्यादा हो जाए तो वह क्रॉनिक कहलाता है। ऐसा होने पर मरीज के पूरी तरह ठीक होने के आसार कम हो जाते हैं। हालांकि क्रॉनिक के मामले कम ही होते हैं। जिनको बचपन में यह इन्फेक्शन होता है, ज्यादातर उन्हीं में बड़े होने पर क्रॉनिक हेपटाइटिस होता है।

एक्टिव या इनएक्टिव, दोनों ही फॉर्म में हेपटाइटिस बी या सी वायरस लिवर पर बुरा डाल सकता है। एक्टिव होने पर बुरा असर जल्दी दिखने लगता है। बी 70 फीसदी मामलों में और सी करीब-करीब सभी मामलों में क्रॉनिक बनता है क्योंकि इसका पता काफी देर से चलता है इसीलिए इसे साइलेंट किलर भी कहा जाता है। इन्फेक्शन के छह महीनों में इसके कोई लक्षण सामने नहीं आते और 20 फीसदी लोगों के शरीर से वायरस खुद बाहर निकल जाता है, लेकिन 80 फीसदी मामलों में वायरस लिवर के अंदर मौजूद रह जाता है। इनमें से 20 फीसदी में एक दशक के अंदर लिवर सिरोसिस (लिवर का सिकुड़ जाना) हो जाता है और तब जाकर बीमारी का पता चलता है, जबकि 25 पर्सेंट में समस्या की शुरुआत जॉन्डिस से होती है।

वजह: अल्कोहल, स्टेरॉयड, प्रदूषित सूई, प्रदूषित खून, सेक्सुअल ट्रांसमिशन के अलावा बच्चे को मां से हो सकता है। यलो फीवर, विल्संस डिसीज और डेंगू भी कई बार हेपटाइटिस की वजह बनता है। इसके अलावा, टीबी, कैंसर, दिल की कुछ दवाओं और एंटी-बायोटिक दवाओं मसलन, आईजोनाइजिड Isoniazid (टीबी), पैरासिटामोल Paracetamol (बुखार), पाइराजिनामाइड Pyrazinamide (एंटीबायोटिक खासकर टीबी में ), एमिनोड्रेरोन Amiodarone (दिल की बीमारी ), क्लोरप्रमाइजिन Chlorpromazine (दिमागी बीमारियां खासकर सिजोफ्रेनिया) इबो-प्रोफीन Ibuprofen (पेनकिलर), ऑगमेंटिन augmentin (एंटीबायोटिक) आदि लिवर को नुकसान पहुंचा सकती हैं और हेपटाइटिस की वजह बन सकती हैं।

नोट : यहां हम दवाओं के जेनरिक नाम दे रहे हैं। आप जिस भी ब्रैंड की दवा ले रहे हैं, उसके रैपर पर जेनरिक नाम भी लिखा होता है।

ध्यान रहे कि मरीज की छींक या खांसी, उसके साथ खाने या पानी पीने, हाथ मिलाने या गले लगने, बच्चे को पीड़ित मां का दूध पिलाने आदि से नहीं फैलता है।

लक्षण : भूख न लगना, वजन कम होना, पीलिया, बुखार, कमजोरी, उलटी, पेट में पानी भर जाना, खून की उलटियां होना, रंग काला होने लगना, पेशाब का रंग गहरा होना आदि। स्मोकिंग करनेवाले लोगों को स्मोकिंग से विरक्ति हो सकती है। शुरुआत में कोई लक्षण नजर नहीं आता। अगर लगातार पीलिया रहे, खून की उलटियां हों, रंग काला पड़ने लगे, वजन बहुत कम हो जाए, पाखाने में खून आए तो समझना चाहिए कि लिवर पर असर आ गया है।

