पिछले दिनों दिल्ली के मायापुरी इलाके के कबाड़ से हुए रेडिएशन के बाद देश भर का ध्यान रेडिएशन से होने वाली परेशानियों की ओर गया है। डाक्टरों का कहना है कि इस रेडिएशन के शिकार मरीजों का बोन मैरो स्तर क्षीण हो चुका है । उनकी श्वेत रक्तकणिकाएं काफी कम पाई गईं। मुंह और मल से रक्तस्त्राव भी शिकायतें भी थीं। जांच से पता चला कि यह सब कोबाल्ट-60 से हुए विकिरण का दुष्परिणाम है।
कोबाल्ट-60 कठोर,भूरे और चमकीले रंग की एक रेडियोधर्मी धातु है जिसका कैंसर के इलाज के लिए रेडियोथैरेपी में इस्तेमाल किया जाता है। भोजन को जीवाणुमुक्त करने में भी इसका प्रयोग होता है। लोहा,सीमेंट,पेंट और आभूषणों के निर्माण में भी इसका उपयोग होता है।
कोबाल्ट-60 से विकिरण के तात्कालिक लक्षण उलटी,बालों का गुच्छे के रूप में झड़ना,तेज़ बुखार और प्लेटलेट्स की कमी के कारण लगातार रक्तस्त्राव,उबकाई आना और त्वचा का काला पड़ना हैं। यह आगे चलकर थायरॉयड,ल्यूकीमिया और लिंफोमा कैंसर(जो काफी हद तक इस पर निर्भर करता है कि संबंधित व्यक्ति पर विकिरण का असर कितना ज्यादा था) का कारण बन सकता है। विकिरण से मोतियाबिंद हो सकता है। यह अण्डाशय और टेस्टिस दोनों को बुरी तरह प्रभावित करता है जिससे एजुसपर्मिया(इस रोग से पुरुष के वीर्य में स्पर्म की संख्या शून्य हो जाती है) होने का ख़तरा बढ जाता है और पुरुष तथा महिला-दोनों स्थायी नपुंसकता के शिकार हो सकते हैं। कोबाल्ट-60 से एक प्रकार की धूल भी पैदा होती है जिसके लंबे समय तक सांस में जाने से हृदय से फेफड़ों तक रक्त पहुंचाने वाली धमनियों की कार्यशीलता कम हो जाती है और श्वास अत्यधिक संवेदनशील हो जाती है। इससे आनुवांशिक परिवर्तन भी हो सकते हैं और संभव है,पीड़ित लोगों के भावी बच्चे भी इससे प्रभावित हों। अगर रेडिएशन का असर ज्यादा हो तो मौत भी हो सकती है। दिल्ली में जो लोग इससे पी़ड़ित हुए हैं और उन्हें जिस तरह से काले चकत्ते पड़ गए हैं उसे पोरपोरा बीमारी कहते हैं, जिसमें इन चकत्तों से रिसाव होता रहता है।
कई प्रकार की चिकित्सकीय जांचों और उपचार के दौरान भी कोबाल्ट-60 का इस्तेमाल किया जाता है। यदि चिकित्सा और उद्योग से जुड़े विकिरणकारी तत्वों को ठीक से न निपटाया जाए,तब भी कोबाल्ट-60 के संपर्क में आने का खतरा रहता है। यह समझना भी ज़रूरी है कि किसी कोबाल्ट-60 संक्रमित व्यक्ति के सम्पर्क में आने से कोई अन्य व्यक्ति संक्रमित नहीं होता। रेडिएशन हवा से नहीं फैलता। रेडियेशन का असर दो तरह से होता हैः एक,रेडिएशन वाली जगह पर ज्यादा देर तक रहने से और दूसरा रेडिएशन को छूने,जीभ पर लगाने आदि से।
दिल्ली में लोकनायक जयप्रकाश अस्पताल समेत तमाम अस्पतालों में कोबाल्ट के कचरे मौजूद हैं और न्यूक्लियर मेडिसिन के कचरे के निपटारे संबंधी मानदंड के अनुरूप,यहां एक भी कचरा प्रबंधन क्षेत्र आज तक चिह्नित नहीं किया गया है। जनसत्ता में 10 अप्रैल को प्रकाशित प्रतिभा शुक्ल की रिपोर्ट बताती है कि दिल्ली के लोकनायक जयप्रकाश अस्पताल में ऐसे कचरे एक कमरे में जमा होते रहते हैं क्योंकि इन्हें इधर-उधर न फेंकने की हिदायत होती है। राममनोहर लोहिया स्पताल,सफदरजंग अस्पताल सहित तमाम कैंसर अस्पतालों में कोबाल्ट-60 के कचरे को निपटाने का कोई उपाय नहीं है,हालांकि एम्स ने अपने स्तर पर इसका इंतजाम कर रखा है। राजधानी में जैव कचरे के निपटारे के लिए तीन प्रबंधन क्षेत्रों की पहचान की गई है मगर वहां उन्हीं अस्पतालों को कचरा डालने की इजाज़त है जिन्होंने पंजीकरण शुल्क जमा कर रखा है।
