एऩडीटीवी के जाने-माने पत्रकार रवीश कुमार जी ब्लॉग पर दैनिक हिंदुस्तान में नियमित रूप से लिखते हैं। उनकी बेलाग टिप्पणियों को ब्लॉग जगत में ध्यान से पढा जाता है। आज अपने ब्लॉगवार्ता स्तम्भ में उन्होंने इस ब्लॉग की चर्चा की है। उनकी इस चर्चा के बाद,इस ब्लॉग पर और गंभीरता से काम करने की जिम्मेदारी बढी है। रवीश कुमार जी और दैनिक हिंदुस्तान के साथ-साथ चिट्ठाजगत और ब्लॉगवाणी को भी धन्यवाद जिन्होंने इस ब्लॉग को सार्वजनिक करने में अप्रतिम सहयोग दिया है। पाठकों आप सब का भी आभार जिनके लिए मैं आगे भी काम करता रहूंगा। बहरहाल,पूरा आलेख आप भी पढिएः
बीमारी अब लोगों के घर बिकवा रही है। पटना से एक मित्र अपनी मां को लेकर दिल्ली आईं। पटना में बहुविशेषज्ञता वाले अस्पताल नाम के हैं। नीतीश कुमार ने स्वास्थ्य में सुधार तो किया है, लेकिन गंभीर बीमारियों में पटना के अस्पताल विश्वसनीयता हासिल नहीं कर पाये हैं। जिस मित्र की बात कर रहा हूं, उनकी मां को डॉक्टर ने 44 हजार का इंजेक्शन बताया है। दस दिन तक लगने वाले इस इंजेक्शन से परिवार की क्या हालत हुई होगी, आप समझ सकते हैं। मेरे सहयोगी की मां को कैंसर है। 35 हजार रुपए की दस गोली बताई गई है। स्वास्थ्य को लेकर अब नहीं जागे, तो घर-बार बिकने की नौबत आने वाली है।यह जागरूकता दोतरफा होनी चाहिए। सरकार पर बेहतर और सस्ते इलाज उपलब्ध कराने का दबाव डाला जाए। सरकारी अस्पतालों पर लाखों रुपया खर्च होता है। फिर भी ये विश्वसनीय क्यों नहीं है। जिस प्रोफेसर के टैक्स से सरकार का काम चला, उस प्रोफेसर का घर बिकने की हालत में है। क्यों सरकारी अस्पताल बेहतर नहीं हो सकते। पर्चा, पुर्जी और मुफ्त की चार दवाइयों से काम नहीं चलेगा। शायद इसीलिए ब्लागर कुमार राधारमण ने स्वास्थ्य की खबरों को जमा करना शुरू कर दिया है। आप क्लिक कर सकते हैं- http://upchar.blogspot.com%e0%a5%a4/ इस ब्लॉग पर अखबारों में छपी स्वास्थ्य संबंधी सूचनाओं का संकलन किया जा रहा है।
राधारमण बता रहे हैं कि दिल्ली सरकार ने अब अपने शिक्षकों को भी दिल्ली सरकार कर्मचारी स्वास्थ्य योजना में शामिल कर लिया है। दूसरी खबर यह है कि दिल्ली में एड्स के 10,000 मरीज पंजीकृत हैं, लेकिन सिर्फ छह हजार मरीज ही इलाज के लिए पहुंच रहे हैं। बाकी कहां गए, किसी को पता नहीं। पिछले साल दिल्ली में एड्स की वजह से 16 लोगों ने आत्महत्या भी कर ली। सामाजिक अपमान और महंगा इलाज। दोनों वजहों से इन 16 लोगों ने मौत का रास्ता चुना होगा।
देश के लाखों सरकारी अस्पतालों को बेहतर करने का अभियान शुरू कर दीजिए, अपने विधायक और सांसद को लेकर जाइये इन अस्पतालों में। पूछिये कि इन डॉक्टरों के रहते यह अपने जिले का सर्वश्रेष्ठ अस्पताल क्यों नहीं बन सकता। लेकिन सरकारी अस्पतालों के अच्छे कामों को भी सामने लाने की जरूरत है। राधारमण की एक पोस्ट दिल्ली में शाहदरा का मानव व्यवहार व संबद्ध विज्ञान संस्थान यानी मेंटल हास्पीटल के मनोरोगियों को ओझा और बाबाओं से बचाने के अभियान की जानकारी देता है।
