शनिवार, 5 जून 2010

उन्हें क्यों कड़वी लगती हैं मीठी गोलियां-डा. ए.के.अरूण

विगत कुछ वर्षो से दुनिया में होम्योपैथी पर एलोपैथिक लाबी का आक्रमण कुछ ज्यादा ही हो रहा है। अभी पिछले सप्ताह ब्रिटेन के जूनियर डाक्टरों के एक संगठन ने होम्योपैथी को जादू-टोना कहकर इसे प्रतिबंधित करने की मांग की है। ब्रिटिश मेडिकल एसोसिएशन ने एक प्रस्ताव पास कर होम्योपैथी पर नेशनल हेल्थ सर्विस के चार मिलियन पाउंड की बजट राशि को भी खत्म करने की मांग की है। एलोपैथिक लॉबी द्वारा होम्योपैथ की प्रभावशीलता, वैज्ञानिकता एवं इसकी उपचारक क्षमता पर किया गया यह हमला नया नहीं है। कोई पांच वर्ष पहले भी अगस्त 2005 में ब्रिटेन से ही प्रकाशित पत्रिका द लैंसेट में एक विवादास्पद टिप्पणी छपी थी। शीर्षक था, होम्योपैथी का अंत। इस टिप्पणी का आधार था इसी अंक में प्रकाशित एक लेख एनलिसिस ऑफ होम्योपैथिक क्लीनिकल ट्रायल्स। इसके लेखक थे डा. आइजिंग शांग एवं उनके साथी। इस लेख का निष्कर्ष था कि होम्योपैथी प्लैसिबो (खुश करने की दवा) से ज्यादा कुछ भी नहीं है। इस लेख और लैंसेट की तब तो एलोपैथी के समर्थक वैज्ञानिकों ने ही खूब खबर ली थी। कहते हैं कि होम्योपैथ पर यह आक्रमण उस समय इसलिए हुआ था कि विश्व स्वास्थ्य संगठन यानी डब्ल्यूएचओ होम्योपैथी को एलोपैथी के बाद दूसरी संगठित एवं तार्किक चिकित्सा पद्धति घोषित करने वाला था। होम्योपैथी पर एलोपैथिक लॉबी के बार-बार हमले के पीछे व्यावसायिक प्रतिस्पर्धा ज्यादा लगती है। रोगों की बढ़ती चुनौतियां और उसके उपचार में एलोपैथी की बढ़ती विफलता का परिणाम है कि होम्योपैथी एवं अन्य वैकल्पिक चिकित्सा पद्धतियां तेजी से उभर रही हैं। शुरू में तो एलोपैथी के ही लब्ध प्रतिष्ठित चिकित्सकों ने इन वैकल्पिक चिकित्सा पद्धति को अपनी प्रैक्टिस का आधार बनाया। अंग्रेजी दवाओं के दुष्प्रभाव और लोगों में इसके प्रति बढ़ती असुरक्षा और अनिश्चितता की भावना से भी एलोपैथिक लाबी खफा है। ब्रिटेन के ही जाने माने चिकित्सक और रायल लंदन हॉस्पिटल से जुड़े डा. पीटर फिशर भी एलोपैथिक चिकित्सकों की झुंझलाहट को अनावश्यक बताते हैं। डा. फिशर कहते हैं कि लंदन में ही होम्योपैथिक उपचार लेने वाले रोगियों की संख्या लगताार बढ़ रही है। ब्रिटिश सरकार सालाना 4 मिलियन पाउंड होम्योपैथिक अस्पतालों पर खर्च करती है। अकूत मुनाफे के धंधे में तब्दील चिकित्सा एवं दवा व्यवसाय के लिए कहते हैं कि यह स्वर्णिम काल है। प्रतिवर्ष 13 से 25 फीसदी की दर से विकसित होती यह हेल्थ केयर इंडस्ट्री आज दुनिया की महत्वपूर्ण मुनाफेदार संस्था है। मुनाफे का चस्का ऐसा है कि लोगों के जान की कीमत पर उनकी जेबें काट ली जाती हैं। अमेरिका जैसे देश में 30 से 40 प्रतिशत लोग वहां की महंगी स्वास्थ्य सेवाओं के चलते दवा और उपचार से महरूम हैं। अभी हाल में जब अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने वहां के 30 प्रतिशत वंचित लोगों के लिए स्वास्थ्य सुरक्षा अधिनियम पारित कराया तो मानो अमेरिकी धन कुबेरों में भूचाल आ गया। वहां की अमीर लॉबी गरीबों का जीना बर्दाश्त नहीं करती। ठीक ऐसे ही दुनिया में जब होम्योपैथी अपने बल