नुकसान : हेपटाइटिस बी और सी में लिवर फाइब्रोसिस (लिवर का सख्त होना) और लिवर सिरोसिस (लिवर का सिकुड़ जाना) होने की आशंका बहुत ज्यादा होती है। फाइब्रोसिस बहुत बढ़ जाए तो सिरोसिस हो जाता है। ऐसा होने पर लिवर अपना काम सही से नहीं कर पाता। सिरोसिस के बहुत-से मामले इलाज न होने पर कैंसर में बदल जाते हैं, बल्कि कैंसर के करीब 90 फीसदी मरीज सिरोसिस वाले ही होते हैं। मोटे तौर पर हेपटाइटिस बी के करीब 20 फीसदी और सी के करीब 4 फीसदी मरीजों में कैंसर की आशंका होती है। कई बार इलाज के बाद भी कैंसर के चांस बने रहते हैं, खासकर हेपटाइटिस बी में क्योंकि ज्यादातर मामलों में इसका वायरस शरीर में बना रहता है। ऐसा वायरस के न्यूक्लियस से जुड़ने पर होता है। ऐसे में कभी-कभी मरीज को पूरी जिंदगी दवा खानी पड़ सकती है। डॉक्टर जांच के बाद ही बता सकते हैं कि इलाज कितना लंबा चलेगा।
नोट : अल्कोहल बहुत-से मामलों में हेपटाइटिस की वजह बनती है। अगर हेपटाइटिस न हो तो भी अल्कोहल की वजह से सिरोसिस हो सकता है। हेपटाइटिस बी या सी का मरीज शराब पीता है तो लिवर को और नुकसान पहुंचता है। ऐसे में शराब से दूरी हेपटाइटिस की आशंका कम कर देती है। कम-से-कम यह ऐसी वजह है, जिसे आप रोक सकते हैं।

टेस्ट और इलाज
हेपटाइटिस बी या सी का आसानी से पता नहीं लगता। इसके लिए कुछ टेस्ट कराए जाते हैं : ब्लड टेस्ट, ताकि वायरस की मौजूदगी पता लगाए जा सके।

लिवर फंक्शन टेस्ट (एलएफटी) : सरकारी अस्पतालों में फ्री, बाकी जगह 350 से 600 रुपये में

पेट का अल्ट्रासाउंड : सरकारी अस्पतालों में फ्री, बाकी जगह 450 से 800 रुपये में

वायरस टेस्ट (वायरल सिरॉलजी) : 1000 से 1500 रुपये में

पीटी (आईएनआर) टेस्ट : 200 रुपये

डीएनए (हेपटाइटिस बी पॉजिटिव आने पर) : 6000 से 6500 रुपये

आरएनए (हेपटाइटिस सी पॉजिटिव आने पर) : 6000 से 6500 रुपये

वायरस जिनोटाइप टेस्ट : 11 से 18 हजार रुपये

नोट : यहां दिए गए टेस्टों की कीमत अनुमानित है। अलग-अलग हॉस्पिटल में रेट अलग-अलग हो सकते हैं। हेपटाइटिस बी और सी का इलाज काफी लंबा और महंगा होता है। प्राइवेट अस्पतालों में करीब 3-4 लाख रुपये तक का खर्च आ सकता है।

इलाज के दौरान दिए जाने वाले इंटरफेरॉन इंजेक्शन से मरीज को सिरदर्द, बुखार, चिड़चिड़ापन, भूख न लगना, उलटी आदि हो सकती है। इलाज के दौरान कुछ मरीज बेहद कमजोरी भी महसूस करने लगते हैं, जो धीरे-धीरे ठीक हो जाती है।

प्रेग्नेंसी और हेपटाइटिस
मां को अगर हेपटाइटिस है तो बच्चे के भी इससे पीड़ित होने की आशंका बढ़ जाती है। प्रेग्नेंसी के दौरान सही इलाज न हो तो महिला को ब्लीडिंग हो सकती है और बच्चे व महिला, दोनों की जान जा सकती है। अगर मां को पहले से मालूम है कि उसे हेपटाइटिस है तो उसे डॉक्टर को जरूर बताना चाहिए। डॉक्टर दवा देंगे, जिससे बच्चे में वायरस जाने के चांस कम हो जाते हैं। जिन महिलाओं को हेपटाइटिस बी का टीका लगा है, उन्हें भी प्रेग्नेंसी के दौरान जांच करानी चाहिए क्योंकि कई बार टीका फेल भी हो जाता है। जन्म के बाद भी बच्चे को टीका लगाकर बीमारी से बचाया जा सकता है।

कैसे बचें हेपटाइटिस से
हेपटाइटिस ए और ई से बचाव के लिए जरूरी है कि हम साफ खाना खाएं और साफ पानी पिएं।
हेपटाइटिस बी और सी से बचाव के लिए निम्न बातों का ध्यान रखें :
ऐसे हॉस्पिटल या ब्लड बैंक से ही खून लें, जहां ढंग से चेक करने के बाद ही खून लिया जाता हो।
टैटू से बचें। इन्फेक्टेड सूई हेपटाइटिस की वजह बन सकती है।
दांत का इलाज अच्छे हॉस्पिटल से कराएं, जहां इक्वेपमेंट्स की साफ-सफाई का ध्यान रखा जाए।
अल्कोहल से बचें। हेपटाइटिस होने के बाद तो बिल्कुल न पिएं। अगर शराब पीते हैं तो पैरासिटामोल (क्रोसीन आदि) की ज्यादा डोज लेने से बचें।

