शनिवार, 2 अक्तूबर 2010

यूपीःआयुर्वेद के नाम पर,सब बेचो सीना तानकर

किराना की छोटी सी दुकान खोलने के लिए बिक्रीकर विभाग से लाइसेंस लेना पड़ता है लेकिन आयुर्वेदिक दवाओं की दुकान के लिए ऐसी कोई प्रक्रिया नहीं। कहीं भी जगह का इंतजाम करिये और बैठ जाइये दवा बेचने। न कोई पूछताछ और न ही नमूने लिये जाने की चिंता। असल में राज्य में अभी तक आयुर्वेदिक और यूनानी दवाओं की बिक्री के लिए कोई भी मानक नहीं तय हो पाये हैं। ऐसी कितनी दुकानें प्रदेश में चल रही हैं? इसका कोई ब्योरा भी नहीं है। यही नहीं विभाग के पास एक भी ड्रग इंस्पेक्टर नहीं है। यही वजह है कि पान से लेकर पंसारी तक की दुकान तक आयुर्वेदिक दवाएं बिक रही हैं, साथ ही हर गली मुहल्ले में इनका निर्माण भी हो रहा है। औषधि एवं प्रसाधन अधिनियम-1940 के नियम 162 के अनुसार हर वर्ष किसी भी प्रकार की औषधि की दुकान व निर्माण इकाई का कम से कम दो बार निरीक्षण किया जाएगा। इसके लिए सम्बन्धित विभाग एक तंत्र का निर्माण करेंगे। आयुर्वेद निदेशालय के आंकड़ों की मानें तो राज्य में कुल 2345 इकाइयां आयुर्वेद व यूनानी दवाओं का निर्माण कर रही हैं। यहां निर्मित दवाएं कहां बिक रही हैं? प्रदेश में कुल कितनी आयुर्वेदिक व यूनानी दवा की दुकानें हैं? इसका ब्योरा किसी के पास नहीं है। वजह यह है कि ऐसी दवा दुकानों को खोलने का कोई मानक अभी तक तय नहीं हो पाया है। विभाग के पास दुकानों की निगरानी करने व उनका ब्योरा रखने के लिए एक भी ड्रग इंस्पेक्टर नहीं है। यही वजह है कि राज्य में चल रहीं आयुर्वेदिक व यूनानी दवा की दुकानों पर बिक रहा सामान कितना सही है इसकी जांच नहीं हो पा रही है। इसका खामियाजा मरीज भुगत रहे हैं। पैसा खर्च करने के बाद भी उन्हें गुणवत्तायुक्त सामान नहीं मिल पा रहा। आयुर्वेद निदेशालय में तैनात एक चिकित्साधिकारी बताते हैं कि कोई मॉनीटरिंग सेल न होने के कारण नकली व घटिया दवाओं का धंधा जोरों पर है। जितनी दवाएं बाजार में बिक रहीं हैं उनमें करीब सभी में निर्माता कम्पनी का पता या तो गुजरात का होता है या फिर महाराष्ट्र, पंजाब का। यह पते ज्यादातर गलत होते हैं। आसपास के जिलों से दवाएं बनाकर, उनपर बाहरी प्रदेश के जिलों का गलत पता चस्पा कर राजधानी में लाकर बेचा जा रहा है। निगरानी की कोई व्यवस्था नहीं है, ऐसे में इस बात की पड़ताल नहीं होती कि दवा पर जिस निर्माता कम्पनी का जिक्र है वह वास्तव में है भी कि नहीं। आयुर्वेदिक दवाओं में एल्कोहल व अफीम की मात्रा भी होती है। औषधि एवं प्रसाधन अधिनियम के तहत ऐसी ऐलोपैथिक दवाओं को बेचने के लिए विशेष पंजीकरण की जरूरत होती है, लेकिन आयुर्वेद के नाम पर सब माफ है। दो साल पहले औद्योगिक विष अनुसंधान संस्थान (आईटीटीआर) ने बाजार में बिक रहे च्वयनप्राश