बूते पर विकसित हो रही है तो एलोपैथिक दवा और चिकित्सा लॉबी इसे पचा नहीं पा रही। कहते हैं कि होम्योपैथी चिकित्सा सेवा की विकास दर एलोपैथी की विकासदर 13 फीसदी के मुकाबले 25 फीसदी है। इस वर्ष 10 अप्रैल को होम्योपैथी के भारत में 200 साल पूरे हो चुके हैं। इस बहाने होम्योपैथी के कुछ अहम पहलुओं पर चर्चा जरूरी है। यों तो शुरू से ही आधुनिक चिकित्सा पद्धति एलोपैथी का होम्योपैथी के प्रति तंग नजरिया रहा है। एक सहज और सस्ती चिकित्सा प्रणाली होते हुए भी होम्योपैथी को कभी महत्वपूर्ण चिकित्सा पद्धति नहीं माना गया। कभी जादू की पुडि़या, मीठी गोलियां या जादू की झप्पी तो कभी प्लेसिबो कहकर इसे महत्वहीन बताने की कोशिश हुई, लेकिन अपनी क्षमता और वैज्ञानिकता के बलबूते होम्योपैथी विकसित होती रही। आज बताते हैं कि होम्योपैथी एलोपैथी के बाद दूसरी सबसे बड़ी चिकित्सा पद्धति है, जिसे दुनिया के कोई डेढ़ अरब लोग अपने इलाज के लिए किसी न किसी रूप में आजमाते ही हैं। विदेशों में होम्योपैथी की बढ़ती लोकप्रियता का ग्राफ तेजी से बढ़ रहा है। ब्रिटिश वैज्ञानिक एवं चिकित्सा सांख्यिकी के विशेषज्ञ माइकल ब्रुक्स के अनुसार फ्रांस के 40 प्रतिशत चिकित्सक होम्योपैथी का प्रयोग करते हैं। ब्रिटेन में 37 प्रतिशत तथा जर्मनी के 20 प्रतिशत एलोपैथिक चिकित्सक खुद होम्योपैथिक दवाओं का उपयोग कर रहे हैं। 1999 के एक सर्वेक्षण के अनुसार अमेरिका में सालाना 60 लाख लोग इंश्योरेंस सुविधा न होने पर भी होम्योपैथिक उपचार ले रहे थे। यह आंकड़ा अब 1 करोड़ को पार कर गया है। वर्ष 1810 में कुछ जर्मन यात्रियों तथा मिशनरी के साथ भारत आई होम्योपैथी ने यहां के लोगों का दिल जीत लिया और तब से इस पद्धति ने जुकाम, खांसी से लेकर ट्यूमर, कैंसर जैसे गंभीर रोगों की चिकित्सा में भी दखल बढ़ा दी। होम्योपैथी ने गंभीर रोगों के सफल उपचार के अनेक दावे किए हैं, लेकिन आज भी यह समाज में ऐलोपैथी जैसी प्रतिष्ठा हासिल नहीं कर पाई है। अंतरराष्ट्रीय चिकित्सा पत्रिकाओं में भी होम्योपैथी को महज प्लेसिबो से ज्यादा और कुछ नहीं माना जाता है। होम्योपैथी को एलोपैथी लॉबी द्वारा कमतर आंकने के पीछे जाहिर है उनकी व्यावसायिक प्रतिद्वंद्विता ज्यादा है। होम्योपैथी को जन सुलभ बनाने की जिम्मेदारी तो समाज और सरकार की भी है। हमारे योजनाकार भी महंगी होती एलोपैथिक चिकित्सा के मोहताज से बच नहीं पाए हैं। सालाना 22,300 करोड़ रुपये के बजट में से मात्र 964 करोड़ (4.4 प्रतिशत) रुपये देसी चिकित्सा पर, जिसमें भी महज 100 करोड़ रुपये से भी कम होम्योपैथी चिकित्सा पर खर्च कर हम सवा सौ करोड़ की आबादी वाले देश में होमियोपैथी से क्या उम्मीद करते हैं। अपने ही दम-खम पर भारत में तेजी से लोकप्रिय होती होम्योपैथी के मौजूदा विकास का ज्यादा श्रेय तो होम्योपैथी के चिकित्सकों और प्रशंसकों को ही जाता है, लेकिन यह भी सच है कि सरकारी पहल के बिना होम्योपैथी को जन-जन तक पहुंचाने का लक्ष्य पूरा नहीं हो सकता। एलोपैथिक चिकित्सा द्वारा बिगड़े एवं लाइलाज घोषित कर दिए गए रोगों में होम्योपैथी उम्मीद की अंतिम किरण की तरह होती है। कुछ मामले में तो होम्योपैथी वरदान