आज से 17 साल पहले 24 अप्रैल, 1993 को 73वें एवं 74वें संविधान संशोधन अधिनियम को लागू किया गया था। 73 वें संविधान संशोधन में त्रिस्तरीय पंचायत राज व्यवस्था की बात की गई है, जिसमें महिलाओं के लिए 33 फीसदी आरक्षण का प्रावधान एक क्रांतिकारी कदम था, जिसे तीन साल पहले बिहार, मध्यप्रदेश, राजस्थान में बढ़ाकर 50 फीसदी कर दिया गया, और अब केन्द्र सरकार की पहल पर यह आरक्षण पूरे देश में 50 फीसदी तक हो गया है। संभवत: दुनिया के राजनीतिक इतिहास में यह पहला मौका है, जब महिलाओं के लिए किसी शासन व्यवस्था में 50 फीसदी आरक्षण दिया गया है। एक ओर हम देख रहे हैं कि महिलाओं के राजनीतिक सशक्तिकरण के लिए इतने बड़े पैमाने पर संवैधानिक प्रावधान किए गए हैं, पर दूसरी ओर महिलाओं एवं बच्चों के स्वास्थ्य एवं शिक्षा के स्तर में व्यापक सुधार नहीं हो रहा है। खासतौर से स्वास्थ्य की समस्या उड़ीसा, मध्यप्रदेश, बिहार, उत्तरप्रदेश जैसे राज्यों में बहुत ही खराब है। विकास के प्रमुख संकेतकों में शिक्षा, स्वास्थ्य एवं रोजगार को महत्वपूर्ण माने जाने के बावजूद यह आश्चर्य की बात है कि पंचायतों के एजेंडे में स्वास्थ्य कभी प्रमुखता से नहीं आ पाया। पंचायतों की कार्ययोजना पर जब भी चर्चा होती है, उसमें स्वास्थ्य के मामले पर या तो चर्चा नहीं होती या फिर उन्हें यह अंदाजा नहीं होता कि इस मामले में पंचायतें क्या कर सकती हैं? मध्यप्रदेश में महिलाओं एवं बच्चों के स्वास्थ्य की स्थिति अन्य राज्यों की तुलना में बहुत ज्यादा खराब है। मध्यप्रदेश के आर्थिक सर्वेक्षण 2009-10 में भी यह कहा गया है, प्रदेश में शिशु मृत्यु दर अभी बहुत अधिक है। वर्ष 2008 में ,शिशु मृत्यु दर 70 रह गई है, जो देश में सर्वाधिक है। वर्ष 1998 के बाद भी इसमें अपेक्षित कमी परिलक्षित नहीं हुई है। इसी तरह महिला स्वास्थ्य के बारे में सर्वेक्षण कहता है कि राष्ट्रीय न्यादर्श सर्वेक्षण के अनुसार वर्तमान में प्रदेश में प्रति लाख जन्म पर 335 माताओं की मृत्यु हो जाती है जबकि राष्ट्रीय औसत 254 है। ऐसी स्थिति में मध्यप्रदेश में स्वास्थ्य की स्थिति को बेहतर बनाने में पंचायतों की भूमिका बहुत ही महत्वपूर्ण हो जाती है। इस बार जब पंचायतों में महिलाओं को 50 फीसदी आरक्षण मिला है और आधे से ज्यादा पंचायतों का नेतृत्व उनके जिम्मे हैं, तो स्वाभाविक है कि महिलाओं एवं बच्चों के स्वास्थ्य की स्थिति को सुधारने में उनकी भूमिका बढ़ जाती है। संविधान के 73 वें संशोधन अधिनियम के बाद त्रि-स्तरीय पंचायती राज व्यवस्था और ग्राम-स्वराज लागू करने में मध्यप्रदेश पहले नंबर पर रहा है। ग्राम स्वराज अधिनियम में ग्राम सभा को मूल इकाई मानते हुए ग्राम विकास की योजना बनाने की जिम्मेदारी उसे सौंपी गई। ग्राम सभा के तहत आठ समितियों के गठन का भी प्रावधान किया गया, जिसमें ग्राम स्वास्थ्य समिति भी एक प्रमुख समिति थी। कागजों पर बनाई गई समितियों के काम जमीन पर नहीं उतर पाये। सरकार भी इससे वाकिफ थी। इसके बारे में यह कहा गया कि चूंकि समितियों की संख्या ज्यादा है, इसलिए समस्याएं हैं, पर यह बात हजम होने लायक नहीं थी। चूंकि सरकार को इन समितियों को क्रियाशील नहीं करना था, इसलिए इस पर ध्यान नहीं दिया गया। 