चिकित्सक के पेशे में सिर्फ पैसा कमाना ही नहीं सेवाभाव भी अहम होता है, इसीलिए उसे भगवान का दूसरा रूप भी माना जाता है। लेकिन लगता है कि अब कुछ चिकित्सक सेवाभाव को भूल गए हैं। तभी तो बाहरी दिल्ली के एक अस्पताल के चिकित्सकों ने सिर्फ इसलिए एक बीमार नवजात शिशु का इलाज करने से इनकार कर दिया कि उसके शरीर से बदबू आ रही थी। और शिशु ने इलाज के अभाव में दम तोड़ दिया। इतना ही नहीं, उसके जन्म लेने से पहले उसकी मां को भी इसी अस्पताल के डॉक्टरों ने बिना जांच के ही यह कहकर भर्ती करने से मना कर दिया था कि उसके पेट में बच्चा मरा हुआ है। हालांकि बच्चे के पिता ने तब अस्पताल के बाहर भीख मांगकर पत्नी को निजी अस्पताल में भर्ती कराया और वहां उसने शिशु को जन्म दिया। इसी शिशु का इलाज कराने के लिए लाचार पिता फिर उसी अस्पताल में आ गया। यह घटना स्तब्ध कर देने वाली है। आखिर कोई चिकित्सक इतना संवेदनहीन कैसे हो सकता है। इसके पहले अभी हाल में कनॉट प्लेस में एक गरीब महिला ने सड़क के किनारे पड़े-पडे़ दम तोड़ दिया था, तब भी शायद उसकी गरीबी ही उसकी मौत का कारण बनी थी। वैसे यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि राजधानी में एक से एक अच्छे निजी व सरकारी अस्पताल होने के बावजूद लोग कभी सड़क पर तो कभी अस्पताल की दहलीज पर जान देने को विवश हैं। ऐसी घटनाएं जब दिल्ली जैसे शहर में हो रही हैं तो दूरदराज के अस्पतालों में चिकित्सा सेवा की क्या स्थिति होगी इसे आसानी से समझा जा सकता है। मरीज के लिए चिकित्सक भगवान होता है तो मरीज पर भी चिकित्सक की सारी साख टिकी होती है। यदि वह अपने पेशे के प्रति न्याय नहीं कर रहा है तो वह चिकित्सक कहलाने का हकदार नहीं है। स्वास्थ्य विभाग को ऐसे चिकित्सकों के खिलाफ कड़ी से कड़ी कार्रवाई करनी चाहिए, जिससे भविष्य में कोई लाचार इलाज के अभाव में दम न तोड़े। दिल्ली सरकार को भी इस वाकये को गंभीरता से लेना चाहिए। स्वास्थ्य विभाग को अस्पतालों को स्पष्ट दिशानिर्देश जारी करने चाहिए कि वे आर्थिक रूप से कमजोर लोगों का भी उसी गुणवत्ता के साथ इलाज करें, जैसा वे समृद्ध लोगों का करते हैं(संपादकीय,दैनिक जागरण,दिल्ली,9.9.2010)।
इसी विषय पर हम अपना टिप्पणी एगो दूसरा ब्लॉग ZEAL पर लिखे थे..एगो घटना है..वही यहाँ पेस्ट कर रहे हैंः
जवाब देंहटाएंमेरे चाचा की पंदरह साल की बच्ची दिल के दौरे से छटपटा रही थी..हमें पता था वो ज़िंदा नहीं बचेगी..हर बार दिल्ली का डॉक्टर छः महीने की दवा देता था यह सोचकर कि अगले छः महीने बाद वो लौट कर नहीं आएगी...और दस साल से वो पदरह साल की हो गई... सुंदर, गोल मटोल, प्यारी सी… जब उसे दौरा पड़ा तो वो हस्पताल में छटपटा रही थी और जिसके वार्ड में उसे भर्ती करवाया गया था, वो सुबह आठ बजे की जगह ग्यारह बजे आए किसी पर्सनल कारण से.. जब हम लोगों ने गुस्से में बुरा भला कहा (जो स्वाभाविक था, यह जानते हुए कि शायद वो आकर भी उसकी ज़िंदगी नहीं बचा सकते थे) तो उन्होंने लाश जब्त कर ली, पुलिस को इत्तला की और सबको गिरफ्तार करने की धमकी दे डाली... चाचा जी आई.ए.एस. थे यह बात उन डॉक्टर साहब को पता नहीं थी...
ख़ैर चाचा जी ने कुछ नहीं किया, मौक़ा वैसा नहीं था... पर डॉक्टर के अंदर आदमीयत की कमी, आज भी दिल को कचोट जाती है..
चिकित्सकों का यह स्तर बहुत सोचनीय है !
जवाब देंहटाएंविचारणीय बात कही.
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी पोस्ट। समयानुकुल!
जवाब देंहटाएंआंच पर संबंध विस्तर हो गए हैं, “मनोज” पर, अरुण राय की कविता “गीली चीनी” की समीक्षा,...!
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जवाब देंहटाएंहमको चिट्ठचर्चा वाले मनोज कुमार जी ने भेजा है.. और मैंनें आद्योपाँत यह पोस्ट पढ़ने के बाद यह पाया है कि...
काश कि आदमीयत की बात करने वाले अपने सामने खड़े बँदे की आदम ज़रूरतों ( Basic Human needs ) को समझ पाते या हिँसक समूह के सम्मुख अपनाये जाने वाले आदम प्रतिक्रिया ( Human Reaction ) को समझ पाते ?
काश कि आदमीयत की बात करने वाले यह समझ पाते कि समाज की आदमीयत में हम स्वयँ कहाँ हैं ?
काश कि आदमीयत की बात करने वाले यह भी सोच पाते कि देवत्व का बलात अभिषेक कर देने मात्र से वह अपने कुकृत्यों पर देवताओं से श्रापित होने से बरी नहीं हो जाते ! काश कि वह अपने गढ़े हुये ऎसे देवताओं के कोप ( हड़-ताल ) के कारणों की पड़ताल या प्रायश्चित करने की क्षमता भी अपने में विकसित कर पाते ।