रेडियोधर्मी प्रभावों से लड़ने के लिए दिल्ली सरकार एलएनजेपी अस्पताल में 40 बिस्तरों वाला रासायनिक,जैव व रेडियोलोजिकल वार्ड बनाने जा रही है जो देश में इस प्रकार का पहला वार्ड होगा। आज नई दुनिया में संदीप देव की रिपोर्ट बताती है कि ऐसे ही इंतजाम एम्स और राममनोहर लोहिया अस्पताल में भी किए जा रहे हैं। राष्ट्रमंडल खेलों के मद्देनजर सरकार पर सीबीआरएन सेल शीघ्र बनाने का दबाव था। इसके लिए एम्स तथा आपदा अनुसंधान विकास संस्थान द्वारा सौ डाक्टरों को खास तौर से प्रशिक्षित किया जा रहा है।
इसी विषय पर 12 मार्च के नवभारत टाइम्स का संपादकीय कहता है कि "रेडिएशन से हुई दुर्घटना कितनी गंभीर है, इसका अंदाजा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि अगले ही दिन प्रधानमंत्री ने यह बयान दिया कि रेडियोऐक्टिव पदार्थों की हैंडलिंग का हमारा रेकॉर्ड बेहद साफ-सुथरा रहा है। परमाणु ऊर्जा के लिए विभिन्न देशों से समझौते करते वक्त हमें उन्हें इस बात के लिए आश्वस्त करना होता है कि भारत ऐसी सामग्री और उपकरणों की सार-संभाल में हर तरह से सक्षम देश है और इनमें लीकेज के खतरों को समझता है। लेकिन, मायापुरी जैसी घटनाएं हमारे इन दावों पर पानी फेर देंगी। ऐसी दुर्घटनाएं बताती हैं कि किस तरह हमारे रूटीन कामकाज में लापरवाही 'रेडिएट' होती है। और 'सब चलता है' वाला रवैया हमें बार-बार नुकसान पहुंचाता है।"अख़बार आगे लिखता है "देश में बिजली के साधारण बल्बों की जगह सीएफएल का इस्तेमाल तेजी से बढ़ा है। खुद सरकार इन्हें लोकप्रिय बनाने की कोशिश करती रही है। पर, जब पर्यावरणवादी संस्थाओं ने खराब हुए सीएफएल बल्बों के निस्तारण के कारण होने वाले खतरनाक प्रदूषण की ओर ध्यान दिलाया, तो सरकार असमंजस में पड़ गई।" अख़बार ने देश के प्राय: हर शहर-कस्बे में लगाए गए मोबाइल फोन टॉवरों का हवाला देते हुए लिखा है कि ऐसे कई शोध हुए हैं जो बताते हैं कि इन टॉवरों से फैलने वाला रेडिएशन स्वास्थ्य के लिए खतरनाक है, पर सरकार इनके विकल्प खोजने की कोशिश नहीं कर रही। मोबाइल टॉवरों पर इधर जो कार्रवाई हुई है, वह उनकी अवैध स्थापना को लेकर की गई है, न कि इनसे होने वाले रेडिएशन को लेकर। अख़बार का कहना है कि 2004 में दिल्ली के ही नजदीक गाजियाबाद की एक स्टील कंपनी में लाए गए कबाड़ को गलाने के वक्त हुए विस्फोटों से लेकर मायापुरी की इस ताजा घटना तक ऐसे अनगिनत हादसे हो चुके हैं, जो हमारी लापरवाहियां उजागर करते हैं। लोग भोपाल स्थित यूनियन कार्बाइड में हुए उस हादसे को शायद ही भूलें हों, जो ऐसी ही गैर-जिम्मेदार वर्किंग का नतीजा था।
जो हो,यह एक तथ्य है कि रेडिएशन से प्रभावित होने पर कोई इलाज नहीं है। सिर्फ सपोर्टिव केयर दिया जा सकता है। इसमें सबसे पहला और तेज प्रभाव पेट तथा आंतों पर पड़ता है। सिर की धमनियों में खराबी से दौरे की आशंका रहती है और यहां तक कि मौत की आशंका भी रहती है। मामले की गंभीरता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि रेडिएशन की ताजा घटना के शिकार लोगों की असली बीमारी भांपने में ही डाक्टरों को कई घंटे लग गए। देश में इस समय देश में रेडिएशन से बचाव के न तो साधन हैं, न ही उनसे निपटने का तरीका और न ही इलाज के पर्याप्त उपाय। ऐसे मरीजों की मौत हो जाने पर पोस्टमार्टम करने वाला डॉक्टर तक प्रभाव में आ जाता है। अभी एम्स और अपोलो जैसे अस्पतालों में इलाज़ के नाम पर मरीजों को सिर्फ खून-पानी चढाने की ही इंतज़ाम है।
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