बुधवार, 13 अक्तूबर 2010

दवा परीक्षण और नैतिकता

मध्य अमेरिकी देश ग्वाटेमाला के राष्ट्रपति अल्वारो कोलॉन से पिछले दिनों अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने माफी मांग ली। इस माफी का ताल्लुक पचास के दशक के बाद वहां अमेरिकी सरकार द्वारा किए गए हस्तक्षेप से नहीं था, और न ही अमेरिकी शह पर बिठाए गए सैनिक तानाशाहों द्वारा की गई हजारों मासूमों की हत्या से था, जिसने वहां की एक समूची विद्रोही पीढ़ी को लगभग कुचलने की कोशिश की थी। वैसे इसका ताल्लुक इस छोटे-से मुल्क में अमेरिका के एक अलग किस्म के हस्तक्षेप से ही था, जो 1946 से 1948 तक चला था। इसके तहत वहां अमेरिकी वैज्ञानिकों ने अमेरिकी स्वास्थ्य महकमे के तहत नई दवा परीक्षण के लिए एक अलग किस्म का प्रयोग चलाया। इसमें नैतिकता के तमाम मापदंडों को ताक पर रखकर एक इंस्टीट्यूट में इलाज के लिए भर्ती मानसिक रोगियों में जानबूझकर यौन रोगों का संक्रमण फैला दिया था ताकि वे यह जान सकें कि पेनिसिलिन नामक दवा से क्या इसकी रोकथाम हो सकती है। उपरोक्त संस्थान में 696 मानसिक रोगी स्त्री-पुरुष भर्ती थे। 1946 से 1948 के बीच चले इस परीक्षण में वैज्ञानिकों ने इन मानसिक रोगियों के पास वेश्याओं को भेजा। जब कुछ मानसिक रोगियों को सिफिलिस नामक यौन रोग का संक्रमण नहीं हुआ, तब उन्हें जानबूझकर इन रोगों को संक्रमित कर दिया गया। किन्हीं डॉ. कटलर की अगुआई में चले इस प्रयोग का भंडाफोड़ पिछले दिनों अचानक हुआ, जब मैसाच्युएट्स स्थित वेल्सले कॉलेज की मेडिकल इतिहासकार रेवरबी पुराने रेकार्ड को खंगाल रही थीं, उसी वक्त उनके हाथ ग्वाटेमाला के इस प्रोजेक्ट की फाइल लगी। अमेरिकी सरकार के सार्वजनिक स्वास्थ्य विभाग के तहत अमेरिकी वैज्ञानिकों द्वारा किए गए इन प्रयोगों का खुलासा होते ही बराक ओबामा ने माफी मांगना ही मुनासिब समझा। अपनी तमाम करतूतों के लिए विश्व जनमत से ऐसे ही तमाम लांछन प्राप्त अमेरिकी विदेशमंत्री हिलेरी क्लिंटन और मानव संसाधन सेक्रेटरी कैथेलिन ने भी ग्वाटेमाला की सरकार और यौन रोगों से संक्रमित लोगों के परिवारजनों या वंशजों से माफी मांगी। इन प्रयोगों को उन्होंने पूरी तरह अनैतिक कहा। जानकार बता सकते हैं कि ग्वाटेमाला में चले प्रयोगों का यही वह दौर था, जब खुद अमेरिका दूसरे विश्वयुद्ध के अपराधों को दंडित करने के लिए बने न्यूरेम्बर्ग मुकदमे में इंसानियत का रखवाला बनकर उपस्थित था। इसी दौरान नात्सी प्रयोगों में शामिल डॉक्टरों पर भी मुकदमा चला था और 23 जर्मन डॉक्टर कठघरे में खड़े थे, जिन पर आरोप था कि हिटलर के यातना शिविरों के बंदियों पर इन डाक्टरों ने तरह-तरह के प्रयोग किए थे। इनमें से सोलह डॉक्टरों को सजा मिली, छह डॉक्टरों को सजा-ए-मौत भी दी गई। इसी मुकदमे का नतीजा था कि चिकित्सकीय नैतिकता के अंतरराष्ट्रीय मापदंडों को विकसित किया गया, जिसके तहत यह तय किया गया कि अगर इंसानों पर किसी भी तरह के प्रयोग करने हैं तो उसके लिए उससे जानकारीप्रद सहमति लेनी जरूरी है। ग्वाटेमाला में चले दवा परीक्षणों को लेकर अमेरिकी सरकार की जितनी भी भद्द पिटे, हम यह भी देख सकते हैं कि ऐसी हरकतों पर वह उसके बाद भी चलता रहा है। मेडिकल इतिहासकार रेवरबी को ग्वाटेमाला में चले इन प्रयोगों का पता तब चला, जब वे इसी किस्म के अन्य कुख्यात प्रयोग के लिए सामग्री जुटा रही थीं। यौन रोगों पर विभिन्न दवाओं की उपयोगिता को जांचने के लिए चला यह अमेरिकी प्रयोग 1931 में शुरू हुआ था और 1972 तक चल रहा था। इसके अंतर्गत अमेरिका के अंदर अलाबामा प्रांत के टस्कगी इंस्टीट्यूट के