गर्भ मे पल रही कन्याओं की हत्या पर लाजपत राय सभरवाल जी का यह आलेख आज नभाटा,दिल्ली मे, कन्या भ्रूण हत्या परमात्मा की सृष्टि से खिलवाड़ शीर्षक से छपा हैः
हमारे देश में बेटे के मोह के चलते हर साल लाखों बच्चियों की इस दुनिया में आने से पहले ही हत्या कर दी जाती है। लड़कियों की इतनी अवहेलना,इतना तिरस्कार चिंताजनक और अमानवीय है। जिस देश में स्त्री की सेवा, त्याग और ममता की दुहाई दी जाती हो, उसी देश में एक कन्या के आगमन पर पूरे परिवार में मायूसी और शोक छा जाना बहुत बड़ी विडंबना है।
लोगों में पुत्र की बढ़ती लालसा और खतरनाक गति से लगातार घटता स्त्री-पुरुष अनुपात समाजशास्त्रियों, जनसंख्या विशेषज्ञों और योजनाकारों के लिए चिंता का विषय बन गया है। यूनिसेफ के अनुसार दस प्रतिशत महिलाएं विश्व जनसंख्या से लुप्त हो चुकी हैं। स्त्रियों के इस विलोपन के पीछे कन्या भ्रूण हत्या ही मुख्य कारण है। भ्रूण हत्या का कारण है कि हमारे समाज में व्याप्त रूढ़िवादिता और लोगों की संकीर्ण सोच।
संकीर्ण मानसिकता और समाज में कायम अंधविश्वास के कारण लोग बेटा-बेटी में भेद करते हैं। प्रचलित रीति-रिवाजों और सामाजिक व्यवस्था के कारण भी बेटा और बेटी के प्रति लोगों की सोच विकृत हुई है। ज्यादातर मां-बाप सोचते हैं कि बेटा तो जीवन पर्यंत उनके साथ रहेगा और बुढ़ापे में उनका सहारा बनेगा। समाज में वंश परंपरा का पोषक लड़कों को ही माना जाता है। इस पुत्र कामना के चलते ही लोग अपने घर में बेटी के जन्म की कामना नहीं करते।
बड़े शहरों के कुछ पढ़ेलिखे परिवारों में यह सोच थोड़ी बदली है, लेकिन गांव-देहात और छोटे शहरों में आज भी बेटियों को लेकर पुराना रवैया कायम है। मदर टेरेसा ने कहा था, 'हम ममता के तोहफे को मिटा नहीं सकते। स्त्री और पुरुष के बीच कुदरती समानता खत्म करने के लिए हिंसक हथकंडे अपनाने से समाज पराभव की ओर बढ़ता है।' नारी मानव शरीर की निर्माता है, फिर भी उसी की अवहेलना की जा रही है। नारी अपने रक्त और मांस के कण-कण से संतान का निर्माण करती है। नर और नारी मानवरूपी रथ के ऐसे दो पहिए हैं जिनके बिना यह रथ आगे नहीं बढ़ सकता।
महर्षि दयानंद ने कहा था कि जब तक देश में स्त्रियां सुरक्षित नहीं होंगी और उसे उसके गौरवपूर्ण स्थान पर प्रतिष्ठित नहीं किया जाएगा, तब तक समाज, परिवार का और राष्ट्र का निर्माण नहीं हो सकेगा। अंग्रेजी में एक कहावत है 'जो हाथ पालने को झुलाता है, राज्य/विश्व में शासन करता है।'
हमारे वेदों में नारी के प्रति बहुत ही उदात्त भावनाएं दर्शाई गई हैं। वेद का नारी के प्रति दृष्टिकोण समन्वयवादी है। वेदों में नारी को ब्रह्मा भी कहा गया है। जिस प्रकार प्रजापति संसार की रचना करते हैं, उसी प्रकार स्त्री भी मानव जाति की रचनाकार है। यजुर्वेद में कहा है- 'हे पुत्री, तुम भावी जीवन में सदा स्थिरता के साथ खड़ी रहना।'
आज नारी विभिन्न क्षेत्रों में अपना सकारात्मक योगदान कर रही है। वह आत्मनिर्भर होकर अपने परिवार और देश का हित करने में संलग्न है। ऐसे में अगर नारी की अवहेलना होगी तो समाज और देश का अहित होगा। महिलाओं के प्रति वर्तमान दृष्टिकोण इस युग की सबसे बड़ी त्रासदी है। यह हमारे समाज की बर्बर मानसिकता का ही प्रतीक है कि महिलाओं को शिक्षा, स्वास्थ्य, आर्थिक स्वतंत्रता का अधिकार देने की बात तो दूर उन्हें जन्म लेने से भी वंचित रखा जाता है।
यह विडंबना ही है कि जिस देश में कभी नारी को गार्गी, मैत्रेयी जैसी विदुषी महिलाओं के रूप में सम्मान प्राप्त हुआ, वहीं अब कन्या के जन्म पर परिवार और समाज दुख व्याप जाता है। अच्छा हो मनुष्य जाति अपनी गरिमा पर प्रश्नचिह्न लगाने वाली ऐसी गतिविधि से बचे और कन्या के जन्म को अपने परिवार में देवी अवतरण के समान माने।
हम न भूलें कि भविष्य लड़कियों का है। ऐसे में नारी का अवमूल्यन करना समूची मनुष्य जाति का अवमूल्यन करना है। मां का भी यह कर्त्तव्य है कि वह समाज के दबाव में आकर लड़की-लड़के का फर्क न करे। दोनों को समान स्नेह दें, दोनों के विकास में बराबर दिलचस्पी लें। बालिका-बालक दोनों प्यार के अधिकारी हैं। इनमें किसी भी प्रकार का भेद परमात्मा की इस सृष्टि के साथ खिलवाड़ है।
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