करीब बीस वर्ष पहले पहचान में आई बीमारी एचआईवी/एड्स से इंसानों की जितनी मौतें हुई, उतनी आज तक के ज्ञात मानव इतिहास में किसी भी बीमारी से समूचे विश्व में एक साथ मौतें नहीं हुई है। पांच करोड़ 30 लाख से अधिक लोग इस भयावह बीमारी से संक्रमित हो चुके हैं और अभी तक इस बीमारी से एक करोड़ 88 लाख लोग मौत के मुंह में समा चुके हैं। आज तक 130 लाख बच्चे इस बीमारी के चलते अनाथ हो चुके हैं, क्योंकि उनके माता-पिता दोनों ही इसी बीमारी के चलते मर चुके हैं। दुर्भाग्य से ये सभी आंकड़े हर दिन तेजी से बढ़ रहे हैं। विश्व भर के नेता इस बीमारी का जल्दी पता लगाने, प्रभावी व अचूक उपचार करने, इससे बचने और पीडि़तों की देखभाल करने जैसी बातों को सभी के लिए मानव अधिकारों की सूची में शामिल करने की अपील कर रहे हैं।
दुनिया अब जान चुकी है कि एड्स जैसी महामारी से लड़ने के लिए मानव अधिकारों की सुरक्षा करना मूलभूत अधिकारों के तहत बेहद जरूरी है। मानव अधिकारों की अवहेलना से सेक्स वर्करों और नशेडि़यों के बीच यह बीमारी बेहद गंभीर खतरा बनकर मौजूद रहती है। वैसे इस दिशा में एचआईवी और एड्स नियंत्रण के प्रशंसनीय कार्य हुए हैं और हो भी रहे हैं, लेकिन एचआईवी और एड्स के नियंत्रण का लक्ष्य प्राप्त करने के लिए और प्रयत्न करने की जरूरत है। अन्यथा,हर वर्ष लाखों लोग इसी तरह एचआईवी बीमारी से संक्रमित होते रहेंगे और यह पूरी दुनिया में तेजी से फैलती रहेगी। लांछन और कलंक एचआईवी एड्स ने मानव जाति को समानांतर रूप से विभाजित कर दिया है। वैज्ञानिक जगत इस बीमारी की रोकथाम और इलाज की खोज करने में अपना सिर खपा रह है।
पूरी दुनिया में सभी स्थानीय सरकारें एचआईवी एड्स से बचे रहने के बारे में जागरूकता अभियान छेड़े हुए हैं। सभी सरकारें, स्वयंसेवी संस्थाए, सामाजिक कार्यकर्ता और स्वयंसेवक आम लोगों को यह बताने में अपनी पूरी ताकत लगा रहे हैं कि यह बीमारी छुआछूत से नहीं फैलती और इससे पीडि़तों के साथ सद्भावना से पेश आना चाहिए। लेकिन इसके ठीक उलट लोग एड्स से पीडि़त व्यक्ति को घृणा से देखते हैं और उससे दूरी बना लेते हैं। एचआईवी से संक्रमित व्यक्ति का राज खुलने पर उसके माथे पर कलंक का टीका लग जाता है। यह कलंक इस बीमारी से भी बड़ा होता है और पीडि़त को घोर निराशा का जीवन जीते हुए अपने मूलभूत अधिकारों और मौत के अंतिम क्षण तक एक अच्छी जिंदगी जीने से वंचित होना पड़ता है। बीमारी से दूरी, बीमार से नहीं दि कोलीशन फॉर इलिमिनेसन ऑफ एड्स रिलेटेड स्टिग्मा (सीईएएस) का कहना है कि अब वक्त आ गया है कि हम सभी एचआईवी एड्स को कलंक के रूप में प्रचारित करने की अपनी सोच और आचरण में बदलाव लाने के लिए चर्चा सत्र शुरू करें। हमें एचआईवी एड्स से जुडी हर चर्चा, प्रतिबंधात्मक उपाय और शोध का कार्य करते रहने के दौरान इससे जुड़े कलंक को खत्म करने के मुद्दे को भी शामिल करना चाहिए।
