मंगलवार, 14 जून 2011

नेत्रदान में बाधक हैं अपनों की भावनाएं

रंगों की छटा देखनेवाले भले ही आंखों के महत्व को न समझें, लेकिन काले रंग (अंधेरे) का आदी हो चुका नेत्रहीन इसके महत्व को बखूबी जानता है क्योंकि उसकी तो दुनिया ही अंधेरी होती है।

मृत्यु उपरांत नेत्रदान के बारे में जागृति की कमी कहें या मृत देह से परिवारजनों का लगाव या फिर इसे प्राथमिकता न दिए जाने का नतीजा, नेत्रदान के लिए लोग खुलकर आगे नहीं आ रहे हैं। नागपुर शहर में भी ऐसे काफी लागों की संख्या है जो नेत्रहीन हैं और वे इस प्रकृति की अनोखी दुनिया को देख पाने से मरहूम हैं।

वे न तो आस-पास होनेवाली चहलकदमी देख सकते हैं और न ही इस सुंदर दुनिया को। इसे मेयो में पिछले वर्ष हुए नेत्रदान के आंकड़े से बखूबी समझा जा सकता है। यहां नेत्रदान करने के लिए तो सैकड़ों लोगों ने फार्म भरे, लेकिन नेत्रदान किया सिर्फ 8 लोगों ने।

उत्सुकता में भरते हैं फार्म, पर..
सरकारी अस्पतालों की मानें तो सैकड़ों लोग उत्सुकतावश नेत्रदान का फॉर्म भर देते हैं, लेकिन कुछ लोग ही इसके लिए आगे आ रहे है। अक्सर परिवारवालों को इस बारे में जानकारी नहीं होती है। कहीं पता भी हो तो मृत देह से भावनात्मक संबध के चलते वे इसके लिए आगे नहीं आते हैं।

इक्का-दुक्का परिवार ही इसके महत्व को जानकर नेत्रदान के लिए आगे आता है। नेत्रहीनों में हर आयु वर्ग के लोगों का समावेश है। शहर में आठ संस्थाएं अपने-अपने स्तर पर जनजागृति के लिए कार्यरत हैं।

ये है प्रक्रिया:
नेत्रदान करने के पूर्व एक फॉर्म भरना होता है। दाता की मृत्यु के पश्चात उसकी पलकें बंद कर गीला कपास आंखों पर रखना होता है। दो से तीन घंटे के भीतर संबंधित अस्पताल में देह को ले जाना होता है। वहां डॉक्टर मृतक की कॉरनिया निकाल लेते हैं।

बाद में जरूरतमंद को उसे लगा दिया जाता है। कॉरनिया को 48 घंटे तक सुरक्षित रखा जा सकता है। समय उपरांत इसका असर कम हो जाता है। जो संशोधनकर्ता के काम आती है। एक शल्य क्रिया को करीब 2 घंटे लगते हैं। बल्ड कैन्सर का रोगी, सांप व कुत्ते के काटने के बाद मृत व्यक्ति की आंखें नहीं ली जाती हैं।

मनाया जाता है जनजागृति सप्ताह
पिछले साल 8 लोगों ने नेत्रदान किया। जो शहर की जनसंख्या को देखते हुए काफी कम है। लोगों में जागृति आए इसके लिए हर साल 25 अगस्त से 10 सितबंर तक जनजागृति सप्ताह मनाया जाता है। बच्चों की आंखें वर्तमान में जल्दी खराब होने लगी हैं, इसका कारण समय से पहले उन्हें शालाओं में डाला जा रहा है। पूर्ण रूप से विटामिन ए व सी भी लोगों को नहीं मिल पा रहा है। दुर्घटनाओं की संख्या भी बढ़ी है।
डॉ एन. जी. विभाग प्रमुख, मयो

परिवार से मिलते हैं
नेत्र दाताओं के परिवार के साथ हम बैठक कर लेते हैं, ताकी आगे परेशानी न हो। 1980 से अब तक 90 लोगों ने हमारे यहां आंखें दान की हैं। मीडिया में हम समय-समय पर दाताओं के बारे में बताते हैं, जिससे लोगों में जागृति निर्माण हो।
रमेश सातपूते, समाजसेवी(दैनिक भास्कर,नागपुर,11.6.11)

4 टिप्‍पणियां:

  1. इन सब विषयों पर भ्रम को दूर करने के लिए विशेष प्रचार अभियान चलाया जाना चाहिए।

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  2. एक टिप्पणी में, आपके द्वारा ओशो नाम
    सुनकर आपके ब्लॉग पर आयी थी !
    आपकी बहुत सारी पोस्ट पढ़ी है मैंने !
    बहुत अच्छी लगी ! आज मेरे ब्लॉग पर
    आपकी टिप्पणी पढ़कर बहुत अच्छा लगा
    उस सकारात्मक उर्जा का नाम भी ओशो है !
    धन्यवाद ! ब्लॉग पर आने का !

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  3. परन्तु ये सोचिये, की जहाँ परिवार का एक सदस्य चला जाए, वहाँ परिवार वालो को नेत्र दान करवाने की कहाँ होश रहेगी. और ऊपर से मृत शरीर को अस्पताल ले के जाने का झंझट... मुझे तो ये लगता था के डाक्टर मृतक के घर आ कर उसकी आँखें ले जाते होंगे...

    सोचा तो मैंने भी बहुत बार कि नेत्र-दान किया जाए, फिर सोचा की माँ को कौन समझायेगा, बीवी आएगी तो उसको समझा कर के करूँगा नेत्र दान :P

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