मंगलवार, 22 दिसंबर 2009

बीमार स्वास्थ्य केंद्र

आम जनता को बेहतर शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाएं प्रदान करना किसी भी सरकार का सामाजिक दायित्व ही नहीं, बल्कि प्राथमिक कर्तव्य होता है। ऐसा लगता है कि केंद्र और राज्य सरकारों ने अपने सामाजिक दायित्वों के साथ-साथ बुनियादी कर्तव्यों के प्रति भी उदासीनता ओढ़ ली है। यदि ऐसा नहीं होता तो ऐसे तथ्य सामने नहीं आते कि बिहार में 92 फीसदी सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों में सामान्य डॉक्टर नहीं हैं तो उत्तर प्रदेश में 78 फीसदी सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों में जनरल सर्जन नहीं हैं। इस तरह की समस्याएं केवल समस्याग्रस्त यूपी-बिहार में ही नहीं हैं, क्योंकि जम्मू-कश्मीर के 83 फीसदी सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों में प्रसूति रोग विशेषज्ञ नहीं हैं तो हिमाचल प्रदेश के सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों में न तो जनरल फिजीशियन हैं और न ही सर्जन। इसी तरह कई राज्य ऐसे पाए गए जहां के स्वास्थ्य केंद्रों में नर्स-दाइयों को खोजना मुश्किल है। नियंत्रक और महालेखा परीक्षक की मानें तो उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और पश्चिम बंगाल सहित दस राज्यों में एक भी ऐसा उप केंद्र नहीं जहां न्यूनतम संख्या में दाइयां उपलब्ध हों। सीएजी ने राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन के तहत खर्च किए गए 24 हजार करोड़ रुपये के ऑडिट के दौरान स्वास्थ्य सेवाओं के ढांचे को लचर हाल में पाया तो इसका सीधा मतलब है कि राज्य सरकारें स्वास्थ्य संबंधी सुविधाओं को बेहतर करने के प्रति तनिक भी प्रतिबद्ध नहीं और उनकी दिलचस्पी केवल केंद्रीय सहायता हासिल करने में रहती है। आखिर इसका क्या मतलब कि राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन के तहत 24 हजार करोड़ रुपये खर्च कर दिए जाएं और फिर भी अराजकता की हद तक अव्यवस्था पाई जाए? सीएजी का आकलन यदि कुछ कहता है तो यही कि देश में स्वास्थ्य ढांचा चरमरा रहा है। विडंबना यह है कि हमारे नीति-नियंता चरमराते स्वास्थ्य ढांचे की चिंता करने के बजाय इस पर मुग्ध होते रहते हैं कि देश में मेडिकल पर्यटन एक बड़े व्यवसाय का रूप ले रहा है। क्या यह शर्मनाक नहीं कि मेडिकल पर्यटन के इस दौर में आम देशवासी सरकारी अस्पतालों में उपचार कराने की स्थिति में नहीं? इस पर राहत नहीं महसूस की जा सकती कि देश में निजी अस्पताल तेजी से बढ़ रहे हैं, क्योंकि जैसे-जैसे ये अस्पताल बढ़ रहे हैं वैसे-वैसे सरकारी स्वास्थ्य ढांचा और अधिक दुर्दशाग्रस्त होता जा रहा है। चूंकि सरकारी अस्पताल आम आदमी की अपेक्षाओं पर खरे नहीं उतर पा रहे इसलिए एक बड़े तबके के समक्ष इलाज न कराने अथवा झोलाछाप डाक्टरों की शरण लेने के अलावा और कोई उपाय नहीं। इस पर आश्चर्य नहीं कि भारत बीमारियों और रोगियों का घर बनता जा रहा है। यद्यपि सरकारें यह अच्छी तरह जानती हैं कि स्वास्थ्य ढांचे में निवेश एक प्रकार से देश की तरक्की में किया जाने वाला निवेश है, लेकिन वे इस पर भी ध्यान नहीं दे रही हैं कि उनके अपने अस्पतालों में पर्याप्त संख्या में चिकित्सक एवं अन्य मेडिकल स्टाफ उपलब्ध हो। दुर्भाग्य से स्वास्थ्य ढांचे जैसा हाल शिक्षा के ढांचे का भी है। यदि शिक्षा और स्वास्थ्य ढांचे में सुधार नहीं हुआ तो फिर देश के बेहतर भविष्य की कल्पना करने का कोई औचित्य नहीं। समस्या यह है कि सीएजी का आकलन अब हमारे नीति-नियंताओं की सेहत पर कोई असर नहीं डालता। (साभारःदैनिक जागरण,पटना,22 दिसम्बर,2009 का संपादकीय) 

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