आज हमें एचआईवी एड्स पर कुछ अलग चर्चा करने की जरूरत महसूस होने लगी है और पूरी दुनिया के शोधार्थी, समुदाय, नेतागण और अन्य सभी इस विषय को प्रमुखता दें। विश्व एड्स दिवस सभी लोगों, समूहों, नेताओं समेत सभी को यह सुनहरा मौका दे रहा है कि वे एड्स पीडि़तों पर लगे कलंक के टीके को पोंछने और उनके मानव अधिकारों की रक्षा के लिए निर्णायक कार्य करें। कलंक की यह आंधी बड़ी तेजी से फैल रही है और समाज को दो भागों में बांट रही है। अत: विश्व एड्स दिवस के अवसर पर एड्स पीडि़तों के साथ हो रहे भेदभाव को जड़ से मिटाने के लिए बहुत ही बड़े स्तर पर कार्य करने का वक्त आ गया है। जीने का अधिकार इस वर्ष के लिए ह्यूमन राइट्स एंड एक्सेस टु ट्रीटमेंट यानी मानव अधिकार और इलाज तक की पहुंच के नाम से स्लोगन बनाया गया है। इसके तहत सभी पीडि़तों को इलाज की सुविधा देने, उनकी सुरक्षा और देखभाल करने जैसे लक्ष्यों को पूरा करने की योजनाएं बनी हैं। इस स्लोगन के मध्यम से पूरी दुनिया के सभी देशों को बताया जाएगा कि वे इस रोग से पीडि़तों के इलाज और सामान्य जीवन जीने में बाधक बने कानूनों को सुधारें और नए कानून बनाएं।
मानव अधिकार सभी के लिए मूलभूत अधिकार के रूप में है। एड्स से पीडि़त लोगों के साथ हो रहे भेदभाव, उन्हें परेशान करने और सताने जैसी प्रथाओं को रोकना होगा। पूरी दुनिया में यह एक कड़वा सच है कि इससे पीडि़त लोगों को कलंकित घोषित कर दिया जाता है, जो नौकरी पर हैं, उन्हें नौकरी छोड़नी पड़ती है। स्कूलों से बच्चों को निकाल दिया जाता है। यहां तक कि इससे पीडि़त लोगों को इलाज कराने तक के मूलभूत अधिकार से वंचित कर दिया जाता है। कई बार अस्पताल और डॉक्टर-नर्स आदि एड्स पीडि़तों का इलाज करने से मन कर देते हैं। भारत में भयावहता अपने देश में वर्ष 1986 में एड्स के पहले मरीज का पता चला था। तब से अब तक देश के सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में एचआईवी संक्रमित लोगों का फैलाव हो चुका है। वैसे एचआईवी संक्रमित मरीजों का अनुपात अपने देश में कम ही रहा है। हां, दक्षिण भारत और सुदूर उत्तर-पूर्व के राज्यों में इन मरीजों की संख्या कुछ अधिक है। एचआईवी से ग्रस्त मरीजों की अधिकता महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश व कर्नाटक तथा उत्तर-पूर्व में मणिपुर व नागालैंड में है। अगस्त 2006 में राष्ट्रीय स्तर पर जारी एक सर्वे रिपोर्ट के अनुसार एड्स से पीडि़त कुल मरीजों में से 90 फीसदी मरीज देश के सभी 38 राज्यों व केंद्र शासित प्रदेशों में पाए गए थे। भारत में एड्स बीमारी को किसी और की समस्या के रूप में देखा जाता है। इससे पीडि़त लोगों की जीवनशैली व उनके चरित्र को संदेह की नजर से देखा जाता है।
सबसे दुर्भाग्यपूर्ण तो यह है कि कई बार इस बीमारी से मरने वाले व्यक्ति का अंतिम संस्कार तक करने से इनकार कर दिया गया है। एचआईवी एड्स के संक्रमण के मुद्दे पर महाराष्ट्र और देश के अन्य राज्यों के बीच तुलना करना आज जरूरी हो गया है। महाराष्ट्र में यह बीमारी एक गंभीर समस्या बन चुकी है। इस राज्य में 7.50 लाख मरीज एचआईवी से ग्रस्त हैं और इस बाबत महाराष्ट्र देश में दूसरे नंबर पर है। नई जानकारी के अनुसार राज्य में इस समय सेक्स आधारित सभी मरीजों में 18.4 फीसदी मरीज एचआईवी के और 1.8 फीसदी मरीज एएनसी के थे। वर्ष 2004 में जारी आकड़ों के मुताबिक 93,650 लोग एचआईवी पॉजिटिव पाए गए थे, जबकि 2010 में यह आंकड़ा 11,53810 जा पहुचा है(उमा श्रीराम,दैनिक जागरण,1.12.2010)।