हेपटाइटिस बी के टीके लगते हैं और काफी असरदार होते हैं। एक्सपर्ट्स इन्हें 95 फीसदी कामयाब मानते हैं। इसमें तीन डोज लेनी होती हैं। पहला इंजेक्शन लगने के बाद दूसरा अगले महीने और तीसरा छठे महीने लगना जरूरी है। एक हफ्ते से ज्यादा की देरी होने पर पहली खुराक का असर खत्म हो जाता है और तब तीनों टीकों फिर से लगवाने होते हैं। तीन टीकों का कोर्स होता है, जिसकी कीमत सरकारी अस्पतालों में 200 रुपये और प्राइवेट अस्पतालों में 1000 रुपये तक हो सकती है।

हेपटाइटिस सी और ई के टीके नहीं हैं। हेपटाइटिस ई के टीके पर अभी रिसर्च चल रही हैं। हेपटाइटिस ए के लिए टीका लगाया जाता है लेकिन यह डब्ल्यूएचओ की वैक्सीनेशन की लिस्ट में नहीं है क्योंकि यह ज्यादा नुकसानदेह नहीं होता। कम ही मामलों में टीका लगाया जाता है।

खाने में खास चीजें
किसी भी हेपटाइटिस में खाने का कोई परहेज नहीं होता। बस, सिरोसिस होने पर नमक कम खाना बेहतर होता है। साथ ही बहुत तला-भुना खाना नहीं खाना चाहिए। इससे लिवर पर दबाव पड़ता है। प्रोटीन से भरपूर खाना जैसे पनीर, दूध, सोयाबीन, मछली आदि खाना बेहतर है। साथ ही, ऐसा खाना खाएं, जो आसानी से पच सके। खिचड़ी, दलिया, चावल, रोटी, मक्का, सूप, फल और सब्जियां खाएं। गैस बनानेवाली चीजें जैसे राजमा, छोले आदि कम खाएं। दही ले सकते हैं, लेकिन लिमिट में। छाछ बेहतर है।

होम्योपैथी
हेपटाइटिस होने पर होम्योपैथी में सेलिडोनियम ( Chelidonium ), लाइकोपोडियम ( Lycopodium ), करिका पपाया ( Carrica Papaya ) या कालमेघ ( Kalmegh ) मदर टिंचर या 6 c या 3 x दी जाती हैं। इनमें से एक वक्त में कोई एक दवा लेनी होती है। आमतौर पर भूख बढ़ाने के लिए ये दवाएं दी जाती हैं। दिन में तीन बार चार-चार गोलियां खानी होती हैं। बाकी और भी दवाएं हैं, जो बीमारी देखकर दी जाती हैं, लेकिन ये दवाएं बीमारी के शुरुआती स्टेज पर भी कारगर हैं। फाइब्रोसिस या सिरोसिस होने पर इनसे इलाज नहीं हो सकता।

नोट : कोई भी दवा डॉक्टर की सलाह के बिना न खाएं।

आयुर्वेद
अगर हेपटाइटिस शुरुआती स्टेज में है तो आयुर्वेदिक दवाओं से इलाज किया जा सकता है। बीमारी बढ़ने पर बेशक मॉडर्न मेडिसिन का सहारा लेना ही बेहतर है लेकिन आयुर्वेदिक एक्सपर्ट्स का कहना है कि मॉडर्न मेडिसिन के साथ अगर आयुर्वेदिक इलाज भी किया जाए तो मरीज को बेहतर जिंदगी मिल सकती है। मसलन उसकी भूख बढ़ेगी, वजन कम नहीं होगा आदि।

अगर मरीज को पीलिया है तो उसे आरोग्यवधिर्नी वटी दे सकते हैं। 500 मिग्रा की गोली दिन में तीन बार गुनगुने पानी से दी जाती है। पुनर्नवारिष्ट 25 मिली दिन में दो बार खाना खाने के बाद इतने ही पानी में मिलाकर देनी चाहिए। जरूरत पड़ने पर या बीमारी बढ़ने पर दिन में दो बार रोहितकारिष्ट (25 मिली) या दारव्यादि क्वाथ दिया जाता है। दारव्यादि क्वाथ तैयार करने के लिए 160 मिली पानी में 10 ग्राम दारव्यादि मिलाएं और थोड़ी देर उबाल कर छान लें।

