नौ महीने अपनी कोख में बच्चे को पालने और फिर छाती से लगाकर दूध पिलाने वाली उस मां के हृदय पर क्या गुजरी होगी जब वह बीमारी से रोकथाम के लिए अपने बच्चे को टीका लगवाने भेजे; पर उसे हमेशा के लिए खो बैठे! पिछले दिनों लखनऊ के निकट मोहनलालगंज क्षेत्र के गांवों में चल रहे टीकाकरण अभियान के अंतर्गत हुई चार शिशुओं की मौत ने समूचे चिकित्सा जगत को सकते में ला दिया है और सरकारी टीकाकरण अभियानों की विश्वसनीयता को प्रश्नों के घेरे में ला खड़ा किया है।
माता-पिता चाहे अमीर हों या गरीब, अपने नन्हे-मुन्नों को बीमारी से बचाने की चिंता उन्हें व्याकुल किए रहती है। ग्रामीण इलाकों में गरीब मां-बाप के लिए सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों पर चलने वाले सरकारी टीकाकरण कार्यक्रम ही उनके बच्चों के लिए उम्मीद के केंद्र होते हैं। चिकित्सा विज्ञान और सरकारी चिकित्सा व्यवस्था पर कितना विश्वास रखकर गरीब मां-बाप अपने बच्चों का टीकाकरण करवाते हैं। स्वयं सरकार टीकाकरण के प्रचार-प्रसार व जागरूकता के लिए अभियान चलाती है।
निजी अस्पतालों व प्राइवेट डॉक्टरों के क्लीनिकों में जाकर बच्चों का टीकाकरण करवाना महंगा होने के कारण प्रायः गरीबों के बस की बात नहीं रहती। ऐसे में सरकारी टीकाकरण कार्यक्रम ही उनके बच्चों के स्वास्थ्य का आधार साबित होते हैं। दूर-दूर के गांवों में जहां चिकित्सा सुविधाओं का प्रायः अभाव रहता है, वहां सरकारी सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र ही ग्रामीण बच्चों के स्वास्थ्य की उम्मीद बंधाते हैं। पर हाल की मोहनलालगंज जैसी दुखद घटनाएं गरीबों की उम्मीद व विश्वास को हिला देने वाली साबित होती हैं। मोहनलालगंज क्षेत्र के गांवों में इस खबर के फैलते ही भड़कने वाला ग्रामीणों का आक्रोश और उसके बाद सरकारी टीकाकरण कार्यक्रम के प्रति वहां उपजा अविश्वास व असंतोष स्वाभाविक ही था।
इस घटना की जांच के लिए केंद्र व राज्य सरकारों ने अपनी-अपनी जांच कमेटियां इस क्षेत्र में सक्रिय कर दी हैं। जरूरत इस बात की है कि इस संदर्भ में निष्पक्ष व न्यायसंगत ढंग से जांच-पड़ताल हो और संबंधित दोषियों को कड़ा दंड मिले। यह मसला केंद्र व राज्य सरकार के बीच आरोप-प्रत्यारोप की बहस में उलझकर न रह जाए। बल्कि इसका शीघ्र न्यायसंगत व निष्पक्ष फैसला सुनिश्चित किया जाए ताकि भविष्य में भूल से भी नौनिहालों के जीवन से इस प्रकार का कोई खिलवाड़ न हो।
हालांकि अभी घटना के वास्तविक कारण का पता नहीं चला है फिर भी इस घटना ने एक बार फिर नकली दवाओं की समस्या की ओर संकेत किया है। बच्चों को रोगों से बचाने वाली दवा ही जब उनकी मौत का सबब बन जाए तो दवा उद्योग पर कोई कैसे विश्वास करे!(रेशमा भारती,नई दुनिया,दिल्ली,31.8.2010)
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