जम्मू-कश्मीर में स्वास्थ्य एवं चिकित्सा शिक्षा विभाग के अस्थायी कर्मचारियों ने एक बार फिर से आंदोलन शुरू करने की जो चेतावनी दी उसे राज्य सरकार को गंभीरता से लेना चाहिए। यह इसलिए जरूरी है, क्योंकि अगर हड़ताल शुरू होती है तो इससे मरीजों के साथ-साथ तीमारदारों की दिक्कतें बढ़ जाएंगी। ये कर्मचारी पिछले कई वर्ष से अपनी मांगों को लेकर संघर्ष करते आ रहे हैं। इसमें कोई दो राय नहीं कि मेडिकल कालेज सहित राज्य भर के अस्पतालों को चलाने में इन कर्मचारियों की अहम भूमिका है, बावजूद इसके चिकित्सा कर्मचारियों की स्थायी नियुक्तियां नहीं हो पाईं। विडंबना यह है कि पिछले पंद्रह वर्षो से तदर्थ और अनुबंध पर लगे ये स्वास्थ्य कर्मचारी मात्र पंद्रह सौ या दो हजार रुपए वेतन पर ही गुजारा करने को मजबूर हैं। इससे सरकार की कर्मचारियों के प्रति उदासीनता साफ हो जाती है। अगर हम बात जम्मू शहर की करें तो समय के साथ अस्पतालों में मरीजों का बोझ तो बढ़ा, लेकिन स्थायी कर्मचारियों की संख्या उतनी ही रही जितनी की तीन दशक पहले थी। परिणाम यह है कि सरकार बेहतर स्वास्थ्य सुविधाएं उपलब्ध करवाने के दावों को अमलीजामा नहीं पहना सकी। ऐसे में बेहतर तो यह होता कि सरकार दिहाड़ी, तदर्थ और एकमुश्त तनख्वाह पर लगाए गए कर्मचारियों को नियमित करती। बात अगर सरकार की नीतियों की जाए तो सात साल पूरे करने वाले किसी भी तदर्थ कर्मचारी को नियमित करना होता है, लेकिन यहां ऐसा नहीं हो पाया। दूसरी ओर पीडीडी व अन्य विभागों के कर्मचारियों को तो इस नीति के तहत सरकार ने नियमित कर दिया। ऐसे में स्वास्थ्य कर्मचारियों की सुधि न लेना सरकार की उदासीनता का दर्शाता है। मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने इन कर्मचारियों को तीन महीने में स्थायी करने का आश्वासन दिया था, मगर छह महीने व्यतीत होने के बावजूद ये आश्वासन कोरे साबित हुए(संपादकीय,दैनिक जागरण,27.10.2010)।
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