जब से मोबाइल फोन का प्रचलन शुरू हुआ है, रह-रहकर यह समाचार सुनने में आते हैं कि इससे स्वास्थ्य को खतरा है। आधुनिक जीवन में यह इतना जरूरी हो गया है कि कोई खतरे की आशंका की ज्यादा परवाह नहीं करता। अब विश्व स्वास्थ्य संगठन की अंतरराष्ट्रीय कैंसर अनुसंधान एजेंसी (आईएआरसी) ने रेडियो फ्रीक्वेंसी इलेक्ट्रोमैगनेटिक फील्ड्स को मस्तिष्क के कैंसर का एक संभावित कारण मान लिया है। इस एजेंसी ने कहा है कि वायरलेस फोन का काफी समय से देर तक प्रयोग होने से ग्लीओमा यानी एक तरह का मस्तिष्क का कैंसर हो सकता है। एजेंसी ने इसके खतरे को ग्रुप २वी के अंतर्गत रखा है। इस ग्रुप में २४० अन्य चीजें भी शामिल हैं, जिसमें निम्न स्तरीय चुम्बकीय क्षेत्र का भी समावेश है जो मोबाइल फोन के प्रयोग से पैदा होता है। मगर अभी इससे होने वाले शारीरिक नुकसान का कोई निश्चित प्रमाण नहीं मिला है। एजेंसी ने माना है कि मोबाइल फोन इस्तेमाल करने वालों में बहुत सीमित रूप में मस्तिष्क के कैंसर के उदाहरण देखने में आए हैं लेकिन इसी बात से मोबाइल फोन के प्रयोग और मस्तिष्क के कैंसर में एक संबंध तो स्थापित हो ही जाता है, भले ही उसके उदाहरण बहुत सीमित संख्या में देखने में आएं। तम्बाकू के साथ भी तो ऐसा ही है। अनेक लोग लंबी उम्र तक सिगरेट-बीड़ी पीते रहते हैं, तम्बाकू-खैनी खाते रहते हैं और उन्हें कुछ नहीं होता मगर इस बात से तम्बाकू सेवन और कैंसर का संबंध गलत भी साबित नहीं होता। इस रिपोर्ट से एक साल पहले विश्व स्वास्थ्य संगठन ने दस से ज्यादा देशों में एक अध्ययन कराया था, जिसमें ऐसे लोगों को शामिल किया गया था, जो पिछले दस वर्षों से मोबाइल फोन का इस्तेमाल करते आए थे। इस अध्ययन में मोबाइल फोन से इस तरह के किसी खतरे की कोई जानकारी नहीं मिली थी। इसलिए लोगों को निर्भय होकर मोबाइल फोन का प्रयोग करने का भरोसा मिला था लेकिन ताजे अध्ययन के बाद मोबाइल फोन को लेकर शक या भय की गुंजाइश पैदा हो गई है। विज्ञान के अगर अपार लाभ हैं तो कुछ हानियां भी हैं। मसलन मोबाइल फोन ने हमारी जिंदगियों को बदलकर रख दिया है। भारत में तो जितने लोगों के घरों में स्नान घर और शौचालय की सुविधाएं नहीं हैं, उससे कहीं ज्यादा लोगों के पास मोबाइल फोन हैं। वे मोबाइल फोन के बिना अपनी जिंदगियों की कल्पना भी नहीं कर सकते। वे इसके जरिए हर वक्त अपने कारोबार, अपने लोगों और अपने घर से जुड़े रहते हैं, चाहे वे भारत के किसी भी कोने में क्या, विदेश में भी हों। अतः मोबाइल फोन को उठाकर फेंका तो नहीं जा सकता। उसके इस्तेमाल में एक तरह का संतुलन बनाना ही ज्यादा उचित और तर्क संगत होगा। भारत ने भी इस रिपोर्ट को अभी स्वीकार नहीं किया है और खुद अपना अध्ययन कराकर किसी निष्कर्ष पर पहुंचने की बात कही है। दरअसल, अलग-अलग अध्ययनों का निष्कर्ष एक सा नहीं निकला है। मसलन डेनमार्क में २००१ और फिर २००६ में ४ लाख मोबाइल उपभोक्ताओं का अध्ययन किया गया तो कैंसर का कोई भी सबूत नहीं मिला, जबकि अभी एक दो वर्ष पहले स्वीडन में किए गए एक अध्ययन में पता चला कि जो लोग और खासकर २० वर्ष से कम आयु के लोग पिछले दस वर्षों से मोबाइल फोन का इस्तेमाल कर रहे हैं, उन्हें मस्तिष्क के कैंसर का खतरा ज्यादा है। कभी सुनने में आता है कि मोबाइल