के नमूनों की जांच की थी तो चौंकाने वाली जानकारी मिली थी। इसके मुताबिक अष्टवर्ग को जोड़कर च्वयनप्राश में कुल 49 द्रव्य होने चाहिए, लेकिन जांच के लिए आये नमूनों में इनकी मात्रा 20 भी नहीं थी। च्वयनप्राश शकरकंद, घुइया, कद्दू डालकर बनाया गया था। इस रिपोर्ट के आने के बाद भी निदेशालय स्तर से कोई कार्रवाई नहीं की गई। दरअसल,उत्तर प्रदेश में दो दर्जन जिले बगैर औषधि निरीक्षक (ड्रग इंस्पेक्टर) के हैं। एक-एक औषधि निरीक्षक को कई जिलों का कार्यभार देखना पड़ रहा है। ऐसे में कुल पंजीकृत 73,028 दुकानों की निगरानी कैसे होगी इसका अंदाजा लगाया जा सकता है। अवैध रूप से चल रही दुकानों की तो बात ही छोड़ दीजिये। 2003 में हाथी समिति और नित्यानंद समिति की सिफारिशों पर केंद्र सरकार ने एक मानक तय किया था कि 250 दुकानों और 15 फार्मेसी पर एक औषधि निरीक्षक तैनात किया जाएगा। इस हिसाब से राज्य में चल की 73 हजार दवा की दुकानों और छह सौ दवा फैक्टि्रयों की निगरानी के लिए 290 निरीक्षकों की जरूरत है। इनके सापेक्ष काम कर रहे हैं महज 67। करीब 25 जिले ऐसे हैं जहां एक भी औषधि निरीक्षक नहीं है। इस वजह से कई निरीक्षकों को एक से ज्यादा जिलों का काम संभालना पड़ रहा है। एक औषधि निरीक्षक बताते हैं कि समस्या केवल यही नहीं है। न्यायालय में चल रहे मामलों की पैरवी भी इन्हीं निरीक्षकों के जिम्मे है। ऐसे में महीने में एक तिहाई दिन तो कोर्ट में ही बीत जाता है। एक निरीक्षक के जिम्मे कम से कम औसतन 1200 दुकानों के निरीक्षण का जिम्मा होता है। यदि रोज तीन दुकानें भी देखी जाएं तो भी एक साल में सभी दुकानों की जांच नहीं हो सकती है जबकि नियम यह है कि छह माह में एक बार दुकान में बिक रही दवाओं के नमूने जरूर लिये जाएं। इसके अलावा औषधि निरीक्षकों को दवा माफियाओं से जान का भी खतरा होता है। पुलिस द्वारा इन्हें पर्याप्त सुरक्षा नहीं मुहैया करायी जाती। बीते माह आगरा में दुकानों पर छापा मारने गये एक ड्रग इंस्पेक्टर को दवा माफिया ने पीट कर मार डाला था। दिक्कत केवल यही नहीं नमूने भरने के लिए जाने वाले निरीक्षकों को स्वयं के वाहन का इस्तेमाल करना पड़ता है। विभाग इनके लिए कोई वाहन नहीं मुहैया कराता। इससे दूरदराज के स्थानों पर चल रही दवा दुकानों का निरीक्षण नहीं हो पाता। यही वजह है कि बीते दिनों राज्य में जितनी दुकानों पर छापे मारे गये उसमें से करीब सभी शहरी इलाकों में चल रही थीं। ग्रामीण इलाकों में चलने वाली दवा की दुकानों पर अभी तक कोई कार्रवाई नहीं हुई है। यहां पर अवैध रूप से दुकानों के चलने व नकली दवा बिकने की आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता(आशीष मिश्र,दैनिक जागरण,लखनऊ,2.10.2010)।

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