आज डाक्टर्स डे पर,दो प्रमुख समाचारपत्रों ने देश मे टीकाकरण की आड़ में चल रहे मुनाफाखोरी के धंधे पर टिप्पणियां की हैं। गौरतलब है कि भारत में संक्रामक रोगों की रोकथाम के लिए व्यापक टीकाकरण का कार्यक्रम पिछले करीब ढाई दशकों से चल रहा है जिससे होने वाले मुनाफे पर बहुराष्ट्रीय कंपनियों की तगड़ी नजर है। दैनिक नई दुनिया ने अपने संपादकीय में ध्यान दिलाया है कि पूर्व स्वास्थ्य मंत्री अंबुमणि रामदौस ने सस्ते टीके बनाने वाली केंद्र सरकार की कुछ कंपनियों में उत्पादन बंद करवा दिया था। बाद में शोर मचने पर इनमें उत्पादन शुरू तो कर दिया गया मगर उन टीकों का उत्पादन बंद रखा गया, जिनकी बड़े पैमाने पर टीकाकरण कार्यक्रम के लिए जरूरत होती है। इसकी बजाय इन्हें वे टीके बनाने दिए गए जिनकी जरूरत कम पड़ती है। फिर सरकार ने इस टीकाकरण कार्यक्रम के तहत पांच टीकों का एक टीका (पेंटावेलेंट) बनाने की योजना बनाई। इसका मुख्य उद्देश्य भी निजी क्षेत्र की कंपनियों को मुनाफा बटोरने का अवसर देना था लेकिन बाद में इस पर भी रोक लगानी पड़ी। अब विदेशी दवा कंपनियां खासतौर पर ऐसे टीके बनाने लगी हैं जो कई रोगों की रोकथाम में कारगर बताए जाते हैं। इनमें से एक संक्रामक रोग वह जरूर होता है जो कि व्यापक टीकाकरण कार्यक्रम में शामिल है। इस प्रकार ये कंपनियां उन टीकों को अधिक प्रोत्साहित कर रही हैं जिनके आमतौर पर बच्चों को जरूरत नहीं है और इसके जरिए वे खुद बड़ा मुनाफा कमा रही हैं। वे डॉक्टरों को भी 30 से लेकर 70 प्रतिशत तक के फायदे का लालच दे रही हैं ताकि वे खुद इन्हें खरीदकर बच्चों को लगाएं। इसमें एक टीके पर 43 प्रतिशत का मुनाफा है, जो कि 620 रुपये होता है। एक्टहिब टीके पर तो डॉक्टरों को 70 प्रतिशत तक मुनाफा खाने की छूट दी जा रही है। पत्र लिखता है कि इस तरह न केवल टीकाकरण के सरकारी कार्यक्रम में सेंध लगाई जा रही है बल्कि जो संपन्न वर्ग है उसके बच्चों को अनावश्यक रूप से महंगे टीके देकर डॉक्टरों को भी मुनाफे के इस खेल में शामिल किया जा रहा है और अनजान लोगों को लूटा जा रहा है।
इसी विषय पर आज नवभारत टाइम्स में रेमा नागराजन की रिपोर्ट कहती है कि कई वैक्सीन निर्माता डॉक्टरों को काफी कम कीमत पर वैक्सीन देने का प्रस्ताव रखते हैं। पर इनमें से कई, रोगियों से दवाओं की पूरी कीमत वसूलते हैं। कीमत के बीच का यह पूरा अंतर डॉक्टर की जेब में जाता है।
जितना ज्यादा दवा कंपनी छूट देगी, लाभ का उतना बड़ा हिस्सा डॉक्टर को मिलेगा। इसलिए जब कोई डॉक्टर किसी ऐसी वैक्सीन के लिए जोर डालता है जो यूनिवर्सल इम्यूनाइजेशन प्रोग्राम का हिस्सा नहीं हैं तो यह तय कर पाना मुश्किल है कि वह ऐसा आपके बच्चे की सेहत की खातिर कर रहा है या अपनी जेब की खातिर।
सुश्री रेमा ने एम्स में बाल रोग विभाग के डॉ. राकेश लोढ़ा और छत्तीसगढ़ की जन स्वास्थ्य सहयोग के डॉ. अनुराग भार्गव के हालिया अध्ययन की ओर ध्यान दिलाया गया है जो इंडियन जर्नल ऑफ मेडिकल एथिक्स के ताजा अंक में छपा है। अध्ययन के मुताबिक,डॉक्टर को मिली कीमत और एमआरपी के बीच का पर्सेंटेज मार्जिन 30 से 69 पर्सेंट तक होता है। अगर इसे रुपये के स्तर पर गिनें तो वैक्सीन प्रति डोज एमआरपी पर मिलने वाला डिस्काउंट 85 से 620 रुपये तक होता है।
कई वैक्सीन में तीन या उससे ज्यादा डोज देने की जरूरत होती है। इसलिए प्रति बच्चे के वैक्सिनेशन पर प्रॉफिट मार्जिन 1800 रुपए तक हो सकता है। मजेदार बात यह है कि डॉक्टरों को जो वैक्सीन डिस्काउंट रेट पर दी जाती हैं, वे टीकाकरण के लिए प्रस्तावित नहीं होतीं। ऐसा जोरदार प्रमोशन नई, महंगी या कॉम्बिनेशन वैक्सीन के लिए किया जाता है जिनके फायदे और सार्थकता भारतीय संदर्भ में अभी साबित भी नहीं हुई है।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
एक से अधिक ब्लॉगों के स्वामी कृपया अपनी नई पोस्ट का लिंक छोड़ें।