इलाके में बसे 399 अश्वेत किसानों को चुना गया था। इसमें सहभागी लोगों को कभी यह नहीं बताया गया कि उन्हें यौन रोगों का संक्रमण हो चुका है और न ही इसके लिए उनका इलाज किया गया। इन गरीबों को यही लालच दिया गया कि उनकी चिकित्सकीय जांच मुफ्त होगी, उन्हें मुफ्त खाना मिलेगा और घर से इंस्टीट्यूट लाने-पहुंचाने का प्रबंध किया जाएगा। वर्ष 1972 में इस प्रयोग का भंडाफोड़ तभी हुआ, जब इस संस्थान में नए शामिल पीटर बक्स्टन नामक डॉक्टर ने इस प्रयोग की नैतिकता पर सवाल उठाए और जब संस्थान की तरफ से उसे जवाब नहीं मिला, उसने अखबारों की शरण ली। उस वक्त 399 सहभागियों में से महज 74 लोग जिंदा बचे थे। 28 लोग सिफिलीस से मरे थे, 100 लोग अन्य जटिलताओं से कालकवलित हुए थे, 40 लोगों की पत्नियों को इस संक्रमण ने जकड़ लिया था और 19 बच्चे इसी बीमारी को लेकर पैदा हुए थे। निश्चित ही ग्वाटेमाला में मानसिक रोगियों पर चले प्रयोग हों या टस्कगी में अश्वेत किसानों पर दवा परीक्षण के लिए चले प्रयोग, इंसानियत के खिलाफ ये ऐसे अपराध हैं, जिनके बारे में महज माफी मांगने से काम नहीं चल सकता। हर न्याय पसंद व्यक्ति यही कहेगा कि ऐसे अपराधों में सचेत रूप में शामिल डॉक्टर और अन्य चिकित्साकर्मी और प्रयोगों के कर्ताधर्ताओं पर मुकदमे चलने चाहिए थे तथा पीडि़तों को मुआवजा मिलना चाहिए। मगर क्या हम कह सकते हैं कि इक्कीसवीं सदी की दूसरी दहाई की दहलीज पर दवा परीक्षणों के ऐसे सिलसिलों से हम मुक्त हो चुके हैं या देसी-विदेशी दवा कंपनियों ने जानकारीप्रद सहमति हासिल करने की बात को अभी भी किताबी बनाकर रखा है। कितने लोग इस सच से अपने यहां परिचित हैं कि हर साल पांच सौ से अधिक लोग अपने यहां दवा परीक्षण के दौरान ही मर जाते हैं। विडंबना ही कही जाएगी कि देसी-विदेशी कंपनियों की नई-नई दवाओं के लिए गिनीपिग बनते आम हिंदुस्तानी के लिए इस मसले पर बोलने वाला भी कोई नहीं है। पिछले दिनों लोकसभा में प्रश्न का उत्तर देते हुए स्वास्थ्य मंत्रालय के दिनेशचंद्र द्विवेदी ने इस विस्फोटक तथ्य को उजागर किया कि यहा ड्रग ट्रायल के दौरान विगत तीन सालों में 1519 लोगों की मृत्यु हुई है। विकसित देशों की तुलना में भारत जैसे तमाम विकासशील देशों में दवा कंपनियों के दो तिहाई परीक्षण संपन्न होते हैं। अब जहां तक हिंदुस्तान की बात है तो यह अनुमान लगाया जाता है कि दुनिया का हर चौथा परीक्षण यहां होता है और आज की तारीख में चिकित्सा परीक्षण का बाजार डेढ़ बिलियन डॉलर को लांघ चुका है। दूसरे, समूचे दवा परीक्षण उद्योग का लगभग आधा हिस्सा भारत के नियंत्रण में है। कल्पना ही की जा सकती है कि चिकित्सा परीक्षण के उद्योग के होते विस्तार के साथ कितने मासूम लोग इसी तरह कालकवलित होंगे। प्रश्न उठता है कि मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया द्वारा इस संबंध में जारी निर्देशों के बावजूद जिसमें न केवल मरीज की जानकारीप्रदत्त सहमति जरूरी है, बल्कि दवाओं को दिए जाते वक्त उसके इलाज तथा देखरेख को सुनिश्चित करने, यहां तक कि दवाओं के दुष्परिणाम दिखें तो आपातस्थिति में उसके इलाज की गारंटी करने की बात कही गई है। इसके बावजूद आखिर इतनी बड़ी संख्या में लोग क्यों मर रहे हैं? स्पष्ट है कि मेडिकल काउंसिल के दिशा-निर्देश एक तरह से कागजी बाघ बन गए हैं और वास्तविक परीक्षणों में तमाम नैतिक मापदंडों को किनारे रखा जा रहा है(सुभाष गताडे,दैनिक जागरण,13.10.2010)।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

एक से अधिक ब्लॉगों के स्वामी कृपया अपनी नई पोस्ट का लिंक छोड़ें।