दुनिया अब जान चुकी है कि एड्स जैसी महामारी से लड़ने के लिए मानव अधिकारों की सुरक्षा करना मूलभूत अधिकारों के तहत बेहद जरूरी है। मानव अधिकारों की अवहेलना से सेक्स वर्करों और नशेडि़यों के बीच यह बीमारी बेहद गंभीर खतरा बनकर मौजूद रहती है। वैसे इस दिशा में एचआईवी और एड्स नियंत्रण के प्रशंसनीय कार्य हुए हैं और हो भी रहे हैं, लेकिन एचआईवी और एड्स के नियंत्रण का लक्ष्य प्राप्त करने के लिए और प्रयत्न करने की जरूरत है। अन्यथा,हर वर्ष लाखों लोग इसी तरह एचआईवी बीमारी से संक्रमित होते रहेंगे और यह पूरी दुनिया में तेजी से फैलती रहेगी। लांछन और कलंक एचआईवी एड्स ने मानव जाति को समानांतर रूप से विभाजित कर दिया है। वैज्ञानिक जगत इस बीमारी की रोकथाम और इलाज की खोज करने में अपना सिर खपा रह है।
पूरी दुनिया में सभी स्थानीय सरकारें एचआईवी एड्स से बचे रहने के बारे में जागरूकता अभियान छेड़े हुए हैं। सभी सरकारें, स्वयंसेवी संस्थाए, सामाजिक कार्यकर्ता और स्वयंसेवक आम लोगों को यह बताने में अपनी पूरी ताकत लगा रहे हैं कि यह बीमारी छुआछूत से नहीं फैलती और इससे पीडि़तों के साथ सद्भावना से पेश आना चाहिए। लेकिन इसके ठीक उलट लोग एड्स से पीडि़त व्यक्ति को घृणा से देखते हैं और उससे दूरी बना लेते हैं। एचआईवी से संक्रमित व्यक्ति का राज खुलने पर उसके माथे पर कलंक का टीका लग जाता है। यह कलंक इस बीमारी से भी बड़ा होता है और पीडि़त को घोर निराशा का जीवन जीते हुए अपने मूलभूत अधिकारों और मौत के अंतिम क्षण तक एक अच्छी जिंदगी जीने से वंचित होना पड़ता है। बीमारी से दूरी, बीमार से नहीं दि कोलीशन फॉर इलिमिनेसन ऑफ एड्स रिलेटेड स्टिग्मा (सीईएएस) का कहना है कि अब वक्त आ गया है कि हम सभी एचआईवी एड्स को कलंक के रूप में प्रचारित करने की अपनी सोच और आचरण में बदलाव लाने के लिए चर्चा सत्र शुरू करें। हमें एचआईवी एड्स से जुडी हर चर्चा, प्रतिबंधात्मक उपाय और शोध का कार्य करते रहने के दौरान इससे जुड़े कलंक को खत्म करने के मुद्दे को भी शामिल करना चाहिए।
आज हमें एचआईवी एड्स पर कुछ अलग चर्चा करने की जरूरत महसूस होने लगी है और पूरी दुनिया के शोधार्थी, समुदाय, नेतागण और अन्य सभी इस विषय को प्रमुखता दें। विश्व एड्स दिवस सभी लोगों, समूहों, नेताओं समेत सभी को यह सुनहरा मौका दे रहा है कि वे एड्स पीडि़तों पर लगे कलंक के टीके को पोंछने और उनके मानव अधिकारों की रक्षा के लिए निर्णायक कार्य करें। कलंक की यह आंधी बड़ी तेजी से फैल रही है और समाज को दो भागों में बांट रही है। अत: विश्व एड्स दिवस के अवसर पर एड्स पीडि़तों के साथ हो रहे भेदभाव को जड़ से मिटाने के लिए बहुत ही बड़े स्तर पर