सिद्ध हुई है तथा अनेक मामले में तो होम्योपैथी ने रोगी में जीवन के उम्मीद का भरोसा जगाया है। चर्म रोग, जोड़ों के दर्द, कैंसर, ट्यूमर, पेट रोग, शिशुओं और माताओं के विभिन्न रोगों में होम्योपैथी की प्रभाविता बेजोड़ है। होम्योपैथी की इतनी अच्छी योग्यता के बावजूद स्वास्थ्य विभाग पर हावी आधुनिक चिकित्सकों एवं एलोपैथिक दवा लॉबी होम्योपैथी को आगे नहीं देखना चाहती। कारण स्पष्ट है कि एलोपैथिक दुष्प्रभावों से ऊब कर काफी लोग होम्योपैथी या दूसरी देसी चिकित्सा पद्धति को अपनाने लगेंगे। फिर तो सरकार और मंत्रालय में इनका रूतबा बढ़ेगा और एलोपैथी की प्रतिष्ठा प्रभावित हो सकती है। होम्योपैथी के प्रति एलोपैथिक एवं आधुनिक चिकित्सा लॉबी की यह दृष्टि इस सरल चिकित्सा पद्धति को आम लोगों के लिए पूर्ण भरासेमंद नहीं बनने देती। दुनिया में जन स्वास्थ्य की चुनौतियां बढ़ रही हैं और आधुनिक चिकित्सा पद्धति इन चुनौतियों से निबटने में एक तरह से विफल सिद्ध हुई है। प्लेग हो या सार्स, मलेरिया हो या टीबी, दस्त हो या फ्लू, एलोपैथिक दवाओं ने उपचार की बात तो दूर रोगों की जटिलता को और बढ़ा दिया है। मलेरिया और घातक हो गया है। टीबी की दवाएं प्रभावहीन हो गई हैं, फ्लू के वायरस रोग के ही खिलाफ प्रतिरोधी क्षमता विकसित कर चुके हैं। शरीर में और ज्यादा एंटीवायोटिक्स को बरर्दाश्त करने की क्षमता नहीं रही। कुपोषण की वजह से आम आदमी जल्दी-जल्दी बीमार हो रहा है। ऐसे में होम्योपैथी एक बेहतर विकल्प हो सकती है। जन स्वास्थ्य के प्रबंधन में होम्योपैथी की महती भूमिका को आज भी नजरअंदाज किया जा रहा है। याद करना चाहिए कि प्लेग के दौर में होम्योपैथी ने न केवल रोग का उपचार किया था, बल्कि प्रतिरोधी दवा के रूप में लाखों लोगों को प्लेग के चंगुल में फंसने से बचाया था। होम्योपैथी की इस विशेषता के होते हुए अब सवाल यह उठता है कि वे कौन लोग या कौन से समूह हैं, जो होम्योपैथी को विकसित होते नहीं देखना चाहते? होम्योपैथी के खिलाफ इन दिनों दुनिया भर में मुहिम चलाई जा रही है। इस मुहिम का मजमून है कि होम्योपैथी कोई कारगर चिकित्सा नहीं है तथा इसकी प्रभाविता लगभग शून्य है। अंतरराष्ट्रीय स्तर के पत्र-पत्रिकाओं में होम्योपैथी को प्रभावहीन बताकर यह जताया जा रहा है कि गंभीर या सामान्य रोगों में होम्योपैथिक चिकित्सा का कोई खास औचित्य नहीं है, जबकि होम्योपैथी लाइलाज घोषित कर दिए गए रोगों में ज्यादा कारगर है। सवाल है कि अपनी वैज्ञानिकता के बल बूते विकसित हो रही इस चिकित्सा पद्धति पर एलोपैथिक लाबी को क्यों ऐतराज है? होम्योपैथी न तो एलोपैथी से प्रतिस्पर्धा में है और न ही इसे एलोपैथी से कोई शिकायत है। फिर यह गुस्सा क्यों? दुनिया में बढ़ती रोगों की चुनौतियां और एलोपैथिक उपचार से लाइलाज होते रोगों की जटिलता को होम्योपैथी कम कर सकती है। बशर्ते कि आपसी खींचतान को भुलाकर सभी चिकित्सक परस्पर सहयोग और सकारात्मक मिशन की भावना से काम करें(दैनिक जागरण,राष्ट्रीय संस्करण,4 जून,2010)।

1 टिप्पणी:

  1. अरबों का व्यवसाय करने वाले क्या जानें खरबों गरीब का दर्द।

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