2004 में सरकार ने समितियों को नकारा मान कर एक संशोधन के बाद उन्हें भंग कर दो समितियों तक सीमित कर दिया। लेकिन सरकार के इस कदम की इसलिए सराहना नहीं की जा सकती कि इस संशोधन के बाद भी ऐसा कोई व्यापक बदलाव नहीं देखने को मिला, जो स्वास्थ्य के मुद्दे पर पंचायतों की भूमिका को रेखांकित करती हो। गांवों में स्वास्थ्य सुविधाओं के अभाव में बच्चों में कुपोषण का प्रतिशत बढ़ा है। महिलाओं में रक्तअल्पता की बीमारी में कमी नहीं आई है। आदिवासी बच्चों में कुपोषण की स्थिति ज्यादा भयावह है। कुपोषण की स्थिति में बच्चों की रोग प्रतिरोधक क्षमता कमजोर हो जाती है और ठीक हो सकने वाली सामान्य बीमारियों की चपेट में आ जाने पर भी उनकी मृत्यु की संभावना बढ़ जाती है। प्रदेश में तीन वर्ष तक के कुपोषित बच्चों की संख्या 1998-99 में 53.5 प्रतिशत की तुलना में राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण -3 के अनुसार 2005-06 में 60.3 प्रतिशत हो गई। सरकार भी इस बात को स्वीकार कर रही है। कुपोषण कम नहीं होने के पीछे कई कारण हैं- आदिवासी क्षेत्रों में आंगनवाड़ी का अभाव, नियमित टीकाकारण नहीं होना, नियमित पोषणाहार वितरित नहीं होना आदि। महिलाओं को भी आंगनबाड़ी से समुचित सुविधाएं नहीं मिल पाती। किशोरियों एवं गर्भवती महिलाओं को पूरक पोषण आहार समय पर नहीं मिल पाता है। कुपोषण एवं रक्त अल्पता को कम करने के लिए सबसे अहम कार्य लोगों को आजीविका उपलब्ध कराना है ताकि वे दोनों वक्त नियमित खाना खा सकें और कुपोषण की स्थिति में नहीं आए। आंगनवाड़ी केन्द्रों का सर्वव्यापीकरण करना, क्योंकि इसके माध्यम से न केवल महिला एवं बाल विकास विभाग के कार्यक्रम संचालित होते हैं बल्कि स्वास्थ्य विभाग के कार्यक्रम भी संचालित होते हैं। आंगनवाड़ी केन्द्र के माध्यम से टीकाकारण, पोषणाहार, शालापूर्व शिक्षा, एवं बच्चों की देखभाल एवं निगरानी की जाती है। प्रदेश में पिछले दशकों की तुलना में मातृत्व मृत्यु दर में कमी देखी जा रही है पर इसके बावजूद प्रदेश में अभी भी मातृत्व मृत्यु ज्यादा है। पंचायत स्तर पर उपलब्ध स्वास्थ्य सुविधाओं का लाभ ग्रामीणों को मिल सके और वहां सेवाएं का संचालन नियमित हो सके, इसके लिए पंचायत अपने स्तर पर निगरानी करें। स्वास्थ्य संबंधी लगभग सभी योजनाओं में पंचायतों की भूमिका को रेखांकित किया गया है, पर उसमें पंचायतों की सक्रियता कम होती है। ग्रामीण स्तर पर ग्रामीण स्वास्थ्य एवं स्वच्छता समिति, आंगनवाड़ी एवं उसके माध्यम से नवजात एवं बीमार बच्चों के रेफरल की सुविधा, आशा, ए.एन.एम., ग्राम स्वास्थ्य रक्षक आदि कार्य करते हैं। इन सभी पर निगरानी का काम पंचायतें कर सकती हैं। महिला पंचायत प्रतिनिधियों से इसलिए अपेक्षा ज्यादा है कि कमजोर एवं लचर स्वास्थ्य व्यवस्था का खामियाजा महिलाओं को ही भुगतना पड़ रहा है। यदि वे आगे आकर इस दिशा में कार्य करें, तो उनका अनुकरण करने के लिए अन्य पंचायतें भी बाध्य होंगी। यह सही है कि उप स्वास्थ्य केंद्रों पर स्वास्थ्य सुविधाओं का अभाव है, पर ग्राम स्तर पर आशा और आंगनबाड़ी कार्यकर्ता की सक्रियता से बीमारी की रोकथाम में सफलता मिल सकती है। स्वास्थ्य के मुद्दे पर पंचायतों की सक्रियता के बिना स्वास्थ्य की स्थिति में सुधार आना संभव नहीं है। आंगनवाड़ी कार्यकत्र्ता एवं सहायिका का चयन, केन्द्र की देख-रेख एवं हितग्राहियों के नाम रजिस्टर में शामिल करवाने आदि की जिम्मेदारी पंचायतों की है और इसमें महिला सरपंच और पंच दोनों बेहतर भूमिका निभा सकती हैं। निश्चय ही स्वास्थ्य के मसले को स्वास्थ्य विभाग के मत्थे ही नहीं मढ़ा जा सकता, और अब स्वास्थ्य के मुददे पर पंचायतें अपनी मौन तोड़कर कुछ कर दिखाएं। उन्हें ग्राम स्तर पर अनुपलब्ध सुविधाओं की मांग के लिए संगठित होकर आवाज उठाना पड़े, तो भी उन्हें पीछे नहीं रहना चाहिए।
(दैनिक जागरण,भोपाल,24.4.2010 से साभार)
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