कार्य करने का वक्त आ गया है। जीने का अधिकार इस वर्ष के लिए ह्यूमन राइट्स एंड एक्सेस टु ट्रीटमेंट यानी मानव अधिकार और इलाज तक की पहुंच के नाम से स्लोगन बनाया गया है। इसके तहत सभी पीडि़तों को इलाज की सुविधा देने, उनकी सुरक्षा और देखभाल करने जैसे लक्ष्यों को पूरा करने की योजनाएं बनी हैं। इस स्लोगन के मध्यम से पूरी दुनिया के सभी देशों को बताया जाएगा कि वे इस रोग से पीडि़तों के इलाज और सामान्य जीवन जीने में बाधक बने कानूनों को सुधारें और नए कानून बनाएं।
मानव अधिकार सभी के लिए मूलभूत अधिकार के रूप में है। एड्स से पीडि़त लोगों के साथ हो रहे भेदभाव, उन्हें परेशान करने और सताने जैसी प्रथाओं को रोकना होगा। पूरी दुनिया में यह एक कड़वा सच है कि इससे पीडि़त लोगों को कलंकित घोषित कर दिया जाता है, जो नौकरी पर हैं, उन्हें नौकरी छोड़नी पड़ती है। स्कूलों से बच्चों को निकाल दिया जाता है। यहां तक कि इससे पीडि़त लोगों को इलाज कराने तक के मूलभूत अधिकार से वंचित कर दिया जाता है। कई बार अस्पताल और डॉक्टर-नर्स आदि एड्स पीडि़तों का इलाज करने से मन कर देते हैं। भारत में भयावहता अपने देश में वर्ष 1986 में एड्स के पहले मरीज का पता चला था। तब से अब तक देश के सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में एचआईवी संक्रमित लोगों का फैलाव हो चुका है। वैसे एचआईवी संक्रमित मरीजों का अनुपात अपने देश में कम ही रहा है। हां, दक्षिण भारत और सुदूर उत्तर-पूर्व के राज्यों में इन मरीजों की संख्या कुछ अधिक है। एचआईवी से ग्रस्त मरीजों की अधिकता महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश व कर्नाटक तथा उत्तर-पूर्व में मणिपुर व नागालैंड में है। अगस्त 2006 में राष्ट्रीय स्तर पर जारी एक सर्वे रिपोर्ट के अनुसार एड्स से पीडि़त कुल मरीजों में से 90 फीसदी मरीज देश के सभी 38 राज्यों व केंद्र शासित प्रदेशों में पाए गए थे। भारत में एड्स बीमारी को किसी और की समस्या के रूप में देखा जाता है। इससे पीडि़त लोगों की जीवनशैली व उनके चरित्र को संदेह की नजर से देखा जाता है।
सबसे दुर्भाग्यपूर्ण तो यह है कि कई बार इस बीमारी से मरने वाले व्यक्ति का अंतिम संस्कार तक करने से इनकार कर दिया गया है। एचआईवी एड्स के संक्रमण के मुद्दे पर महाराष्ट्र और देश के अन्य राज्यों के बीच तुलना करना आज जरूरी हो गया है। महाराष्ट्र में यह बीमारी एक गंभीर समस्या बन चुकी है। इस राज्य में 7.50 लाख मरीज एचआईवी से ग्रस्त हैं और इस बाबत महाराष्ट्र देश में दूसरे नंबर पर है। नई जानकारी के अनुसार राज्य में इस समय सेक्स आधारित सभी मरीजों में 18.4 फीसदी मरीज एचआईवी के और 1.8 फीसदी मरीज एएनसी के थे। वर्ष 2004 में जारी आकड़ों के मुताबिक 93,650 लोग एचआईवी पॉजिटिव पाए गए थे, जबकि 2010 में यह आंकड़ा 11,53810 जा पहुचा है(उमा श्रीराम,दैनिक जागरण,1.12.2010)।
sach mein yah ek bahut gambhir vicharniya aur chintanya vishya hai..
जवाब देंहटाएंsaarthak prasuti ke liye aabhar..