बुधवार, 8 जून 2011

घर और समाज की धुरी हैं महिलाएँ;कोई उनका भी ध्यान रखे

घर और महिलाएँ दोनों को अलग करके नहीं देखा जा सकता। घर परिवार के हर सदस्य की शुभचिंतक महिलाओं संख्या दिन ब दिन कम होती जा रही है। बीते तीन दशकों से लगातार हो रही कन्याभ्रूण हत्याओं के कारण समाज में लिंगानुपात गड़बड़ा गया है। मनोवैज्ञानिकों और समाजशास्त्रियों का मानना है कि जिस समाज में महिलाओं की संख्या पुरुषों के मुकाबले अधिक रहती है वहाँ अपराध कम होते हैं। समाज और घर दोनों महिलाओं के कारण स्वस्थ रहा हैं। कहते हैं महिला परिवार की धुरी है लेकिन व्यवहार में ऐसा नहीं पाया जाता। कहने को हर घर में महिलाओं की चलती है लेकिन यह पूरा सच नहीं है। जो सास अपनी बहू पर कन्याभ्रूण हत्या जैसे पाप के लिए दबाव बना रही है, क्या वह घर या समाज के पुरुषों के दबाव में नहीं है? यह जानते हुए भी कि गर्भपात की प्रक्रिया में माँ की जान पर भी बन आती है, क्या पुत्र पाने के लालच में परिवार यह जोखिम नहीं उठाता? कहने को यह बात बड़ी सीधी लगती है कि गर्भवती महिला की सहमति के बिना कन्याभ्रूण हत्या हो ही नहीं सकती, लेकिन क्या कोई उसके मन की बात जानता है? जो सास अपनी बहू का गर्भपात करवाने के लिए सबसे आगे है, क्या वह अपने घर की धुरी नहीं है? कारण स्पष्ट है कि केवल साक्षर होने से जागरूकता नहीं आती। आज भी साक्षर और आधुनिक समझे जाने वाले कई घरों में गर्भवती बहू की उतनी देखभाल नहीं होती जितनी चिकित्सा विज्ञान की दृष्टि से जरूरी है। किसी भी महिला के जीवन में गर्भधारण के बाद बिताए एक हजार दिन बहुत महत्वपूर्ण होते हैं। इस दो साल सात महीनों की अवधि में वह माँ भी बनती है और बच्चे की परवरिश भी करती है।

इस अवधि में उसे बच्चे को निरंतर देखभाल की ज़रूरत होती है। गर्भकाल एवं प्रसव-पश्चात् देखभाल में रह गई किसी भी तरह की कमी महिला का जीवन भर पीछा नहीं छोड़ती। सक्रिय प्रजनन प्रक्रिया से दूर होकर रजोनिवृत्ति की ओर बढ़ रही महिलाओं में कई तरह की शारीरिक समस्याएं होती हैं। यकायक तपन के आवेग आना इनमें से एक बड़ी समस्या है। हैरानी की बात है कि कोई इसे गंभीरता से नहीं लेता। खुद महिला भी इसे मामूली बात मान लेती है। रजोनिवृत्ति शुरू होने की अवधि में महिलाएँ कई तरह के मानसिक और शारीरिक परिवर्तनों से गुजरती हैं। अस्थि-क्षरण जैसी स्थाई समस्याएं इसी दौरान उनके शरीर में घर कर लेती है। ज़रा सी सावधानी से इन्हें टाला जा सकती है। महिलाओं की भूमिका केवल समाज के स्वास्थ्य तक सीमित नहीं है। समाज की प्रथम इकाई एक परिवार,एक घर भी महिला पर केंद्रित होते हैं। मसलन,घर की स्वच्छता में महिला ही अहम भूमिका निभाती है।

घरों में कई तरह के प्रदूषण पनपते हैं लेकिन हम उसके प्रति अनजान रहते हैं। देखभाल न हो,तो गादी,बिस्तर,तकिए,सोफे कीटों की कॉलोनियां बन जाते हैं। घरों की साफ-सफाई नियमित रूप से होनी चाहिए। इसमें घर के सभी सदस्यों के सक्रिय योगदान की ज़रूरत होती है,केवल महिलाओं से इसकी उम्मीद नहीं की जानी चाहिए,हालांकि सभी के लिए प्रेरणा-स्रोत महिला ही होती है। तात्पर्य यह है कि महिला स्वस्थ तो परिवार,घर स्वस्थ औऱ परिवार स्वस्थ तो समाज स्वस्थ,देश स्वस्थ। इतनी महत्वपूर्ण भूमिका को हम नज़रंदाज़ क्यों करते हैं?(संपादकीय,सेहत,नई दुनिया,जून प्रथमांक 2011)

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