गुरुवार, 8 अप्रैल 2010

पढाई देश में,कमाई विदेश में

हमारे हजारों डॉक्टर पढ़ने के बाद विदेश का रुख कर लेते हैं। अमरीका में हर पांचवा डाक्टर विदेशी है। इन विदेशियों में भी सबसे ज्यादा तादाद विकासशील देशों से आए डाक्टरों की है और उन विकासशील देशों में भी पहला स्थान भारत का है। विदेश में उनकी हालत कई बार बेरोजगारों सी होती है। ये वे डाक्टर हैं,जो अपने देश में तो सुविधाएं न मिलने और रोगियों की गरीबी का रोना रोते हैं मगर अमरीका जाकर ऐसे इलाकों में अमरीकियों के इलाज़ में सिर खपा रहे हैं जहां अमरीकी स्वयं काम करने के इच्छुक नहीं हैं। भारत में डाक्टरों की संख्या में काफी कमी को देखते हुए यह समस्या गंभीर हो गई है। इस बात पर भी चर्चा होती रही है कि मेडिकल की पढाई पर सरकार सब्सिडी क्यों दे और खासकर एम्स जैसी संस्था से पढे डाक्टरों के पलायन को कैसे रोका जाए। एक अच्छी नीति के अभाव में उन्हें भारत लाना टेढ़ी खीर साबित होता है ।7 अप्रैल,2010 के नई दुनिया में,"डाक्टर भारत क्यों नहीं आते" शीर्षक से प्रकाशित आलेख में,प्रवीण कुमार जी ने इस मुद्दे की पड़ताल की हैः
"आधिकारिक तौर पर देश में छह लाख डॉक्टरों और दो लाख नर्सों की कमी बताई गई है। इसका असल खामियाजा देश की दो-तिहाई ग्रामीण आबादी को भुगतना पड़ रहा है। हमारे हजारों डॉक्टर देश के चिकित्सा संस्थानों में पढ़ने के बाद विदेश का रुख कर लेते हैं। ब्रिटेन में करीब ७००० भारतीय डॉक्टर बेकार हैं। यही हालत अन्य यूरोपीय देशों और अमेरिका में गए भारतीय डॉक्टरों की भी है। अब यह प्रश्न सहज उठता है कि ये भारत लौट क्यों नहीं आते और चिकित्सा सुविधाओं के अभाव से जूझते गांवों में प्रैक्टिस क्यों नहीं करते? यह संभव है, अगर सरकार ईमानदार कोशिश करे और गांवों में इलाज के लिए आवश्यक सुविधाएं उपलब्ध कराए। यह अधिक खर्चीली भी नहीं है क्योंकि गांवों में अब भी लोग हैजा, इन्फ्लूएंजा, मलेरिया, कालाजार जैसी बीमारियों से अधिक मरते हैं। जच्चा-बच्चा की मौतें भी यहां काफी होती हैं। इन मौतों का सबसे बड़ा कारण गांवों में डॉक्टरों का अभाव है लेकिन न तो सरकार की प्राथमिकता में ग्रामीणों की बदतर स्वास्थ्य की स्थिति है और न ही अधिकांश डॉक्टरों में इस ओर से अपनी जिम्मेदारी का सही अहसास। प्रत्येक भारतीय पर स्वास्थ्य के मद में होने वाले १०५० रुपए में सरकार की हिस्सेदारी केवल १८४ रुपए है। सरकार कुल जीडीपी का १ प्रतिशत से भी कम हिस्सा स्वास्थ्य क्षेत्र में खर्च करती है। फिर खर्च का करीब ७५ प्रतिशत हिस्सा शहर के चिकित्सा सेटअप के काम आता है। ऐसे में इंडियन मेडिकल एसोसिएशन, ए एसोसिएशन ऑफ रूरल सर्जन ऑफ इंडिया और चिकित्सा को मिशन मानने वाले डॉक्टर भी प्रवासी डॉक्टरों को भारत लाने का प्रयास कर सकते हैं। कई डॉक्टरों ने ग्रामीण क्षेत्रों में ऐसे कार्य किए हैं जो इस पेशे की गौरवशाली परंपरा में चार चांद लगाते हैं। छत्तीसगढ़ के दुर्ग जिले स्थित शहीद अस्पताल, बिलासपुर जिले के गिन्यरी गांव का सामुदायिक केंद्र, उत्तराखंड के रानीखेत स्थित रवि दयाल का पारिवारिक ट्रस्ट, तमिलनाडु के धर्मपुरी जिले के आदिवासी क्षेत्र सिट्टलिंगी स्थित ट्राइबल हेल्थ इनिशिएटिव आदि केंद्र पर मौजूद कुछ डॉक्टर बेहद सस्ते दर पर ऐसे लोगों के इलाज में आज जुटे हैं जिनके लिए इलाज शब्द कुछ वर्ष पूर्व तक दूर की कौड़ी समझी जाती थी। इन केंद्रों के कई डॉक्टर राजधानी के बड़े अस्पतालों व विदेशों में मिली नौकरी को छोड़ यहां कार्य कर रहे हैं। ऐसे में इस उम्मीद को बेजा नहीं समझा जा सकता कि ब्रिटेन में मौजूद डॉक्टर भी ऐसा करें। यह उनके लिए ऐसा विकल्प है जो उनकी प्रतिभा को गौरवान्वित ही करेगा। अपने किसी डॉक्टर के कौशल को विदेश में बेकार होता हुआ देखना उन डॉक्टरों और चिकित्सकीय सुविधाओं के अभाव से जूझते ग्रामीणों के खिलाफ असंवेदनशीलता ही है। कम से कम हमें प्रयास तो करने ही चाहिए कि वे बाइज्जत भारत लौटें। गांवों में वे काम करें, न करें उनकी मर्जी लेकिन हमें यह तो कबूलना ही होगा की नीतियों की खोट ही है कि वे फिलहाल भुखमरी को तवज्जो दे रहे हैं बनिस्बत गांवों में काम करने के।"

2 टिप्‍पणियां:

  1. एसोसिएशन ऑफ रूरल सर्जन ऑफ इंडिया . यह कौन सा असोशिएशन है .
    ब्रिटन और अमेरिका में बेरोजगार डॉ का संदर्भ का सोर्स क्या है

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  2. आदरणीय महेश साहब,कृपया निम्नांकित लिंक देखें-
    http://www.arsi-india.org/
    अमरीकी डाक्टरों की संख्या संबंधी विवरण के लिए नीचे के लिंक से जुड़े आलेख का छठा पैरा देखा जाएः
    http://www.hinduonnet.com/thehindu/mag/2006/12/10/stories/2006121000100300.htm
    ब्रिटिश डाक्टरों की संख्या का विवरण प्रवीण कुमार जी ही बेहतर बता सकते हैं। फिर भी,इतना अवश्य है कि आपने और अधिक सतर्कता बरतने की अपेक्षा पैदा कर दी है।

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