गुरुवार, 29 अप्रैल 2010

इलाज़ क्या करेगा बीमार स्वास्थ्य ढांचा

केंद्र सरकार ने सबके लिए स्वास्थ्य का लक्ष्य घोषित कर रखा है। अक्सर, कहीं न कहीं अस्पताल का शिलान्यास भी हो ही रहा होता है। चिकित्सा सुविधाएं तो बढी हैं मगर बढती जनसंख्या,नए रोगों की चुनौतियों और चिकित्सा के क्षेत्र में हो रहे अनुसंधान की दृष्टि से देश का स्वास्थ्य-ढांचा आज कहां खड़ा है? ग्रामीण जनसंख्या को मिल रही स्वास्थ्य सुविधाओं का स्तर क्या है और क्या सबको स्वास्थ्य उपलब्ध कराए बिना विकास का लक्ष्य वास्तविक अर्थों में प्राप्त करना संभव होगा,इन तमाम मुद्दों की पड़ताल की है आज के नवभारत टाइम्स में रघु दयाल जी नेः
"अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने हेल्थ इंश्योरेंस सेक्टर में सुधारों को अपनी प्राथमिकता सूची में सबसे ऊपर रखा है। इसका मकसद है अमेरिकी नागरिकों को बेहतर और सस्ती हेल्थ केयर मुहैया कराना। लेकिन जहां तक सवाल भारत का है तो लगातार महंगे होते जा रहे मेडिकल सेक्टर की वजह से अपने यहां ऐसा कुछ होने की उम्मीद भी नहीं की जा सकती।
भारत में प्राइमरी हेल्थ केयर सिस्टम प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों (पीएचसी) और उनसे जुड़े उपकेंद्रों पर आधारित है। हर उपकेंद्र से तीन-चार गांव जुड़े रहते हैं। इकनॉमिक सर्वे (2009-10) के मुताबिक, 2001 की जनगणना के आधार पर देश में 20,486 उपकेंद्र, 4,477 पीएचसी और 2,337 कम्यूनिटी हेल्थ सेंटर (सीएचसी) की कमी है। केवल 13 पर्सेंट ग्रामीणों की पीएचसी, 33 पर्सेंट की स्वास्थ्य उपकेंद्रों, 9.6 फीसदी की अस्पतालों और 28.3 पर्सेंट को डिस्पेंसरी या क्लिनिक तक पहुंच है। देश के रजिस्टर्ड अस्पतालों में से लगभग दो तिहाई प्राइवेट हैं।
रिश्वत का कोटा
हाल में देश भर के पीएचसी में कराए गए सर्वे के मुताबिक इनमें डॉक्टरों की औसतन 18 पर्सेंट, नर्सों की 15 पर्सेंट और पैरामेडिक्स की 30 पर्सेंट जगहें खाली हैं। इस सेक्टर में कर्मचारियों की अनुपस्थिति का औसत 40 फीसदी पाया गया। पीएचसी में डॉक्टरों की कुशलता जांचने के लिए कराए गए सर्वे से पता चला कि डायरिया के इलाज में आम तौर पर डॉक्टर जो इलाज सुझाते हैं, वह हानिकारक होता है। 2005 में की गई ट्रांसपरेंसी इंटरनैशनल की स्टडी के मुताबिक, सार्वजनिक सेक्टर में दी जाने वाली 27 पर्सेंट रिश्वत हेल्थकेयर सेक्टर में दी जाती है। सरकारी डॉक्टर समय पर अस्पताल नहीं पहुंचते, या खराब सेवाएं देते हैं, फिर भी उन्हें तनख्वाह बदस्तूर मिलती है।
नीमहकीम खतर-ए-जान
12 अप्रैल 2005 को नैशनल रूरल हेल्थ मिशन लांच किया गया। इसका मकसद था दूरदराज के इलाकों में गरीब परिवारों को स्वास्थ्य सेवाएं मुहैया कराना। हर साल इस मिशन को 12 हजार करोड़ रुपये आवंटित किए जाते हैं। 2009-10 के लिए इसमें 2,057 करोड़ रुपये की बढ़ोतरी की गई। राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना का दावा है कि उसने गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले 45 लाख परिवारों को कवर किया है और उन्हें बायोमीट्रिक कार्ड इशू किए हैं। लेकिन इन सभी योजनाओं की उपलब्धियां इनके दावों से काफी कम हैं।
देश में पब्लिक हेल्थ सेक्टर कई तरह की समस्याओं से जूझ रहा है, जैसे पीएचसी में डॉक्टरों और पैरामेडिक्स की गैरहाजिरी और उदासीनता, दवाओं की कमी, गंदगी, हेल्थ वर्कर्स का खराब बर्ताव, मरीजों से जबरन ज्यादा वसूली, देखरेख और जवाबदेही की कमी वगैरह। इसके चलते गांववालों को लोकल प्राइवेट प्रैक्टिशनर की शरण में जाना पड़ता है, जिनमें से अधिकतर गैर पंजीकृत या नीमहकीम हैं।