एलोवेरा (घृतकुमारी) का गूदा निकालकर थोड़ी काली मिर्च मिलाकर सुबह-शाम एक चम्मच लें। दिन में दो बार 25 मिली कुमारीआसव इतने ही पानी में मिलाकर ले सकते हैं।

भृंगराज के पौधे का 10 मिली रस निकालकर रोजाना ले सकते हैं।
कटुकि या कुटकी चूर्ण रोजाना 1 से 3 ग्राम तक ले सकते हैं। यह काफी कड़वा होता है।
भूम्यामल्कि या भूईं आंवला की कुछ पत्तियों को पीसकर जूस निकाल कर ले सकते हैं।
दिन में दो-तीन बार तीन ग्राम हरड़ का पाउडर ले सकते हैं। इसके अलावा कालमेघ, पीपली आदि भी फायदेमंद हैं।
खाने में हल्दी, काली मिर्च, लौंग का भरपूर इस्तेमाल करें। लाल मिर्च बंद कर दें।
ऐसा खाना खाएं, जो आसानी से पच जाए। इससे लिवर पर जोर कम पड़ेगा।
खाने में बहुत तेल या मिर्च मसाला न खाएं।
गर्म तासीर वाला खाना न खाएं।
बहुत गर्म पानी से न नहाएं।

नोट: आयुर्वेदिक एक्सपर्ट से सलाह के बाद ही दवा लें। वह आपको बताएगा कि बीमारी के अनुसार आपको कौन-सी दवा सूट करेगी।

योग
सीधे बैठ जाएं और पालथी मार लें। हाथों को पैरों पर रख लें और बहुत धीरे-धीरे सांस बाहर निकालें ताकि पेट अंदर की तरफ जाए। फिर सांस भरें और पेट को आराम दें। यह अभ्यास कपालभाति की तरह होता है लेकिन ध्यान रखें कि यह कपालभाति नहीं है इसलिए इसे बहुत धीरे-धीरे करें। 15-20 बार करें। फिर आराम करें और फिर से अभ्यास करें। ऐसे दो सेट बैठकर करने के बाद दो सेट लेटकर करें। लेटकर पैरों को मोड़ लें और यह अभ्यास करें। यह लिवर को मजबूत बनाता है।

एक पैर से उत्तानपादासन कर सकते हैं। कमर के बल लेट जाएं और एक पैर को मोड़कर दूसरे पैर को सीधा फैलाकर ऊपर उठाएं। फिर पैर बदलकर करें। यह खून के दौर को पेट की तरफ बढ़ाएगा और लीवर को फिर से ताकत देगा।

धीरे-धीरे कटिचक्रासन करें। दोनों पैरों को मोड़कर एक साथ लेफ्ट साइड में ले जाएं और गर्दन को राइट साइड में ले जाएं। दोनों तरफ से दो-दो बार करें।

वज्रासन करें। घुटने मोड़कर बैठें। यह पाचन तंत्र को ताकत देगा।

अनुलोम-विलोम प्राणायाम करें।

डीप ब्रीदिंग करें।

नोट : अगर बीमारी बढ़ गई है तो पेट पर दबाव डालने या थकानेवाले अभ्यास बिल्कुल न करें। तब सिर्फ प्राणायाम करें।

ध्यान दें
पीलिया होने पर आमतौर पर लोग गन्ने का रस पीने और मूली खाने की सलाह देते हैं। कुछ लोग हल्दी खाने तो कुछ छोड़ने की सलाह देते हैं। ये सब गलतफहमियां हैं। तमाम मेडिकल एक्सपर्ट इनसे दूर रहने की सलाह देते हैं क्योंकि खुला और गंदा गन्ने का रस पीने से बीमारी के बढ़ने की आशंका होती है।

पीलिया या जॉन्डिस खुद में कोई बीमारी नहीं है। यह लिवर की बीमारी का लक्षण है। किसी भी तरह के हेपटाइटिस में पीलिया हो सकता है। इसी तरह लिवर का बढ़ना भी हेपटाइटिस या लिवर की दूसरी बीमारियों का लक्षण हो सकता है।

