अब दिल्ली की महिलाएं भी स्वस्थ शुक्राणुओं का चुनाव कर स्वस्थ बच्चे पैदा कर सकती हैं! वैसे यह तकनीक सामान्य रूप से गर्भधारण करने वाली मांओं के लिए नहीं, बल्कि टेस्ट ट्यूब बेबी के लिए प्रयासरत माताओं के लिए है। इन विट्रो फर्टिलिटी (आईवीएफ) तकनीक उन महिलाओं के लिए भी बहुत कारगर है जो बार-बार मां बनने की कोशिश में विफल रहती हैं। ऐसी औरतों के लिए इस तकनीक में मां बनने की संभावना पहली बार में ही संभव है। दिल्ली के फोर्टिस ला फेम में नई तकनीक वाली यह मशीन आई है। इन्ट्रासाइटोप्लाजमिक मॉर्फोलॉजिकली सलेक्टिड स्पर्म इंजक्शन (आईएमएसआई) नामक यह तकनीक आईवीएफ तकनीक का ही उन्नत रूप है। इस तकनीक की मदद से डॉक्टर शुक्राणुओं को ७२०० गुना अधिक बड़ा कर देख पाते हैं, जिससे उन्हें कमजोर शुक्राणुओं के बीच से स्वस्थ शुक्राणुओं को चुनने में मदद मिलती है। मुंबई के लीलावती अस्पताल के बाद दिल्ली स्थित फोर्टिस ला फेम में भी आईएमएसआई तकनीक वाली मशीन पहुंच चुकी है।
दोनों अस्पतालों के फर्टिलिटी विशेषज्ञ डॉ. ऋषिकेश पई के अनुसार ऐसे दम्पति, जो सामान्य रूप से संतानोत्पत्ति करने में असफल रहते हैं, वे आईवीएफ की मदद लेते हैं। डॉक्टर परखनली में पति के शुक्राणुओं को पत्नी के अंडाणुओं से मिलाकर उसका निषेचन कराते हैं। पहली बार में आईवीएफ की सफलता दर बेहद कम है। क्योंकि जिन पुरुषों के वीर्य में शुक्राणुओं की मात्रा कम, धीमी या कमजोर होती है, उनमें स्त्री के अंडाणुओं को निषेचित करने की क्षमता नहीं होती है। इसके लिए आईएमएसआई तकनीक बेहद मददगार है।
उनके अनुसार स्वस्थ शुक्राणुओं की संख्या कम होने के कारण बड़ी संख्या में आईवीएफ के असफल होने का खतरा बना रहता है। प्रक्रिया में सामान्य रूप से प्रत्येक अण्डे के निषेचन के लिए कम से कम ५०,००० सक्रिय एवं स्वस्थ शुक्राणुओं की आवश्यकता होती है। आईवीएफ के लिए ४० से ५० लाख स्पर्म काउंट की आवश्यकता होती है। लेकिन यदि शुक्राणुओं की संख्या आवश्यकता से कम होती है तो ऐसी स्थिति में आईएमएसआइ तकनीक इस्तेमाल की जाती है। इस प्रक्रिया में शुक्राणुओं को ७२०० गुना अधिक बड़ा कर देखा जाता है। इससे कमजोर शुक्राणुओं में से स्वस्थ्य शुक्राणुओं को चुनने में आसानी होती है।
शुक्राणुओं को देखने के लिए कंप्यूटर से जुड़े एक मेडिकल माइक्रोस्कोप का इस्तेमाल करते हैं। आईवीएफ के बार-बार असफल होने पर खर्च बढ़ता चला जाता है। ऐसे में जो दम्पति असफलता की कोई गुंजाइश नहीं छोड़ना चाहते, वो पहली बार में ही आईएमएसआई का विकल्प चुन सकते हैं, इससे खर्च में भी कमी आती है(संदीप देव,नई दुनिया,दिल्ली,28.1.11)।
उनके अनुसार स्वस्थ शुक्राणुओं की संख्या कम होने के कारण बड़ी संख्या में आईवीएफ के असफल होने का खतरा बना रहता है। प्रक्रिया में सामान्य रूप से प्रत्येक अण्डे के निषेचन के लिए कम से कम ५०,००० सक्रिय एवं स्वस्थ शुक्राणुओं की आवश्यकता होती है। आईवीएफ के लिए ४० से ५० लाख स्पर्म काउंट की आवश्यकता होती है। लेकिन यदि शुक्राणुओं की संख्या आवश्यकता से कम होती है तो ऐसी स्थिति में आईएमएसआइ तकनीक इस्तेमाल की जाती है। इस प्रक्रिया में शुक्राणुओं को ७२०० गुना अधिक बड़ा कर देखा जाता है। इससे कमजोर शुक्राणुओं में से स्वस्थ्य शुक्राणुओं को चुनने में आसानी होती है।
शुक्राणुओं को देखने के लिए कंप्यूटर से जुड़े एक मेडिकल माइक्रोस्कोप का इस्तेमाल करते हैं। आईवीएफ के बार-बार असफल होने पर खर्च बढ़ता चला जाता है। ऐसे में जो दम्पति असफलता की कोई गुंजाइश नहीं छोड़ना चाहते, वो पहली बार में ही आईएमएसआई का विकल्प चुन सकते हैं, इससे खर्च में भी कमी आती है(संदीप देव,नई दुनिया,दिल्ली,28.1.11)।
धन्यवाद इस जानकारी के लिये।
जवाब देंहटाएंबढ़िया लेख लिखा है आपने ...!
जवाब देंहटाएंशुभकामनायें और अच्छे लेख के लिए आभार !
निसंतान दम्पत्तियों के लिए निसंदेह बड़ी अच्छी खबर है ।
जवाब देंहटाएंअच्छी खबर
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