फोन के अधिक प्रयोग से सुनने की ताकत पर असर पड़ता है तो कभी यह कि शर्ट की जेब में रखने से दिल पर असर पड़ता है। एक बार तो यह भी रिपोर्ट आई कि बेल्ट में आगे लटकाने से चुम्बकीय तरंगें पुरुषत्व को प्रभावित कर सकती हैं। जो भी हो, विश्व स्वास्थ्य संगठन की ताजा रिपोर्ट से अत्यधिक मोबाइल का प्रयोग करने और मस्तिष्क कैंसर के बीच पहली बार एक रिश्ता साबित हुआ है। इसलिए एक तरफ तो हमें खुद उसके प्रयोग में संयम बरतना चाहिए और दूसरी तरफ विश्व स्तर पर और ज्यादा अध्ययन होने चाहिए ताकि मोबाइल खतरे के स्वास्थ्य पर पड़नेवाले दुष्परिणामों के बारे में स्थिति और ज्यादा स्पष्ट हो सके। यों तो एक्सरे से भी स्वास्थ्य के लिए खतरा है और गामा रे से भी लेकिन मेडिकल सेवाओं में न एक्सरे के बिना गुजारा चलता है न एमआरआई के बिना। मोबाइल फोन से उतना भी प्रभाव सेहत पर नहीं पड़ता जितना कि एक्सरे और गामा रे से पड़ता है। इसलिए होना यह चाहिए कि कुछ मार्गदर्शक नियम या सिद्धांत तय कर दिए जाएं। बच्चों के हाथों से मोबाइल फोन दूर रखा जाए और हर समय कान पर मोबाइल रखे घूमनेवाली युवा पीढ़ी को बताया जाए कि इतनी देर तक इसका इस्तेमाल लगातार करते रहोगे तो अमुक-अमुक खतरे हैं। मोबाइल से पैदा होने वाले रेडिएशन की उच्च सीमा को और कम करने के बारे में सोचा जाना चाहिए। साथ ही एहतियात के तौर पर जहां लैंड लाइन उपलब्ध हो, उसके प्रयोग को बढ़ावा दिया जाना चाहिए। या फिर मोबाइल फोन को सीधे कान पर लगाने के बजाय ईयर फोन से सुना जाना चाहिए। वैसे विज्ञान मोबाइल फोन के दुष्प्रभावों को न्यूनतम से न्यूनतम स्तर पर लाने में सक्षम है। मोबाइल फोन तेजी से कंप्यूटर, कैलकुलेटर, इंटरनेट में तब्दील हो रहा है और ऐसा समय आ रहा है जब व्यक्ति अपने सारे काम मोबाइल फोन के जरिए संपन्न करने लगेगा। घर के सारे बिल, बैंक का काम, घरों के उपकरणों को दिशा दिर्नेश देने, शॉपिंग करने जैसे तमाम काम मोबाइल फोन के जरिए होने लगेंगे। इसलिए मोबाइल फोन को ज्यादा से ज्यादा निरापद, ज्यादा से ज्यादा खतरों से मुक्त बनाया जाना चाहिए(संपादकीय,नई दुनिया,6.6.11)।
यहां तो लाला का फायदा होना चाहिये..
जवाब देंहटाएंएक प्रश्न है, मोबाइल रेडीयो तरंग और माइक्रोवेव तरंग का प्रयोग करता है, ये दोनो तरगं प्राकृतिक रूप से भी मौजूद है। यह प्रमाणित है कि ये दोनो तरंग डी एन ए को प्रभावित नही कर सकती। जब डी एन ए प्रभावित नही होगा तो कैंसर कैसे होगा ?
जवाब देंहटाएंदूसरा प्रश्न इ एम एफ का, हर विद्युत उपकरण का इ एम एफ होता है, एक साधारण पंखे का इ एम एफ मोबाइल से हजारो गुणा ज्यादा होता है, उससे कैंसर क्यो नही होता ?
तीसरा प्रश्न : पिछले १० वर्षो मे मोबाईल की संख्याओ मे जो बढो़त्तरी हुयी है क्या उस अनुपात मे कैंसर बढा़ है ?
क्या मोबाइल फोन से कैंसर हो सकता है?
तम्बाखु के बारे आपसे 100% सहमत!
Achchi jankari...
जवाब देंहटाएंचिंता की बात है। वैसे आशीष जी के सवालों पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए।
जवाब देंहटाएं---------
कौमार्य के प्रमाण पत्र की ज़रूरत किसे है?
बाबाजी, भ्रष्टाचार के सबसे बड़े सवाल की उपेक्षा क्यों?
आपका आलेख/ आशीष का कमेंट-विचारणीय.
जवाब देंहटाएंdebatable इश्यु है ।
जवाब देंहटाएं