शनिवार, 20 मार्च 2010

नब्ज़ देखने की गुम होती कला

ग्रामीण डाक्टरी के लिए एमबीबीएस की डिग्री साढे तीन साल मे ही देने के स्वास्थ्य मंत्रालय के प्रस्ताव का आयुष द्वारा विरोध किए जाने की ख़बरें पिछले दिनों ख़ूब छपी हैं। इसी बहस को आगे बढाता नवभारत टाइम्स का 19 मार्च का यह संपादकीयः 
केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री गुलाम नबी आजाद कह रहे हैं कि एमबीबीएस करने के बाद जो डॉक्टर ग्रामीण क्षेत्रों में जाएंगे उन्हें एक्स्ट्रा प्वाइंट्स दिए जाएंगे। इसके पहले सरकार ने ग्रामीण डॉक्टरों के लिए अपेक्षाकृत छोटी अवधि वाला कोर्स शुरू करने की अपनी योजना भी घोषित की है। लेकिन, देश की डॉक्टर बिरादरी इस कोर्स का जोरदार विरोध कर रही है। वह खुद भी गांवों में नहीं जाना चाहती। यह एक विचित्र स्थिति पैदा कर रही है। हमारी आधुनिक चिकित्सा मे में से डॉक्टर की सहानुभूति का तत्व धीरे-धीरे गायब होता जा रहा है। पहले डाक्टर के पास जाने पर वह जुबान देखता था, आँखों का रंग देखता था, पीठ और सीने पर आला लगा कर तेज-तेज सांस लेने को कहता था और नब्ज की चाल गिनता था। यदि वह एक्स रे या खून की जाँच कराने को लिख देता, तो समझा जाता था कि बीमारी गंभीर है। लेकिन, अब तो प्रयोगशाला में होने वाली जांच ही निर्णायक भूमिका अदा करने लगी है।

गांवों, कस्बों और छोटे शहरों में इन सुविधाओं का भी अभाव है। अमेरिका आदि पश्चिमी देशों में तो डॉक्टर का सामने आना भी गैरजरूरी होता जा रहा है। वहां अब मरीज से कम से कम बातें होती हैं। कंप्यूटर पर आने वाले आंकड़े बिना मरीज के बोले, सब कुछ उगल देते हैं। इसलिए, डॉक्टर अपने मरीज के सामने बैठने के बदले, अपने कंप्यूटर के सामने बैठना कहीं ज्यादा उपयोगी समझते हैं। कंप्यूटर से मिलने वाली जानकारी ज्यादा सटीक होती है। खून और पसीने से लेकर कैट स्कैन और थेलियम स्ट्रेस तक सब कुछ जाँच केंदों में होता है। फिर अनुमान के आधार पर इलाज क्यों किया जाए? यह बात भारतीय संदर्भों में अभी पूरी तरह लागू नहीं होती लेकिन महानगरों में यह ट्रेंड आसानी से देखा जा सकता है। लेकिन, दूसरे कारणों से ही सही डॉक्टर यहां भी दुर्लभ होते जा रहे हैं।

भारत की अपनी चिकित्सा पद्धतियां स्पर्श अध्ययन पर ही आधारित थीं। वैद्म या हकीम के पास जाने पर वे सबसे पहले नब्ज पर हाथ रखते थे, नाड़ी की गति और चेहरे की रंगत से रोग की पहचान किया करते थे। आज भी जो इस पद्धति से इलाज करते हैं, वे रोगों की पहचान इन्हीं के लक्षणों से करते हैं। रिकी और एक्यूप्रेशर जैसी विदेशी पद्धतियों में भी स्पर्श को बहुत महत्व दिया गया है, लेकिन एलोपैथी के प्रचार ने सबको ग्रस लिया है और एलोपैथी को शुष्क विज्ञान ने ग्रस लिया है।

ऐसा नहीं है कि दूसरी चिकित्सा पद्धतियां अवैज्ञानिक हैं, लेकिन एलोपैथी की वैज्ञानिकता में अति मशीनवाद हावी हो गया है। वह डॉक्टर के उस जादुई स्पर्श का महत्व भूल गया है। अमेरिका और यूरोप में तो 50 से कम उम्र के ऐसे डाक्टर अब नजर ही नहीं आते, जो मरीज का फिजिकल एक्जामिनेशन करना जानते हों। उनसे पूछो कि क्या मरीज का लीवर टटोल कर देखा तो वे खून की रिपोर्ट का हवाला देने लगते हैं। उनसे पूछो कि क्या मरीज पीला दिख रहा था तो कहते हैं कि यह सब तो देखा ही नहीं। लेकिन इस लुप्त हो रही विधा को बचाने के लिए भी डाक्टरों का एक समुदाय उठ खड़ा हुआ है। जैसे फिलाडेल्फिया के डा. सेल्वाटोर मैंगोईंन हैं। वे कहते हैं कि फिजिकल इक्जामिनेशन सिर्फ रोग को पहचानने के लिए नहीं होता, यह डॉक्टर को वास्तव में अपने मरीज को छूने का एक अवसर देता है। उस स्पर्श में आत्मीयता और आश्वासन होता है  ' मैं तुम्हारी तकलीफ समझ रहा हूँ। घबराओ नहीं, मैं तुम्हें स्वस्थ कर दूंगा।'
उन्हीं की तरह ऑगस्टा के हृदय रोग विशेषज्ञ डा. मिशेल लाकोम्बे हैं, जो दावा करते हैं कि मरीज के फिजिकल एक्जामिनेशन में बहुत-सी ऐसी बारीक बातों का पता चलता है जिसे कंप्यूटरों से नहीं जाना जा सकता, जिन्हें आंकड़ों में नहीं व्यक्त किया जा सकता। इसलिए डॉक्टर के साथ दस मिनट के उस सान्निध्य की उपयोगिता है, जिसे आधुनिक जाँच या निदान पद्धति खारिज नहीं कर सकती। न्यूयार्क यूनिवर्सिटी के मेडिकल स्कूल में डा. जेक्लिन अचकर यूरोप से आने वाले छात्रों को फिजिकल एक्जामिनेशन का तरीका अलग से पढ़ाती हैं, क्योंकि उन्हें अब इसके बारे में कुछ पता ही नहीं होता।
(चित्र मे पुरस्कार ग्रहण कर रहे हैं नब्ज से बीमारी का पता लगाने वाले विश्वप्रसिद्ध वैद्य देविंदर त्रिगुणा जी)

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