पिछले कुछ वर्षों में, कोल्ड और सॉफ्ट ड्रिंक्स की खपत तथा इनसे जुडी बीमारियां भी काफी बढी हैं। पेय पदार्थों में करीब 200 कैलोरी होती है और इनके अधिक सेवन से मोटापा बढ़ने के संबंध में कई बार खबरें छप चुकी हैं। दरअसल, पेय पदार्थों में मिठास पैदा करने के लिए सस्ती तरल स्वीटनर हाई फ्रुक्टोज कॉर्न सिरप का इस्तेमाल किया जाता है जो नॉन अल्कोहलिक फैटी लीवर रोगों से पीडित लोगों के लीवर को नुकसान पहुंचा सकता है। कई वैज्ञानिक अध्ययनों में फ्रुक्टोज युक्त स्वीटनर्स वालों के पेट में वसा और रक्त में लिपिड का स्तर अधिक पाया गया और इंसुलिन हार्मोन के प्रति संवेदनशीलता कम पायी गयी। इन अध्ययनों में पाया गया कि ऐसे पेय शरीर में वसा की खपत होने में व्यवधान पैदा करते हैं और दिल के दौरे तथा स्ट्रोक का खतरा बढ़ जाता है। कई वैज्ञानिक अध्ययनों के नतीजे बताते हैं कि पुरूषों द्वारा रोजाना एक केन से अधिक मीठे पेय लेने और महिलाओं द्वारा एक केन से भी कम मीठे पेय के सेवन से मधुमेह और हृदय रोग का खतरा बढ जाता है। इस बात की भी आवश्यकता महसूस की जाती रही है कि पेय पदार्थों के स्वास्थ्य संबंधी दुष्प्रभावों के मद्देनजर सरकार ऐसी नीति बनाए जिससे इनकी खपत में कमी लायी जा सके। मगर सरकार इस मुद्दे पर चुप्पी साधे हुए है। देखिए, आज के नई दुनिया में रमेश कुमार दुबे जी का आलेखः
२००३ में सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायर्नमेंट (सीएसई) ने यह खुलासा करके सनसनी फैला दी थी कि शीतल पेयों में खतरनाक हद तक कीटनाशकों की मात्रा मौजूद है । सीएसई ने कुछ नमूनों में भारत मानक ब्यूरो के तय मानक से २५ गुना ज्यादा जानलेवा कीटनाशक पाए थे । इन कीटनाशकों के शरीर में पहुंचने पर किडनी, लीवर, दिमाग पर बुरा असर पड़ सकता है । मामले की गंभीरता देखते हुए इस पर अगस्त २००३ में संयुक्त संसदीय समिति (जेपीसी) गठित की गई । शरद पवार की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय समिति ने २००४ में अपनी रिपोर्ट में कहा था कि पेप्सी और कोक समेत अन्य सभी कोला उत्पादों में कीटनाशकों की मात्रा निर्धारित अंतर्राष्ट्रीय मानकों से बहुत अधिक है। समिति ने सरकार से शीतल पेयों के लिए मानक निर्धारित कर कानून बनाने की सिफारिश भी की। अगस्त २००६ में सीएसई ने अपनी रिपोर्ट में एक बार फिर शीतल पेयों में कीटनाशकों की मौजूदगी का प्रमाण प्रस्तुत किया ।
इस मसले पर २००४ में एक जनहित याचिका दायर करके सर्वोच्च न्यायालय से मांग की गई थी कि वह केंद्र सरकार को शीतल पेय की बिक्री पर गुणवत्ता संबंधी बंदिशे और नियम बनाने का निर्देश दे लेकिन सरकार ने ठंडे पेयों में कीटनाशकों की मात्रा, उनकी गुणवत्ता जांच और इस बारे में नियम तय करना जरूरी नहीं समझा । कोला कंपनियों ने भी शीतल पेय में मिलाए जाने वाले रासायनिक तत्वों का ब्यौरा सार्वजनिक करने में कोई रुचि नहीं दिखाई। केंद्रीय स्वास्थ्य व परिवार कल्याण मंत्रालय ने अप्रैल २००९ तक मानकों को लागू करने का लक्ष्य तय किया था लेकिन इस दिशा में भी कोई प्रगति नहीं हुई ।
ऐसे गंभीर विषय पर सरकार के रवैये का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उत्पादों की गुणवत्ता तय करने के लिए गठित विशेषज्ञ पैनल में कोला और अन्य खाद्य उत्पाद निर्माताओं के शीर्ष अधिकारियों को भी शामिल किया गया है । इस प्रकार संबंधित कंपनियों को अपने ही उत्पादों के बारे में फैसला करने का अधिकार दे दिया गया है । यह जनता के स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ नहीं तो और क्या है? इसीलिए अदालत ने सरकार को फटकार लगाते हुए पूछा कि गुणवत्ता की जांच के लिए वैज्ञानिक पैनल में कोला कंपनियों के बड़े अधिकारियों को क्यों रखा गया है?
जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए अदालत ने जब शीतल पेयों में मौजूद तत्वों का खुलासा करने के लिए अधिसूचना जारी करने में देरी को लेकर केंद्र की खिंचाई की तब भी खाद्य सुरक्षा और मानक प्राधिकरण ने नए नियमों को जारी करने के लिए तीन महीने की मोहलत मांगी लेकिन सरकार के ढुलमुल रवैये और कोला कंपनियों की तगड़ी लॉबी देखते हुए तीन महीने में ये मानक शायद ही तय हो पाएं। ऐसे में इतना तो तय है कि लोगों को फिलहाल जहर पीने से मुक्ति नहीं मिलने वाली है।
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