एक तरफ मेडिकेयर की सप्लाई इतनी खराब है, दूसरी तरफ इसकी जरूरत बढ़ती जा रही है। देश में 17 लाख से ज्यादा बच्चे अपना पहला जन्मदिन नहीं मना पाते। यहां दुनिया भर में होने वाली शिशु मौतों के 23 पर्सेंट केस, 20 पर्सेंट प्रसव मौतें, 30 पर्सेंट टीबी, 68 पर्सेंट कुष्ठ रोग और 14 पर्सेंट एड्स के केस पाए जाते हैं। 60 के दशक में मलेरिया के फैलाव पर असरदार रोक लगाने में कामयाबी पाई गई थी लेकिन 1976 से यह दोबारा उभर आया। आज भी हर साल इसके लगभग 20 से 30 लाख दर्ज हो रहे हैं। इसके अलावा भारत में सांस से जुडे़ इन्फेक्शनों और डायरिया की दर भी विश्व औसत से काफी ज्यादा है।
देश की लगभग एक तिहाई जनसंख्या शहरों में रहती है। 23 मेट्रो शहरों में रहने वाली आधी से ज्यादा जनता को स्वास्थ्य संबंधी सुविधाएं नहीं मिल रही हैं। डॉक्टरों की संख्या 6 लाख से बढ़ाकर 20 लाख और नर्सों की 16 लाख से बढ़ाकर 44 लाख किए जाने की जरूरत है, जबकि देश में मौजूद 165 मेडिकल कॉलेज हर साल सिर्फ 16 हजार डॉक्टर ही दे पा रहे हैं। पूरी दुनिया में फिजीशनों का औसत 1,000 लोगों पर 1.5 है जबकि भारत में यह 0.6 है। हॉस्पिटल बेड का ग्लोबल औसत 1,000 लोगों पर 3.98 का है। रूस में यह रेश्यो 9.7 का है, ब्राजील में 2.6, चीन में 2.5 जबकि भारत में मात्र 0.9 का है।
2007 की ह्यूमन डिवेलपमेंट रिपोर्ट में बताया गया था कि भारत के हेल्थ और एजुकेशन सेक्टर की हालत अफ्रीका के इथियोपिया, बुरुंडी और चाड जैसे देशों सी है। सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं पर राज्यों और केंद्र का सालाना प्रति व्यक्ति खर्चा 2 से 3 डॉलर है। हेल्थकेयर फाइनैंस और इंश्योरेंस पर गठित एक उप समिति ने सिफारिश की थी कि सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा पर जीडीपी का कम से कम 2.5 पर्सेंट खर्च होना चाहिए। यूपीए सरकार ने वादा किया था कि इसे जीडीपी के 3 पर्सेंट तक बढ़ाया जाएगा। लेकिन असलियत में यह खर्च जीडीपी का महज 0.9 पर्सेंट है, जिसमें केंद्र सरकार का हिस्सा 0.29 फीसदी और राज्यों का 0.61 फीसदी है। यह तो लो-इनकम देशों के 1 पर्सेंट के औसत और यहां तक कि अफ्रीका के सब-सहारा देशों के 1.7 पर्सेंट से भी कम है।
विषमता का विष
अपने यहां हेल्थ सेक्टर में 63 पर्सेंट पैसा सैलरी पर खर्च होता है और इस दवाओं, मशीनों, इन्फ्रास्ट्रक्चर और मेनटिनेंस के लिए बहुत कम हिस्सा बचता है। राज्यों में स्वास्थ्य सेवाओं पर प्रति व्यक्ति खर्च भी अलग-अलग है। 2004-05 में प्रति व्यक्ति स्वास्थ्य खर्च बिहार में 100 रुपये, यूपी में 156 रुपये, तमिलनाडु में 448 रुपये और केरल में 354 रुपये था। नैशनल काउंसिल फॉर अप्लाइड इकनॉमिक रिसर्च की स्टडी में खुलासा किया गया था कि देश की 20 पर्सेंट अमीर जनता स्वास्थ्य पर दी गई पब्लिक सब्सिडी का तीन गुना उपभोग करती है।
केंद्र द्वारा ग्लोबलाइजेशन और सस्टेनेबल डिवेलपमेंट पर प्रस्तुत एक रिपोर्ट में देश के प्राइमरी हेल्थकेयर सिस्टम को नाकारा करार दिया था। यह सिस्टम गरीबों को बेसिक हेल्थ सर्विस मुहैया कराने में नाकाम रहा है। जबर्दस्त प्रचार के बीच लागू की गईं राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना और हेल्थ फॉर ऑल जैसी स्कीमों का कोई खास असर नहीं दिखाई देता।"

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