डॉक्टर कहते हैं कि पहले की अपेक्षा मनोरोगियों की संख्या तेजी से बढ़ रही है। निम्न तबके से लेकर पॉश कालोनियों के लोग तनाव के कारण मनोरोग के शिकार हो रहे हैं। अभियान इस बात पर जोर देगा कि मनोरोगी अस्पतालों में इलाज करायें और हेलमेट लगायें ताकि गिरने पर सिर में चोट न लगे। इसके लिए नुक्कड़ नाटकों का भी आयोजन किया जाएगा।
इस ब्लॉग पर पटना हिन्दुस्तान में छपा डॉक्टर सागर भट्टाचार्य का लेख है। डॉक्टर भट्टाचार्य दो साल तक निरंतर स्तनपान पर जोर देते हैं। डिब्बाबंद दूध के विज्ञापनों के झांसे में आकर स्तनपान की तरफ रुझान कम हुआ है, लेकिन डक्टर कहते हैं कि उनमें जितनी भी पौष्टिकता हो, मां के दूध की बराबरी करने की ताकत नहीं है। यही नहीं बच्चे को बोतलों से दूध पिलाने की बजाय कटोरी चम्मच का इस्तेमाल करना चाहिए।
हिन्दुस्तान की ही एक और खबर इस ब्लॉग पर है कि बिहार सरकार 20 अस्पतालों को अंतरराष्ट्रीय स्तर का बनाएगी। सुनने में अच्छा लगा लेकिन यह लक्ष्य हासिल करना एक मुश्किल काम है। स्वास्थ्य मंत्री नंदकिशोर यादव का बयान है कि इन अस्पतालों में डॉक्टरों की नियुक्ति होने के बाद मानकों पर खरा नहीं उतरने पर कार्रवाई भी की जाएगी।
काश ! ऐसा होने लगे। जल्दी हो। अच्छा है राधारमण ऐसी खबरों का संकलन कर रहे हैं। टीवी पर इस तरह की खबरें नहीं आ पातीं। हेल्थ को ट्रैंड बनाकर खबर चलती है। अस्पतालों को लेकर एकाध स्टिंग हो जाते हैं। बस काम खत्म, लेकिन महंगे इलाज और खराब सरकारी अस्पतालों के खिलाफ निरंतर रिपोर्टिग नहीं होती है।
राधारमण फिटनेस को इलाज के साथ साथ रोजगार के रूप में भी देखते हैं। लिखते हैं कि फिटनेस ट्रेनर, योगा टीचर उच्चस्तरीय काम करके अच्छा पैसा कमा सकते हैं। असली बात फिर भी यही है कि कैसे तय किया जाए कि जनता के पैसे से चलने वाले लाखों सरकारी अस्पताल बेहतर काम कर सकें। वर्ना अखबारों के कॉलमों और एकाध गुर्दा दिवस या कैंसर दिवस मना लेने से समस्या का समाधान नहीं। एम्स के बाहर कई लोग मिल जायेंगे जिनका इलाज के चक्कर में सब-कुछ बिक चुका है। ये किसी के साथ हो सकता है।
ravish@ndtv.com
लेखक का ब्लॉग है naisadak.blogspot.com
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इस खबर को,प्रिंट मीडिया में ब्लॉग चर्चा संबंधी चर्चित ब्लॉग पर भी स्थान दिया गया है।
चौथी सत्ता का यह लिंक भी देखें- http://chauthisatta.blogspot.com/2010/03/blog-post_26.html
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ये आपके लिए और हमारे लिए भी खुशी और गर्व की बात है ..रविश जी के उस स्तंभ में स्थान पाना ्महत्वपूर्ण उपलब्धि से कम नहीं है
जवाब देंहटाएंअजय कुमार झा
AIIMS सरीखे संस्थानों तक में तो पूरा साजोसामान नहीं होता बाकी की कोई क्या कहे. मशीनें खरीदने को सब आगे रहते हैं क्योंकि कट मिलता है न इसमें, मशीनों के रखरखाव की कोई सोचता नहीं.
जवाब देंहटाएंचिकित्सा धंधा हे. लाला लोग अब इलाज की दुकानें खोलते हैं. सरकार पीछे हाथ बांधे घूम रही है.
आम आदमी की सांस उखड़ रही है.
सही डॉक्टर ढूढंना आसान नहीं.....चिराग छोड़िए सूरज लेकर भी निकलें तो भी आसानी से न मिले...अब ये धंधा है.....सेवा की जगह मेवा जरुरी हो गया है...राजधानी का हाल बेहाल है, बाकी देश के भगवान ही मालिक है....
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