इलाज के दौरान कोई भी दवा लेने से पहले डॉक्टर से जरूर पूछें। कुछ दवाएं लिवर पर निर्भर करती हैं और अगर लिवर ठीक से काम नहीं कर रहा है तो इन दवाओं से मेटाबॉलिजम में भी कुछ गड़बड़ हो सकती है।

शराब पीना बिल्कुल बंद कर दें। इलाज के बाद अगर डॉक्टर इजाजत दे तो ही शराब पिएं और वह भी लिमिट में।

न्यूट्रिशन से भरपूर खाना खाएं, खासकर प्रोटीन से भरपूर। धीरज रखें, शरीर में ताकत लौटने में वक्त लग सकता है।

तेज और भारी एक्सरसाइज न करें, जब तक कि डॉक्टर सलाह न दें।

ऐसा कोई भी काम न करें, जिससे यह दूसरों तक फैले मसलन सेक्सुअल इंटरकोर्स, खुद के लगाई गई निडल का इस्तेमाल दूसरों को करने देना आदि।

फैक्ट्स
एचआईवी इन्फेक्शन से भी तेजी से फैलता है हेपटाइटिस। जहां एचआईवी के लिए इन्फेक्टेड 0.1 मिली खून जरूरी होता है, वहीं हेपटाइटिस सी 0.01 मिली और हेपटाइटिस बी सिर्फ 0.00001 मिली खून से हो जाता है। यानी अगर इतना-सा भी इन्फेक्टेड खून शरीर में पहुंच जाए तो हेपटाइटिस हो सकता है।

जिन बच्चों में हेपटाइटिस बी वायरस का इन्फेक्शन हो जाता है, उनके पूरी जिंदगी इस बीमारी से पीड़ित रहने की आशंका होती है।

हेपटाइटिस बी से होनेवाला लिवर कैंसर पुरुषों में कैंसर से होनेवाली मौतों में तीसरी बड़ी वजह बनता है।

80 फीसदी लिवर कैंसर हेपटाइटिस बी की वजह से होते हैं।

हेपटाइटिस बी के हर 100वें मरीज की हो जाती है लिवर कैंसर से मौत।

हेपटाइटिस से होनेवाली मौतों में से करीब 50 फीसदी की वजह शराब होती है।

25 पर्सेंट मरीजों में समस्या की शुरुआत पीलिया से होती है।

एक्सपर्ट्स पैनल
डॉ. एस. के. सरीन, डायरेक्टर, इंस्टिट्यूट ऑफ लिवर ऐंड बाइलरी साइंसेज
डॉ. एम. पी. शर्मा, एचओडी, गेस्ट्रोएंट्रॉलजी, रॉकलैंड हॉस्पिटल
डॉ. विवेक राज, डायरेक्टर, गेस्ट्रोएंट्रॉलजी ऐंड हेपेटॉलजी डिपार्टमेंट, मैक्स हेल्थकेयर
डॉ. हितेंद्र गर्ग, असिस्टेंट प्रफेसर, हेपेटॉलजी, एल्ब्स
डॉ. प्रदीप दुआ, रिसर्च ऑफिसर, सेंट्रल काउंसिल फॉर रिसर्च इन आयुर्वेदिक साइंसेज
डॉ. शिखा शर्मा, न्यूट्री-डाइट एक्सपर्ट
डॉ. आलोक कुमार, डिप्टी एडवाइजर, होम्योपैथी, आयुष विभाग
सुरक्षित गोस्वामी, योग गुरु(नवभारत टाइम्स,12 दिसम्बर,2010)

5 टिप्‍पणियां:

  1. एक साथ इतनी सारी काम की जानकारी ... बहुत ही उपयोगी पोस्ट। तस्वीरें कमाल की हैं!! बहुत अच्छी प्रस्तुति। हार्दिक शुभकामनाएं!
    आज की कविता का अभिव्‍यंजना कौशल

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  2. .

    Thanks for this informative post.

    PS- 'itis' means infection not swelling . But swelling occurs due to infection .

    The medical term for swelling is- 'oedema'

    .

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  3. बहुत मेहनत से लिखी पोस्ट के लिए आप बधाई के पात्र हैं ।
    अच्छी जानकारी सभी के लिए ।

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  4. बहुत ही बेहतरीन जानकारी दी है आपने, बहुत-बहुत धन्यवाद!



    प्रेमरस.कॉम

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